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रंग-भेद आदि भेदभाव एवं वैदिक धर्म

यह संसार जिसमे सूर्य , चन्द्र , पृथ्वी , अग्नि, वायु , जल, आकाश  आदि नाना प्रकार के  भौतिक पदार्थ  है , यह सदा से  बने हुए नहीं हैं , कभी न कभी यह बने  या बनाये  गये  हैं । मनुष्यों  द्वारा तो  इन्हे बनाया ही नहीं  जा सकता।  विचार, चिन्तन, अध्ययन व वैदिक ग्रन्थो  के  अनुसार यह ब्रह्माण्ड सर्वत्र विद्यमान एक सर्वव्यापक,  सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान  चेतन सत्ता के  द्वारा बनाया हुआ सिद्ध होता है । इस संसार की रचना का तर्क  व बुद्धि संगत उत्तर हमे वेद एवं  वैदिक साहित्य मे  विस्तार से  मिलता है । इस भौतिक जगत मे मनुष्य के साथ ही पशु , पक्षी, कीट, पंतग आदि जैविक सृष्टि  भी विद्यमान है  जिन्हें  यद्यपि माता-पिता जन्म देते  है  परन्तु  सबके  शरीरों  का निर्माण उसी सर्वव्यापक वर्ग  किमी. है । अब यह मानकर कि यह संसार  ईश्वर ने  बनाया है  तो  उसका इसे  बनाने  का प्रयोजन क्या था, इसका ज्ञान हो ना आव’यक है । ईश्वर  ने  यह संसार इसलिए बनाया है  कि वह इसे बना सकता है और इसे  चला सकता है  जैसा कि यह सदियो से चला आ रहा है । यदि वह न बनाता तो उस पर अज्ञानी, सामर्थ्यहीन  व निष्क्रिय होने का आरोप लगता तथा उसके द्वारा बना दिये जाने  के  कारण अब, ज्ञानी व अल्पज्ञानी, कोई आरोप नहीं लगा सकते ।  चेतन तत्व अर्थात् ईश्वर के  द्वारा होता है। हमारी यह पृथ्वी अति विस्तृत है । इसका व्यास 12,700 किमी. है , परिधी लगभग 40,075 किमी. तथा इसका क्षेत्रफल 5,10,065 वर्ग  किमी. है । अब यह मानकर कि यह संसार  ईश्वर ने  बनाया है  तो  उसका इसे  बनाने  का प्रयोजन क्या था, इसका ज्ञान हो ना आव’यक है । ईश्वर ने यह संसार इसलिए बनाया है कि वह इसे बना सकता है और इसे चला सकता है जैसा कि यह सदियो  से  चला आ रहा है । यदि वह न बनाता तो उस पर अज्ञानी, सामर्थ्यहीन व निष्क्रिय होने का आरोप लगता तथा उसके  द्वारा बना दिये जाने के कारण अब, ज्ञानी व अल्पज्ञानी, कोई  आरोप नहीं  लगा सकते । जब कोई रचना की जाती है तो उसका प्रयोजन भी अवश्य  होना चाहिये । इसका भी उत्तर वेद एवं  वैदिक साहित्य से मिलता है  जो  बताते  है  कि इस संसार मे  तीन सत्ताओ  मे  से  एक तो  सर्वव्यापक चेतन सत्ता ‘ईश्वर’ है  एवं  अन्य दो  सत्ताये जीवात्मा व प्रकृति  है। जीवात्मा भी एक चेतन तत्व है  जो अनादि, अजन्मा, अविनाशी , अमर, कर्म -फल व्यवस्था व जन्म-मृत्यु – मोक्ष के चक्र में फंसा हुआ, एकदेशी व अल्प परिमाण वाली सूक्ष्म व अदृश्य सत्ता है  जिसका ज्ञान, बुद्धि व मन से  प्रत्यक्ष रूप में अनुभव होता है । प्रकृति एक अति सूक्ष्म जड़  तत्व है । मूल  प्रकृति  सत्व, रज व तम गुणों  की साम्यावस्था है  जो  