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हिंसक होता अमेरिकी बचपन गलती किसकी ?

अमेरिका नाम एक देश ही नहीं एक सपने और एक चश्मे का भी है क्योंकि इस चश्मे को लगाते ही हमें जीवन में खुशहाली के सपने दिखाई देने लगते हैं। आम भारतीयों के दिलो-दिमाग पर अमेरिका कई तरह से कायम है, वहां की खुशहाली का जश्न तो यहाँ के कोने कोने में पहुँच जाता है मगर जब वहां कोई दुखद हादसा होता है तो वह अखबार के कोने में पड़ा रह जाता है। हाल ही में अमरीका के टेक्सास राज्य में एक स्कूल में हुई गोलीबारी में दस लोगों की मौत हो गई है और इतने ही लोग घायल हुए हैं। हत्यारा एक 17 वर्षीय छात्र है जिसने इस वीभत्स कांड को अंजाम दिया है। हालाँकि अमेरिका के स्कूलों में हिंसा का यह पहला वाक्या नहीं है इससे पहले अनेकों बार अमेरिकी स्कूलों की हिंसा ने अखबारों के पन्नां के क्षेत्रफल में जगह बनाई है।

 इसी वर्ष फरवरी महीने में ही फ्लोरिडा हाई स्कूल में 17 लोगों की गोली मारकर हत्या कर देने के बाद 25 मार्च को अमेरिका में बंदूक नियंत्रण के कड़े कानूनों की मांग को लेकर 800 से ज्यादा जगहों पर 10 लाख से ज्यादा लोगों ने अमेरिका के कई शहरों में विरोध प्रदर्शन आयोजित किए थे और तब एक बहस उभरकर आई थी कि अमरीका के बंदूक कानून क्या इतने लचीले हैं कि वे मानवता पर संकट बन गए हैं? क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका के स्कूलों में हुए हिंसक रक्तपात ने इन सवालों को जन्म दिया है। अप्रैल 1999 में अमेरिका के कोलंबिन हाईस्कूल में दो छात्रों ने गोलाबारी कर 13 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था तो अप्रैल 2007 में अमेरिका के वर्जिनिया टेक में एक छात्र ने गोलाबारी कर 32 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।

 दरअसल अमेरिका में एक ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है जहां अकेलेपन के शिकार एवं मां-बाप के लाड़-प्यार से उपेक्षित बच्चे जब-तब कुंठा में आकर हिंसा कर रहे हैं। पिछले एक दशक में छात्र हिंसा से जुड़ी कई वारदातें सामने आ चुकी हैं। दिसंबर 2012 में अमेरिका के न्यूटाउन कनेक्टिकट इलाके के सैंडी हुक एलिमेंट्री स्कूल में हुए एक खौफनाक हमले में 20 वर्षीय एडम लंजा नाम के हमलावर ने 26 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। लंजा ने स्कूल में हमले से पहले अपनी मां की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इससे साफ पता चलता है कि इस घटना ने शिक्षा में मूल्यों के चरम बहिष्कार को रेखांकित किया है। जब स्कूलों में बच्चे इस तरह की हिंसा को अंजाम दें तब ये भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है।

 दरअसल, आधुनिक अमेरिका का निर्माण हिंसा की संस्कृति पर हुआ हैं तो इतनी आसानी से अमेरिकी समाज हिंसा मुक्त नहीं होगा। सामाजिक चिंतकां और मनोचिकित्सकों का मानना है कि अमेरिकी स्कूल हिंसा के कारण विशेष रूप से अपराध दर में वृद्धि लाने के साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण और स्कूलों के साथ-साथ समाज के लिए बुरी प्रतिष्ठा खड़ी हो रही है। उनका मानना है कि हिंसक टेलीविजन कार्यक्रमों, फिल्मों और वीडियो गेम का असर आज के बच्चों के अन्दर हिंसा पैदा कर रहा है। किशोर बच्चे अक्सर अपने पसंदीदा टैलीविजन पात्रों को एक्शन मूवीज में अनुकरण करते हैं। मासूम और बौने से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं इससे बच्चों में धैर्य के बहुत कम स्तर होते हैं और जब भी वे महसूस करते हैं कि चीजें उनकी इच्छाओं के अनुसार नहीं चल रही हैं, तो हिंसक प्रतिक्रिया देते हैं। कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो दूसरों की तुलना में स्वाभाविक रूप से अधिक आक्रामक हैं। ऐसा लगता है कि इस तरह के बच्चे हिंसक कृत्यों को बाकी की तुलना में अधिक आसानी से आकर्षित होते हैं इससे सुपर पावर के आँगन में बच्चों की हालत तीसरी दुनिया के जैसे लगती है।

 आज दुनिया मीडिया संस्थानों के द्वारा एक दूसरे से जुड़ चुकी है इसे ग्लोबल विलेज के बजाय अब ग्लोबल गली भी कह सकते हैं। इंटरनेट और टीवी के जरिये जुड़ती संस्कृति के कारण इस हिंसा का प्रसार भी तेजी से हो रहा है पिछले वर्ष ही भारत में गुडगाँव में हुए रेयान इंटरनेशनल स्कूल के छात्र प्रिंस (कोर्ट के आदेश अनुसार अब इसी नाम से पुकारा जायेगा) की ग्यारवीं कक्षा के ही एक छात्र द्वारा हत्या का मामला हो या इससे पहले चेन्नई के सेंट मैरी एंग्लो-इंडियन हायर सेकेंड्री स्कूल में 15 वर्षीय नाबालिग छात्र ने अपनी ही शिक्षिका की चाकू घोंप-घोंपकर क्रूरतापूर्वक हत्या का मामला रहा हो इससे अंदाजा लगाया जा सकता कि यह हिंसक संस्कृति बच्चों के मन को प्रभावित कर रही है। फर्क सिर्फ इतना है अभी इनके हाथों में अमेरिकी बच्चों की तरह बन्दूक नहीं है।

 छात्रों द्वारा कुंठा और अवसाद में आकर आत्महत्याएं तक के मामले यह सब दर्शाते हैं कि आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता, छोटे होते परिवार इसके अलावा बच्चों को केवल धन कमाऊ कैरियर के लायक बना देने वाली प्रतिस्पर्धा का दबाव भी उन्हें विवेक शून्य बना रहा है। सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये ऐसे गंभीर कारण हो सकते हैं जिनकी आज पड़ताल जरूरी है।

 आज पूरे विश्व में दिन पर दिन स्कूलों को आधुनिक बनाने की दौड़ और शिक्षा के बाजारीकरण से स्कूल भी नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोप पाने में असफल हो रहे हैं। छात्रों पर शिक्षा का बेवजह दबाव उनमें बर्बर मानसिकता भर रहा हैं। आज नैतिक शिक्षा, साहित्यिक शिक्षा के पाठ्यक्रम कम से कम किये जा रहे हैं जबकि साहित्य और समाजशास्त्र और नैतिक शिक्षा ऐसे विषय हैं जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बालमन में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करते हैं। अभी भी यदि हम वैश्विक संस्कृति और अंग्रेजी शिक्षा के मोह से उन्मुक्त नहीं होते तो शिक्षा परिसरों में हिंसा, हत्या, आत्महत्या जैसी घटनाओं से जुड़ें सवाल अमेरिका की तरह हमारे सामने भी मुंह खोले खड़ें होंगे….राजीव चौधरी

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