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अमृतत्व

पुराणों में इस प्रकार का वर्णन आता है कि समुद्र मन्थन करके देवों और दानवों ने अमृत को निकाला था। कहानी  जो भी हो, उसमें कितनी वास्तविकता है यह हमारी चर्चा का विषय नहीं है। हम केवल यहाँ अमृत के विषय में ही विचार करेंगे। आखिर कोई अमृत को प्राप्त क्यों करना चाहता है, इसका मुख्य प्रयोजन क्या है ? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि शरीर को अमरत्व प्रदान करना ही इसका मुख्य प्रयोजन है। क्योंकि आत्मा कभी विनाश को प्राप्त नहीं होती अतः उसकी अमरता के लिए कोई प्रयास करना बुद्धिमत्ता नहीं है और प्रयास करने की आवश्यकता भी नहीं है। रही शरीर की बात तो चाहे हम जितना भी प्रयास करें परन्तु कोई भी प्राकृतिक वस्तु कभी भी अमर नहीं हो सकती। निरुक्तकार ने कहा कि – “षड्भावविकारा भवन्तीति, जायते अस्ति विपरिणमते वर्धते अपक्षीयते विनश्यतीति” अर्थात् प्राकृतिक वस्तुओं में छह प्रकार के विकार या परिणाम देखे जाते हैं और उन परिणामों में अन्तिम है विनाश। जो वस्तु उत्पन्न हुई है उसका विनाश भी अवश्य होगा। उन सभी वस्तुओं में हमारा शरीर भी है। आज तक कोई भी शरीरधारी प्राणी सदा के लिए न जीवित रहा है और न कभी ऐसा हो सकता है। यह हम सबको भी विदित है कि हम कभी न कभी मृत्यु को प्राप्त हो ही जायेंगे, फिर भी इस शरीर को सदा बचाने में प्रयत्नशील रहते हैं परन्तु आजतक असफल ही रहे हैं, सब प्रकार का प्रयत्न व्यर्थ ही हुआ है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि न शरीर की अमरता के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए और न ही आत्मा के लिए। फिर यहाँ एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यह अमरता नामक चीज है किसके लिए ? उसकी हम कामना क्यों करते हैं ? हमारी कामना के अनुरूप ऐसा कोई तत्व है भी या नहीं ? यदि है तो उसका स्वरूप कैसा है ? इन सब शंकाओं का समाधान करना हो तो हमारा एक मात्र शरण है शब्द-प्रमाण।
शब्द-प्रमाण के आधार पर हम विचार करें तो वास्तव में अमृतत्व एक ऐसी स्थिति है जिसको प्राप्त कर लेने के पश्चात् जीवात्मा फिर लम्बेकाल तक शरीर के बन्धन में आती ही नहीं, जन्म-मरण के चक्र में कभी पड़ती ही नहीं। उस अमृत-पद का नाम ही मोक्ष है जहाँ दुःख का लेश मात्र भी नहीं है और आनन्द ही आनन्द है। इसको प्राप्त करके जीव ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्ष पर्यन्त अर्थात् इस प्रकार की सृष्टि और प्रलय 36 हजार बार होते रहेंगे तब तक समस्त दुखों से सर्वथा रहित होकर ईश्वर के आनन्द में ही मग्न रहता है। इसी अमृतत्व की प्राप्ति के लिए ही प्रत्येक प्राणी जाने-अनजाने में प्रयत्नशील हैं। किसी भी वस्तु को प्राप्त करने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता भी रहती है, बिना साधन के किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव है और इस अमृतत्व को प्राप्त करने का साधन है ज्ञान, कर्म और उपासना। बिना ज्ञान के हमारा कर्म भी ठीक नहीं हो सकता और कर्म शुद्ध हुए बिना उपासना ठीक नहीं हो सकती अतः तीनों साधन ही हमारा शुद्ध होना चाहिए अर्थात् शुद्ध-ज्ञान, शुद्ध-कर्म और शुद्ध-उपासना। ज्ञान के शुद्ध होने से कर्म और उपासना भी शुद्ध होते हैं इसीलिए ज्ञान को ही मुख्य माना जाता है और कहा भी गया है कि- “ज्ञानान्मुक्ति:” अर्थात् ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है, जिसके पास ज्ञान होता है वह मोक्ष रूपी अमृत को प्राप्त कर लेता है। यहाँ कर्म और उपासना का निषेध नहीं है अपितु ज्ञान में ही कर्म और उपासना का समावेश समझना चाहिए। ज्ञान में शुद्धता होनी चाहिए, शुद्धता का अर्थ है ज्ञान में सत्यता, वास्तविकता वा यथार्थता। जिस वस्तु का गुण-कर्म-स्वभाव जैसा हो उसको उसी रूप में ही जानना,मानना अथवा उसके साथ उसी रूप में ही व्यवहार करना सत्य कहलाता है। संसार की वस्तुओं के स्वरूप को यदि हम यथार्थ रूप में जान लेते हैं तो वही ज्ञान हमारी मुक्ति में सहायक बनता है। ज्ञान को प्रकाश भी कहा जाता है और वेदादि शास्त्रों में अनेकत्र ईश्वर को भी प्रकाश-स्वरूप और अन्धकार से पृथक कहा गया है। यदि हम ईश्वर को प्रकाश स्वरूप कहने से भौतिक प्रकाश ही अर्थ लेंगे तो उचित नहीं होगा क्योंकि वेदों में ईश्वर को तो सदा सर्वत्र व्यापक कहा गया है अतः प्रकाश को सर्वत्र व्यापक मान लेंगे तो कभी भी कहीं भी अन्धकार नहीं होना चाहिए परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता। सूर्य के संयोग से प्रकाश और सूर्य के वियोग होने से अन्धकार होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सूर्य जिस प्रकार भौतिक प्रकाशयुक्त है ऐसा ईश्वर नहीं है। यदि हम ज्ञान वा प्रकाशस्वरूप ईश्वर की उपासना करते हैं तो हम भी ज्ञानवान् हो जाते हैं जैसे अग्नि के संपर्क से हमें उष्णता की प्राप्ति होती है, ऐसे ही जब हम ज्ञान-विज्ञान का भण्डार ईश्वर की उपासना करते हैं तो ईश्वर निश्चय ही हमें ज्ञान प्रदान करते हैं। वैसे भी सृष्टि के आदि में ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया ही था और जब-जब कोई भी व्यक्ति समाधि लगाता तथा ज्ञान की याचना करता है तब-तब ईश्वर उस जीवात्मा को ज्ञान से युक्त कर देते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने भी इस अमृतत्व की प्राप्ति के लिए साधनों की परिगणना करते हुए विवेक, वैराग्य, षट्क-सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व आदि साधनों को स्वीकार किया है अतः हमें इन सबका भी पालन अवश्य करना चाहिए।
हम चाहे जितनी धन-संपत्ति भी एकत्रित क्यों न कर लें परन्तु इन सब साधनों से कभी भी उस अमृतत्व को प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि बृहदारण्यक उपनिषद् में मैत्रेयी ने जब यह प्रश्न किया कि इस सारी पृथिवी को यदि धन-सम्पत्ति से भर दिया जाये तो क्या मैं इससे पूर्ण तृप्त हो जाऊँगी? क्या मैं इससे अमर हो जाऊँगी? तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि – “यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यात् अमृतत्वस्य तु न आशा अस्ति वित्तेन इति” अर्थात् हे मैत्रेयी! जिस प्रकार धन-सम्पत्ति से युक्त अन्य लोगों का जीवन होता है, तुम्हारा जीवन भी ठीक ऐसा ही होगा, परन्तु इन सम्पूर्ण संसार की धन-सम्पत्ति से भी अमृतत्व की आशा कदाचित की नहीं जा सकती। सांख्यकार महर्षि कपिल जी ने भी कहा है कि – “न दृष्टात् तत्सिद्धिर्निवृत्तेरप्यनुवृत्तिदर्शनात्” अर्थात् इन सांसारिक दृष्ट-साधनों के द्वारा हम कभी अपने अन्तिम प्रयोजन (अत्यन्त दुःख निवृत्ति और अमृतत्व की प्राप्ति) को सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि एक दुःख के हट जाने पर भी फिर से अन्य दुखों की आवृत्ति देखी जाने से। यदि हम दुःख की निवृत्ति पूर्वक अमृतत्व