परिमाण मे अनन्त है  व प्रलयावस्था मे  इस सारे  ब्रह्माण्ड मे फैली हुई  होती है । प्रकृति का यदि परिमाण जानना हो तो यह समझना चाहिये  कि सारे  ब्रह्माण्ड मे जितने  भी जड़ पदार्थ है , उन सबके  नष्ट होने  पर, यहां  तक की अणु , परमाणुओ के  भी अस्तित्वहीन होने  पर जो ऊर्जा रूपी कण बचेगे  उनसे  ही सारे  ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है  और यह ऊर्जा  रूपी समग्र प्रकृति ही इस संसार का आदि कारण व मूल परिमाण है । जीवात्माये  चेतन होने  के  कारण ज्ञान, इच्छा व प्रयत्न गुणो वाली है एवं  हमारे  ज्ञान के  अनुसार संख्या मे अनन्त तथा ईश्वर के ज्ञान मे  इनकी संख्या सीमित है। जीवात्मा के ज्ञान, इच्छा व प्रयत्न गुणो को प्रत्यक्ष अथवा व्यवहार मे  लाने के लिए इसे  मनुष्य, पशु , पक्षी कीट अथवा पतंग आदि किसी योनि मे शरीर  सहित अवस्था मे होना आव’यक है। जन्म धारण से पूर्व  अथवा मृत्यु के प’चात यह जीवात्मायें मूर्छित अवस्था में  होती है। अब ईश्वर क्यो कि सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान चेतन सत्ता है , अतः उसका कर्तव्य व दायित्व है  कि वह जीवात्माओं के लिए ’शरीरों  की रचना करे । ’शरीरों  की रचना से पूर्व इस सष्ष्टि को रचना अनिवार्य है अन्यथा मनुष्य के रूप में जीवात्माये  अपने  शरीरों से  ज्ञान, इच्छा व प्रयत्न गुणो  का उपयोग व उपभोग नहीं  कर सकेगीं । इस कारण ईश्वर को  सृष्टि की रचना करनी हो ती है । ईश्वर मे सष्ष्टि की रचना करने  का ज्ञान व सामर्थ्य  दोनो है । सृष्टि रचना के लिए उपादान कारण अर्थाव् वह जड़ पदार्थ  जिससे यह सृष्टि बनती है , की आव’यकता है। सृष्टि के  उपादान कारण की पूर्ति  ईश्वर को मूल प्रकृति से प्राप्त रहती है । सृष्टि की रचना के  लिए ईश्वर प्रकृति के अति सूक्ष्म कणो – सत्व, रज व तम् से , भिन्न भिन्न प्रकार के परमाणु  आदि बना कर उन्हे स्थूलाकार करता है और यह विकृतियाँ ही घनीभूत होकर सूर्य, चन्द्र , प्रकृति व पृथ्वीस्थ सभी पदार्थ अग्नि, जल, वायु  आदि के रूप मे परिवर्तित की जाती है । वैदिक साहित्य मे ईश्वर द्वारा सृष्टि रचना का वर्ण न करते हुए बताया गया है कि सत्व, रज व तम की साम्य अवस्था के बाद पहला विकार महत्वत्व का होता है, फिर अहंकार नामक तत्व या पदार्थ  अस्तित्व मे  आता है , उससे  पांचतन्मा़त्राये, मन, बुद्धि, चित्त, पांच ज्ञान इन्द्रियां , पांचकर्मेन्दियां आदि बनती है जो ईश्वर द्वारा बनाई  जाती है। इससे पूर्व कि गोरा व काला के रंग-भेद की चर्चा करे , ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ व तर्क संगत स्वरूप का उल्लेखकरना भी आव’यक है। ईश्वर का स्वरूप – सत्य, चित्त, आनन्दयुक्त, निराकार, सर्वशक्तिमान , न्यायकारी, दयालु , अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर , सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता  आदि है ।

