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अम्बेडकरवादी और श्री राम

अम्बेडकरवादी और श्री राम

डॉ विवेक आर्य

अम्बेडकरवादीयों की आदत से सभी परिचित है। उन्हें हिन्दू समाज से सम्बंधित सभी त्योहारों, परम्पराओं, मान्यताओं का विरोध करते हुए अनाप शनाप बकने की आदत है। आज विजयदशमी के अवसर पर एक अम्बेडकरवादी सुबह सुबह चिल्ला रहा था। बोला श्री राम का कोई अस्तित्व ही नहीं है। ब्राह्मण श्री राम की काल्पनिक कहानियां बनाकर लोगों को मुर्ख बनाने में लगे हुए हैं।

अम्बेडकवादियों को वैसे तो कोई गंभीरता से नहीं लेता, क्योंकि सभी को उनकी बकवास करने की आदत से परिचित हैं। मगर उनके भ्रामक प्रचार का प्रभाव अपरिपक्व नौजवानों पर न हो। इसलिए हमें उनके इस आक्षेप का सप्रमाण उत्तर देना पड़ा। अब देखिये कबीर को हर कोई जानता है। सारा दलित समाज विशेष रूप से जुलाहा वर्ग उनका मान-सम्मान करता है।

अगर राम काल्पनिक होते तो संत कबीर राम का गुणगान अपने दोहों में क्यों करते?

प्रमाण देखिये ——

भजि नारदादि सुकादि बंदित, चरन पंकज भांमिनी। भजि भजिसि भूषन पिया मनोहर देव देव सिरोवनी॥
बुधि नाभि चंदन चरिचिता, तन रिदा मंदिर भीतरा॥राम राजसि नैन बांनी, सुजान सुंदर सुंदरा॥
बहु पाप परबत छेदनां, भौ ताप दुरिति निवारणां॥कहै कबीर गोब्यंद भजि, परमांनंद बंदित कारणां॥392॥

गोब्यंदे तूँ निरंजन तूँ निरंजन राया। तेरे रूप नहीं रेख नाँहीं, मुद्रा नहीं माया॥टेक॥
समद नाँहीं सिषर नाँहीं, धरती नाँहीं गगनाँ। रबि ससि दोउ एकै नाँहीं, बहता नाँहीं पवनाँ॥
नाद नाँही ब्यँद नाँहीं काल नहीं काया।जब तै जल ब्यंब न होते, तब तूँहीं राम राया॥
जप नाहीं तप नाहीं जोग ध्यान नहीं पूजा।सिव नाँहीं सकती नाँहीं देव नहीं दूजा॥
रुग न जुग न स्याँम अथरबन, बेदन नहीं ब्याकरनाँ।तेरी गति तूँहि जाँनै, कबीरा तो मरनाँ॥219॥

” मैं गुलाम मोहि बेचि गुंसाईं। तन मन धन मेरा राम जी के तांई।।”
बिष्णु ध्यांन सनान करि रे, बाहरि अंग न धोई रे। साच बिन सीझसि नहीं, कांई ग्यांन दृष्टैं जोइ रे॥…
” कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढे बन माहिं।ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं।।”
” ज्यूं जल में प्रतिबिम्ब, त्यूं सकल रामहि जानीजै।”’

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।गले राम की जेवडी ज़ित खैंचे तित जाऊँ।।”
कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाती।तेल घटया बाती बुझी, सोवेगा दिन राति।।”
” जाति पांति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।”
साधो देखो जग बौराना,सांची कहौं तो मारन धावै,झूठे जग पतियाना।

हरि जननी मैं बालिक तेरा, काहे न औगुण बकसहु मेरा॥टेक॥
सुत अपराध करै दिन केते, जननी कै चित रहै न तेते॥
कर गहि केस करे जौ घाता, तऊ न हेत उतारै माता॥
कहैं कबीर एक बुधि बिचारी, बालक दुखी दुखी महतारी॥111॥

मैं गुलाँम मोहि बेच गुसाँई, तन मन धन मेरा रामजी के ताँई॥टेक॥
आँनि कबीरा हाटि उतारा, सोई गाहक बेचनहारा॥
बेचै राम तो राखै कौन राखै राम तो बेचै कौन॥
कहै कबीर मैं तन मन जाना, साहब अपनाँ छिन न बिसार्‌या॥113॥

