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अरसे बाद एक अच्छा बिल

अक्सर जब भी शादी में कम खर्चे और बिना किसी बड़े तामझाम के बात होती है तो आर्य समाज का नाम जरुर आता है। कारण जितना खर्चा आमतौर पर घरों में किटी पार्टी या जन्मदिवस जैसे छोटे-मोटे आयोजनों पर होता है उतने में आर्य समाज मंदिर में वैदिक रीति अनुसार वैवाहिक जोड़े शादी जैसे पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। सब जानते हैं कि आज शादी समारोह में एक पवित्र बंधन की रस्म से ज्यादा अन्य शान शौकत का ज्यादा दिखावा हो रहा है। हवन मंत्रोच्चारण और सात फेरों से ज्यादा नृत्य-गीत और शराब आदि में लोग मशगूल रहते हैं। इससे किसी को क्या दिक्कत हो रही है, यह कोई नहीं सोचता?

जल्द ही शादी-विवाह में फिजूलखर्ची रोकने, मेहमानों की संख्या सीमित करने और समारोह के दौरान परोसे जाने वाले व्यंजनों को सीमित करने के मकसद वाला एक निजी विधेयक लोकसभा में पेश किया जाएगा। लोकसभा के आगामी सत्र में विवाह ;अनिवार्य पंजीकरण और फिजूलखर्च रोकथामद्ध विधेयक, 2016 एक निजी विधेयक के रूप में पेश किया जाएगा। लोकसभा में कांग्रेस सांसद रंजीता रंजन यह निजी विधेयक पेश करेंगी, जिसमें कहा गया है कि अगर कोई परिवार विवाह के दौरान 5 लाख रुपये से अधिक राशि खर्च करता है, तब उसे गरीब परिवार की लड़कियों के विवाह में इसकी 10 प्रतिशत राशि का योगदान करना होगा।

इस विधेयक का मकसद विवाह में फिजूलखर्ची रोकना और सादगी को प्रोत्साहन देना है। शादी दो लोगों का पवित्र बंधन होता है और ऐसे में सादगी को महत्व दिया जाना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से इन दिनों शादी विवाह में दिखावा और फिजूलखर्ची बढ़ गई है। जिस कारण शादी एक बंधन कम और एक प्रतियोगिता जैसा नजर आने लगा है। हालांकि समाज का एक बड़ा हिस्सा चाहता है कि शादियों का खर्च उनकी हैसियत के अंदर रहे। वे शादियों के खर्च को सामाजिक तौर पर शान दिखाने की प्रतियोगिता से अलग रखना चाहते हैं। शायद यह बिल यही दर्शाता है कि हमारी शादी जैसी परम्पराएं तो मजबूत रहे बस शादियों के खर्च को सीमाओं में बांधने की कोशिश हो।

अक्सर देखने में आता है कि वैवाहिक समारोह में जहाँ डीजे, कानफोडू संगीत या अन्य क्रियाकलापों में कोई समय अवधि निश्चित नहीं होती कई बार तो यह शोर-शराबा पूरी रात चलता रहता है वहीं अक्सर लोग इस बात की चिंता व्यक्त करते दिख जाते हैं कि पंडित ऐसा हो जो यह रस्म कम से कम समय में पूरी कर दे। जबकि विवाह का असली मकसद मंत्रोचारण के साथ दो आत्माओं को एक पवित्र बंधन में पिरोने का कार्य होता है मसलन सिर्फ फेरों में ही जल्दबाजी क्यों?

हमारे मन में अक्सर यह सवाल आता है कि आखिर हमारे देश में खास से लेकर आम घर-परिवारों में शादियों या दूसरे समारोहों में इतने पैसे की बर्बादी क्यों होती है? आप इसका आंतरिक अध्ययन करके देखें तो पाएंगे कि भारत के हर समाज में अपनी क्षमता से अधिक पैसे शादी पर खर्च करने की मनोप्रवृत्ति काम करती है। इसके कई कारण होते हैं। अपने दैनिक जीवन में सीमित संसाधनों से अपना काम चलाने वाले व्यक्ति के लिए शादी सिर्फ एक सामाजिक समारोह न होकर यह दिखाने का अवसर बनकर रह गया कि उसने पिछले 25-30 सालों में क्या किया? आर्थिक सीढ़ियों पर कितनी पायदान इस बीच वह चढ़ चुका है यह दिखाने के लिए बेहद खर्चीली शादी एवं भव्य मकान दिखाना शेष रह गया। हमेशा इस तर्क की चोट पर भी लोग खर्च करते दिख जाते हैं कि शादी ऐसी हो जो लोग सालों तक याद रखे या फिर जिसका खाया है उसका उधार चुकाना है। हालाँकि पंडाल से बाहर आने पर किसी को याद नहीं रहता कि शादी कितनी महंगी और उसमे कितनी भव्यता थी।

पिछले दिनों देश में दो शादियों ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। एक तो अमीर उद्योगपति और पूर्व मंत्री जी. जनार्दन रेड्डी की बेटी ब्रह्माणी की शादी में 500 करोड़ रुपए खर्च और दूसरा सूरत में एक शादी में दूल्हा-दुल्हन के परिजनों ने बारात में आए मेहमानों को केवल एक कप चाय पिलाकर विदाई दी। इस शादी पर केवल 500 रुपये का खर्च आया। यदि इस तरह का कम खर्चे का चलन समाज में बढ़ जाये तो कन्या भूर्ण हत्या से लेकर दहेज तक एक साथ कई विसंगतियों पर लगाम लग जाएगी।

हम विवाह समारोह के खिलाफ नहीं हैं पर इसके खर्च में दिखावे का समर्थन नहीं करते जिनके पास अकूत धन है, उनके लिए कोई परेशानी नहीं होती। लेकिन इसी तरह के दिखावे का प्रदर्शन कम पैसे वालों के भीतर भी एक स्वाभाविक भूख पैदा करता है। इसके बाद होता यही है कि आमतौर पर कम आमदनी वाले लोग भी शादी या पारिवारिक समारोहों में कर्ज लेकर सामाजिक प्रतिष्ठा एवं बच्चों की खुषी के नाम पर खर्च करते हैं। कई बार इस तरह के प्रदर्शन की चाह में लोग कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। यह कहां की समझदारी है? कोई व्यक्ति जिन्दगी के किसी क्षेत्र में सफल होकर ज्यादा धन कमाए, इसमें किसी को क्या एतराज होगा! लेकिन विवाह पंडाल के बाहर वधु पक्ष की तरफ से खड़ी की गयी चमचमाती गाड़ी दिखावे की मानसिकता के सिवा अलावा कुछ नहीं। इसी कारण आज उपभोक्तावाद की चकाचौंध में किसी भी रास्ते विलासिता की चीजें हासिल करने की ललक ने युवकों को लालची बना दिया है। अफसोस कि इस नए दौर के नौजवान भी दहेज लेने-देने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। अब इस प्रस्ताव के आने से हो सकता है दिखावे के इस तरह के आयोजनों पर कुछ लगाम लगे! संसद को चाहिए इस तरह के विधेयक को ध्वनिमत से पारित करें क्योंकि विवाह बेहद सादगी गरिमापूर्ण कर्त्तव्य की एक डगर बने न कि किसी शोर शराबा और फूहड़ता से भरा आयोजन।

राजीव चौधरी

 

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