ईश्वर जीवात्माओ को  पूर्व  किये  हुए कर्मो  का फल देता है  जो  कि जाति ( मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि), आयु  एवं  सुख-दुख रूपी भोगो के  रूप मे  होता है । जीवात्मा अर्थात् हमारा स्वरूप चेतनस्वरूप,  एकदेशी, अल्प परिणाम, निराकार, अल्प ’शक्ति , अल्पज्ञ अर्थात् अल्प-सीमित-कम ज्ञान रखने  वाला, अनादि, अजन्मा, अमर, ज्ञान के  लिए माता-पिता-आचार्य -पुस्तको सहित ध्यान व समाधि मे परमात्मा से  विद्या व ज्ञान प्राप्त  करने  वाला आदि स्वरूप वाला है । कर्मो  को  करना व फलों को  भोगना भी इसका स्वरूप है। इसी प्रकार प्रकृति  एक जड़  पदार्थ  है । कारण रूप मे यह सत्व, रज व तम की साम्यावस्था के  रूप मे  होती है  और कार्य  रूप मे यह सूर्य , पृथ्वी , चन्द्र , अग्नि, जल, वायु , आकाश और इस सम्पूर्ण  ब्रह्माण्ड के  रूप में होती है ।

अतः ईश्वर  जीवो  को  उनके  पूर्व जन्मों  व कल्प-कल्पान्तरो  मे  किए हुए कर्मो  का फल देने  के  लिए यह सृष्टि रच कर उन्हे मनुष्य, पशु , पक्षी आदि योनियो  में  जन्म देता है । अच्छे व कम खराब कर्म वालों  को  मनुष्य जन्म व खराब व कम अच्छे कर्म करने  वालो  को  पशु , पक्षी आदि निम्न योनियां  मिलती हैं । अब मनुष्य जन्म का निर्धारण हो  जाने  पर भी सभी जीवो  के  कर्म  समान नहीं  होते  अतः पूर्व  किए हुए इन्हीं  कर्मो के  आधार पर माता-पिता, रंग, रूप, देश  व काल आदि का निर्धारण होता है । मनुष्यो  मे  जो  भिन्न भिन्न आकृतियां , रंग व रूप मुख्यतः गोरा व काला, कद-काठि, सुन्दरता व कुरूपता, स्वास्थ्य आदि है वह हमारे  पूर्व  जन्मो के  कर्मो व कुछ भौगोलिक कारणो से  ही होते हैं । ईश्वर के  सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु  आदि होने  के कारण उसे  इन बातो का निर्णय करने  मे  कोई  विशेष  परिश्रम नहीं  करना पड़ता और न ही समय लगता है । ऐसा समझना चाहिये  कि ईश्वर के पास इसकी स्वचालित व्यवस्था है । सावंले या काले  रंग का हो ना कोई  ईश्वर  महत्व नहीं  रखता। मुख्य बात तो  मन व बुद्धि की पवित्रता, आचरण, व्यवहार, सदाचार-चरित्र आदि की है । जो  अधिक ज्ञानी, सच्चरित्र, व स्वस्थ है  वह काला, सांवला, असुन्दर व कुरूप हो कर भी गोरे  रंग के  अज्ञानी, निर्बल चरित्र, सुन्दर व्यक्ति – स्त्री व पुरूष से  कहीं अधिक महत्वपूर्ण  व सम्मानीय है। परन्तु  आजकल व्यवहार मे  ऐसा देखने  मे आता है  कि गुणहीन गोरे  रंग वालों  को  सांवले  या काले  रंग के  व्यक्तियों  से  अधिक महत्व दिया जाता है  औ र गुणवान सांवले  व काले  रंग के  व्यक्तियों  को  गोरों  से  कम महत्व मिलता है । गोरे लोग काले लोगों  को  पसन्द नहीं करते  व कईयों  के  साथ ऐसा भी होता