अब मोहि राम भरोसा तेरा,
जाके राम सरीखा साहिब भाई, सों क्यूँ अनत पुकारन जाई॥
जा सिरि तीनि लोक कौ भारा, सो क्यूँ न करै जन को प्रतिपारा॥
कहै कबीर सेवौ बनवारी, सींची पेड़ पीवै सब डारी॥114॥

जियरा मेरा फिरै रे उदास, राम बिन निकसि न जाई साँस, अजहूँ कौन आस॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाँऊँ राम मिलावै न कोई, कहौ संतौ कैसे जीवन होई॥
जरै सरीर यहु तन कोई न बुझावै, अनल दहै निस नींद न आवै॥
चंदन घसि घसि अंग लगाऊँ, राम बिना दारुन दुख पाऊँ।
सतसंगति मति मनकरि धीरा, सहज जाँनि रामहि भजै कबीरा॥115॥

राम कहौ न अजहूँ केते दिना, जब ह्नै है प्राँन तुम्ह लीनाँ॥टेक॥
भौ भ्रमत अनेक जन्म गया, तुम्ह दरसन गोब्यंद छिन न भया॥
भ्रम्य भूलि परो भव सागर, कछु न बसाइ बसोधरा॥
कहै कबीर दुखभंजना, करौ दया दुरत निकंदना॥116॥

हरि मेरा पीव भाई, हरि मेरा पीव, हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव॥टेक॥
हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया, राम बड़े मैं छुटक लहुरिया।
किया स्यंगार मिलन कै ताँई, काहे न मिलौ राजा राम गुसाँई॥
अब की बेर मिलन जो पाँऊँ, कहै कबीर भौ जलि नहीं आँऊँ॥117॥

राम बान अन्ययाले तीर, जाहि लागे लागे सो जाँने पीर॥टेक॥
तन मन खोजौं चोट न पाँऊँ, ओषद मूली कहाँ घसि लाँऊँ॥
एकही रूप दीसै सब नारी, नाँ जानौं को पियहि पियारी॥
कहै कबीर जा मस्तिक भाग, नाँ जानूँ काहु देइ सुहाग॥118॥

आस नहिं पूरिया रे, राम बिन को कर्म काटणहार॥टेक॥
जद सर जल परिपूरता, पात्रिग चितह उदास।
मेरी विषम कर्म गति ह्नै परा, ताथैं पियास पियास॥
सिध मिलै सुधि नाँ मिलै, मिलै मिलावै सोइ॥
सूर सिध जब भेटिये, तब दुख न ब्यापै कोइ॥
बौछैं जलि जैसें मछिका, उदर न भरई नीर॥
त्यूँ तुम्ह कारनि केसवा, जन ताला बेली कबीर॥119॥

राम बिन तन की ताप न जाई, जल मैं अगनि उठी अधिकाई॥टेक॥
तुम्ह जलनिधि मैं जल कर मीनाँ, जल मैं रहौं जलहि बिन षीनाँ।
तुम्ह प्यंजरा मैं सुवनाँ तोरा, दरसन देहु भाग बड़ा मोरा॥
तुम्ह सतगुर मैं नौतम चेला, कहै कबीर राम रमूं अकेला॥120॥

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढत बन माहि !!
!! ज्यो घट घट राम है, दुनिया देखे नाही !!

ऐसे अनेक प्रमाण कबीर की रचनाओं में मिलते हैं जिनमें कबीर ने श्री राम को आराध्य देव के रूप में स्मरण किया है। कबीर ही हैं संत रविदास, रसखान, मीरा आदि अनेक दलित संत हिन्दू धर्म के आराध्य देवों और वेद आदि में पूर्ण आस्था रखते थे। उनका विरोध धर्म के नाम पर अन्धविश्वास तक सीमित था क्योंकि उनका उद्देश्य समाज सुधार था। आज के अम्बेडकरवादी इतने बड़े पाखंडी है कि इन संतों ने जो हिन्दू समाज में उस काल में व्याप्त अन्धविश्वास पर अपने तर्क दिए थे। उन्हें तो प्रचारित करता हैं। मगर जो इस्लाम का विरोध और इस्लामिक आक्रमणकारियों के अत्याचारों की भर्त्सना की थी। उसका नाम तक नहीं लेता।

कबीर के राम कोई काल्पनिक पुरुष नहीं अपितु मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम है।

अंत में स्वामी दयानंद के सिद्धांत- सत्य को स्वीकार करने और असत्य के त्याग के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए को जीवन में अपनाएं।

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