को प्राप्त करके कृतकृत्यता अनुभव करना चाहते हैं तो हमें विवेक अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति करनी पड़ेगी। जैसे कि सांख्यकार ने कहा है – “विवेकात् निःशेषदुःखनिवृत्तौ कृतकृत्यता नेतरान्नेतरात्”। यथार्थ ज्ञान के द्वारा ही वैराग्य होता है और वैराग्य ही मोक्ष का साधन है, ज्ञान ही वैराग्य में कारण है। योग दर्शन के  भाष्यकार ने कहा है कि- “ज्ञानस्य एव पराकाष्ठा वैराग्यम्,एतस्यैव हि नान्तरियकं कैवल्यमिति” अर्थात् ज्ञान की पराकाष्ठा ही वैराग्य है और यह वैराग्य ही बिना व्यवधान के मोक्ष वा अमृतत्व को प्राप्त कराने वाला साधन है। यदि हम वास्तविक रूप में अमृतत्व को प्राप्त करना चाहते हैं तो ऋषियों के बताये मार्ग का अनुसरण करना ही पड़ेगा। उपनिषद् में ऋषि ने कहा कि- “भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति” अर्थात् विद्वान् लोग संसार के एक-एक पदार्थ को विवेचना करते हुए सबका आदि मूल परमेश्वर पर्यन्त पहुँच जाते हैं ऐसे धीर पुरुष मृत्यु के पश्चात् इस लोक से अमृत लोक को प्राप्त हो जाते हैं।

महर्षि सनतकुमार जी ने महर्षि नारद जी को उपदेश किया कि “यो वै भूमा तत्सुखं, नाल्पे सुखमस्ति। यो वै भूमा तदमृतम्”। अर्थात् जो महान स्वरूप, व्यापक है वही सुख है, जो सिमित पदार्थ हैं उनमें सुख नहीं है और जो भूमा है वही अमृत है। जब तक हम सांसारिक अल्प वस्तुओं का आश्रय छोड़ कर महान व्यापक स्वरूप परमेश्वर के शरण में नहीं जाते तब तक अमृतत्व को प्राप्त नहीं कर सकते। और भी वेद में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि – “यत्र ज्योतिरजस्रं….अमृते लोके अक्षित” हे परम पावन परमेश्वर! मुझ भक्त को उस मरणरहित अमृत लोक में, अक्षय-रूप परमधाम में स्थापित कीजिये। उस अमृतत्व को प्राप्त करने के लिए एक उपाय बताया गया है कि समस्त दुष्ट गुण-कर्म-स्वभाव से पृथक रहते हुए ईश्वरीय दिव्य गुण-कर्म-स्वभावों से युक्त हो कर हम जीवन्मुक्त बन जाएँ अर्थात् जीवित अवस्था में ही अमृतत्व को प्राप्त कर लेवें। अमृतत्व की प्राप्ति का एक मात्र शर्त है कि ईश्वर-साक्षात्कार पूर्वक हम सम्पूर्ण रूप से क्लेशों से रहित हो जाएँ, हमारे समस्त क्लेश दग्धबीज अवस्था को प्राप्त हो जायें। हम अधिक से अधिक यह प्रयास करें कि अविद्या आदि क्लेशों से युक्त न हों। क्लेशों के स्वरूप को और अवस्थाओं को हम ठीक-ठीक समझें तथा उन क्लेशों से कभी चित्त को अभिभूत न होने दें। सभी क्लेशों की जननी अविद्या ही है अतः कहा कि “अत्राविद्या क्षेत्रं प्रसवभूमिरुत्तरेषामस्मितादिनाम्” अर्थात् अविद्या कारण रूप उत्पत्ति स्थान है अस्मिता आदि क्लेशों का और भी कहा कि क्षीणक्लेशः कुशलश्चरमदेह इत्युच्यते अर्थात् जिसका क्लेश सम्पूर्णतया क्षीण हो जाता है वह योगी कुशल और अन्तिम शरीरवाला कहलाता है, ऐसा योगी शरीर छोड़ने के बाद सीधा ही अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है फिर से एक परांतकाल पर्यन्त शरीर के बन्धन में नहीं आता। इन सब प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर ही एक मात्र अमृत स्वरूप है और उसी को वा मोक्ष को ही प्राप्त करके हम स्वयं भी अमृत हो सकते हैं, इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है, अतः हमें सदा उसी के लिए ही प्रयत्नशील होना चाहिए।

 लेख प्रस्तुति कर्ता – आचार्य नवीन केवली

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