है  कि गोरे  लोग काले लोगों  से दूरी बना कर रखते है  और वैवाहिक सम्बन्धो  मे यह समस्या अधिक आती है । इसी मनो विज्ञान के अनुसार समाज में  भी गोरो  को  पसन्द किया जाता है  और काले  लोगो  की उपेक्षा हो  जाती है । यह हमारे  समाज की अन्ध-धारणा या कूप-मण्डूक मान्यता है , इसे  बदलना होगा और इसके  लिए हमें ज्ञान का सहारा लेना होगा। इसके लिए विद्यालयों  या स्कूल की पुस्तको  मे पाठ दिये  जा सकते है । विद्यालयो वा स्कूलो  मे  अध्यापक बच्चों  को  इस पर विशेष  रूप से  पढा व समझा सकते है  कि वह जीवन मे  काले  व गोरे  का भेद न करे  क्यों  कि ऐसा करने वाले लोग ईश्वर के दण्ड के  भी भागी होते  है । यह अच्छी बात है  कि हमारे  संविधान व कानून मे  मनुष्यों  के  गोरे  व काले  रंग के  आधार पर भेदभाव नहीं  किया जाता भेदभाव का अन्य कारण मानसिकता से  भी जुड़ा है । क्यों कि हम लोग अंग्रेजों  के गुलाम रहे  है  और अंग्रेजों  के  गोरा होने  के  कारण वह हम भारतीय, जो  काले , सांवले  या कम गोरे  होते  थे  व है , पर अत्याचार करते  थे । अतः हमे भी उनसे  यह मिथ्या धारणा या अन्ध-परम्परा विरासत मे  मिली जो  हमारी मानसिकता मे शामिल  हो  गयी है  जिसे  ’शिक्षा , ज्ञान व विवेक से  दूर करना है । काले  व गोरे  रूप-रंग एवं  भिन्न भिन्न आकृतियां  जिनमें लम्बा, नाटा, पतला-दुबला, मोटा, सुन्दर,  कुरूप आदि होने के पीछे अन्य कई  कारण स्पष्ट रूप से दिखाई  देते है । हमारी पृथ्वी के सभी भागो  पर लो ग रहते  है । कहीं  सर्दी  अधिक है तो कहीं  गर्मी  अधिक होती है । कहीं वर्षा  अधिक होती है  तो कहीं  बिलकुल ही नहीं  होती। कहीं उर्वरा भूमि है तो  कहीं  रेगिस्तान जहां  घास तक भी नहीं  होती और वहां  पशु पालन भी नहीं  किया जा सकता। कहीं  पहाड़  है  तो  कहीं  मैदान, अतः भौगोलिक कारणो से  भी मनुष्य गोरे  व काले  रंग के  होते  हैं । अन्य कारणो  मे  लोगों  के  रहन-सहन, खान-पान, धार्मिक विचार, आचरण, सोच, श्रम, व्यायाम या परिश्रमपूर्ण जीवन भी कारण होता है । अफ्रीका मे  प्रायः  निर्धन लोग जिनके पास अधिक साधन व सुख-सुविधाये  नहीं  है , अधिक काले  होते  है । भारत की जलवायु शीतोषण  होने के  कारण यहां  गोरे व काले  तथा सभी कठ-काठि व रंग के लोग होते है । सन्तानो  के  गोरे  व काले  रंग का होने  का कारण प्रायः माता-पिता के  अनुरूप होना भी है । यदि माता-पिता दोनो काले  हैं  तो  सन्तान का काला होना प्रायः  निश्चित  होता है । गोरे माता-पिता की सन्तान गोरी ही होती है। परन्तु  रंग का प्रभाव किसी भी रूप मे व्यक्ति के  गुणों , ज्ञान, सदाचार आदि व चारित्रिक विशेषताओ  पर नही पड़ता है । अतः शिक्षित  लोगो को इन बातो  का हमेशा ध्यान रखना चाहिये  और यदि प्राथमिक  शिक्षा  में  ही इस विषय को  सम्मिलित कर लिया जाये  तो  इससे  भावी पीढि़यों  की मानसिकता बदली जा सकती है ।  गोरे  रंग के  व्यक्तियों  द्वारा काले  रंग के  व्यक्तियों  से  यदा-कदा व यत्र-तत्र जो  भेदभाव किया जाता है  वह किसी भी प्रकार से  उचित नहीं  है । गोरे  रंग के  लोग स्वयं  गोरे  नहीं  बने  और इसी प्रकार काले  रंग के  व्यक्ति अपनी इच्छा से  काले  नहीं  बने  है। ईश्वर ने  हम सबको  बनाया है  और इसके  पीछे  कारण हो  सकते  है  जिसका ज्ञान केवल ईश्वर को  ही हो  सकता है । हमे  तो  बस अपने  पूर्व  किये  हुए अच्छे  व बुरे  कर्मो   का भोग करना है  जो  सुख या दुख के  रूप मे  हमे  मिलते  रहते  है । अच्छे  कर्मो  के  आधार पर हमे  जो  सुख सुविधाये  प्राप्त  हुई   है  उनका उपभोग केवल स्वयं  के  सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करने  के  लिए ही न करे। सुख भोग की इच्छा नहीं  करनी चाहिये  क्यो कि विवेचना से  यह ज्ञात हुआ है  कि प्रत्येक सुख के साथ चार प्रकार के  दु:ख यथा, परिणाम, ताप, संस्कार एवं  गुणवृत्तित  विरोध दु:ख जुड़े हुए हैं । हर सुख का परिणाम कुछ मात्रा में  दु:ख अव’य ही होता है । हमने कई  बार पढा  कि लोगो  ने  ’शराब  पी, वह जहरीली थी, उन्होने  सुख के  लिए पी थी तथा परिणाम मे उन्हे  मृत्यु  रूपी दु:ख मिला। स्वादिष्ट भोजन भी यदि बिना परीक्षा किए करते  है  तो  उससे  भी दु:ख मिलता है  जै से  कि वह ठीक प्रकार से  न बनाया गया हो । उसमे  ऐसे  पदार्थ  हो  सकते  है  जो  हमारे  शरीर व स्वास्थ्य के  अनुकूल न हो और हो  सकता है  कि अपवादस्वरूप किसी परिस्थिति मे  उसमे  कुछ विष व हानिकारक पदार्थ  मिले  हो जैसा कि आजकल व्यापारियों  द्वारा स्वार्थ पूर्ति  के लिए खाद्य पदार्थो  मे मिलावट की जाती है  व क कृत्रिम  दूध व इससे बने  पदार्थ  आदि बहुतायत मे  मिलते  है । बाजार में  प्राप्त होने  वाले  फल व सब्जियां  भी रसायनो के  प्रयोग से  विष के  समान ही प्रायः है । मनुष्य जीवन का उद्दे य सुख भोगना मात्र ही नहीं है  अपितु  दु:खो  की पूर्ण  निवृत्ति  है , ऐसा विद्वान व ज्ञानी मानते  है ।  अतः गोरे  लोगो द्वारा काले लोगो  को अपना मित्र बना कर, उन्हें  पूरा सम्मान देकर, किसी प्रकार का अन्याय या पक्षपात न कर व उनके  ज्ञान व उनके  परिश्रम आदि गुणों  की प्रशंसा कर व उनसे  लाभ उठाकर अपने  दु:ख निवृत्ति के  उद्देश्य  को  पूरा करने  की दिशा मे आगे  बढ़ना चाहिये । यदि कोई रंग के  आधार पर भेदभाव करता है  तो  यह निश्चित  है कि वह अपने  जीवन के  प्रमुख लक्ष्य, दु:ख निवृत्ति या बार-बार के जन्म-मरण से  मुक्ति अथवा मोक्ष से  दूर चला जायेगा, यह शास्त्रों की शिक्षा, अनुमान व ’शब्द  प्रमाण से  सिद्ध है । अतः किसी को  भी शरीर  की त्वचा के  रंग – गोरे  या काले के  आधार पर परस्पर भेदभाव कदापि नहीं  करना चाहिये  क्यो कि ऐसा करना ईश्वर व उसकी दया व कृपा  से  दूर होना है  जिसकी सजा मिलेगी और हम अपने  जीवन के  उद्देश्य मोक्ष वा दु:खो  की पूर्ण  निवृत्ति से  दूर हो  जायेगें । ईश्वर चाहता है  कि हम सुखों  व मिथ्या आचरण का त्याग कर ईश्वर का ध्यान, चिन्तन व परोपकारमय जीवन व्यतीत करे। प्रत्येक स्त्री व पुरूष का यही कर्तव्य है कि वह इसी प्रकार से  कर्तव्यो का निर्वाह करे । अतः मनुष्यो को  रूप व रंग के  आधार पर भेदभाव कदापि नहीं  करना चाहिये, ऐसा करना अनुचित है और ऐसा करने  वालो  का जीवन व्यर्थ  हो  जाता है ।  हम यहां  संस्कारो  का भी वर्णन करना चाहते  है । शरीर -वैज्ञानिको का कर्तव्य है  कि वह अच्छी श्रेष्ठ सन्तान जो  सुन्दर, आकर्षक, बलवान, बुद्धिमान, चरित्रवान, ईश्वरभक्त, देशभक्त, माता-पिता-गुरूजनो  की आज्ञाकारी, परोपकारी, दूसरों   का दु:खहरण करने की भावना रखनेवाली हो , उसे  कैसे  बनाया जा सकता है , इसकी विधि व पद्धति की खोज करे । हमारे  ऋषियों  ने  तो यह कार्य पहले  ही किया हुआ है । इसके  लिए उन्होने हमें  संस्कार विधि प्रदान की है । संस्कारवान सन्तान व भावी युवा पीढ़ी के लिए विवाह किस आयु  मे करें , भोजन कैसा करना चाहिये , ’शिक्षा-दीक्षा कैसी हो , सन्तान का लालन-पालन व पोषण किस प्रकार से हो , उनके  आचार्य  व गुरूजन किस प्रकार के हो , आध्यात्मिक विषयों  का ज्ञान किस प्रकार से कराया जाये , एतद्-विषयक समस्त ज्ञान व उसका पालन तथा  ईश्वरोपासना, योगाभ्यास व व्यायाम आदि का समावेश  प्रत्येक माता-पिता-आचार्य  व ब्रह्मचारी-विद्यार्थी  के  जीवन में  हो  तो  सन्तान व भावी पीढियां  चरित्रवान व श्रेष्ठ आचार विचारो  को  धारण करने  वाली होगी। अच्छे  सन्तान व नागरिको  के  लिए माता-पिता  व आचार्यो  का श्रेष्ठ आचारवान् होना आव’यक है । प्राचीन  काल मे  ऐसा ही हो ता था तभी ऋषि- मुनि, राम, कृष्ण , हनुमान, चाणक्य, दयानन्द जैसी महान आत्मायें   इस धरती पर जन्म लेती थीं। हमारी आजकल की शिक्षा प्रायः संस्कारविहीन शिक्षा है जिस कारण सामाजिक विषमताये  उत्पन्न हुई  एवं प्रचलित है । महाभारत काल, जो  आज से  लगभग 5,200 वर्ष पूर्व  है , के  बाद अज्ञान व अव्यवस्था छा जाने  के  कारण, जन्म पर आधारित जातीय व्यवस्था, अनेक कुप्रथाये, ऊँच -नीच की भावना आदि का प्रचलन हुआ जो  आज भी विभिन्न रूपो  मे  विद्यमान है । अज्ञान के  दूर होने  व सत्शिक्षा के प्रचार-प्रसार व प्रशिक्षण  से  ही सभी समाजिक बुराईयां  दूर होगीं । इन्हे  दूर करने  के  लिए वैदिक  ज्ञान सर्वाधिक सहायक है । वैदिक संस्कारो से  रंग-भेद एवं ऊँच-नीच की भावना को दूर किया जा सकता है  और समाज मे समरसता लायी जा सकती है ।

–मनमोहन कुमार आर्य

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