हम ईश्वर को मानते हैं और हमें आस्तिक कहा जाता है। संसार के अधिकांश मत व सम्प्रदाय, सनातन धर्मी, जरदुश्त व पारसी, ईसाई, इस्लाम आदि ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं। ईश्वर के सम्बन्ध में सभी मतों के बहुत से विचार एवं मान्यतायें परस्पर भिन्न व प्रतिकूल भी हैं। यह तो तर्क व प्रमाणों से सिद्ध है कि समस्त ब्रह्माण्ड में
ईश्वर की केवल एक ही सत्ता है जिसने इसे बनाया है। सभी मत मतान्तरों ने उस ईश्वर को भिन्न-भिन्न नाम दे दिये। अपनी-अपनी ज्ञान व क्षमता के अनुसार उसके प्रवर्तकों ने उस सत्ता अर्थात् ईश्वर का स्वरूप भी निर्धारित किया है, परन्तु क्या वह ईश्वर वैसा ही है जैसा उन्होंने निर्धारित या घोषित किया है? ऐसा सम्भव ही नहीं है कि उनके द्वारा निर्धारित सभी बातें, विचार या मान्यतायें जो परस्पर विरूद्ध हैं, सत्य ही हों। अत: ईश्वर एक होने से उसका स्वरूप भी एक समान व अविरूद्ध ही होना चाहिए। यदि उनमें अन्तर है तो यह स्पष्ट है कि उनकी परस्पर विरोधी सभी बातें गलत व असत्य हैं या उनमें से केवल एक ही सत्य है। उस सत्य व ईश्वर के यथार्थ स्वरूप व सत्य गुणों को सभी को जानना व मानना चाहिये और अपनी उस, अनुसंधान, विचार, चिन्तन, ऊहापोह, स्वाध्याय, अध्ययन, वार्तालाप, तर्क-वितर्क से सिद्ध को मानना व मनवाना चाहिये व उस सत्य की विपरीत असत्य मान्यताओं का त्याग करना, छोड़ना व छुड़वाना चाहिये। यही बुद्धि का उपयोग एवं मनुष्यता है। असत्य बातों को मानते रहना और उसमें सुधार न करना मनुष्यता नहीं है। मनुष्य की कहते ही उसे हैं कि जो मननशील होकर स्वात्मवत्, अर्थात् अपने समान, अन्यों के सुख-दु:ख व हानि लाभ को समझे वा माने। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा जो निर्बल हैं, भले ही वह ज्ञानहीन व बलहीन ही क्यों न हो, उनसे डरता रहे और उनकी रक्षा, मान, सेवा व सहायता करे। इतना ही नहीं अपितु अपनी पूर्ण सामर्थ्य से अन्यायकारियों के बल की हानि व न्यायकारियों के बल की वृद्धि करें। इस कार्य में उस धर्म सेवी मनुष्य को कितना ही दारूण दु:ख क्यों न प्राप्त हो, प्राण भी भले ही चले जाये, परन्तु इस मानवता रूप धर्म से पृथक वह व अन्य कभी न होवें। यद्यपि वेदों के आधार पर महर्षि दयानन्द द्वारा की गई यह एक आदर्श मनुष्य की परिभाषा है परन्तु इस पर खरा उतरने वाला संसार में शायद ही कहीं कोई हो।
मनुष्य को मननशील होना चाहिए। ईश्वर को भी विचार का विषय बनाना चाहिए। मुख्यत: इन प्रश्नों पर विचार करना चाहिए कि क्या ईश्वर सत्य है, उसकी सत्ता है या नहीं? वह शरीरधारी है अथवा शरीररहित व आकाररहित है, ज्ञानी है अथवा अज्ञानी, अल्पशक्तिमान है या सर्वशक्तिमान, उसकी शक्ति की सीमायें या मर्यादायें क्या हैं? वह सर्वव्यापक व निराकार है या एकदेशी आदि आदि। इन प्रश्नों पर जब वह चिन्तन करेगा तो उसे ज्ञात होग कि ईश्वर सत्य, चित्त, आनन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान, निराकार, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तरयामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र एवं सृष्टिकर्ता है और वही एकमात्र उपासनीय देव , देवताया परमात्मा है। ईश्वर के अतिरिक्त स्वयं के बारे में भी चिन्तन करना चाहिए व प्रयास करना चाहिए कि हमारा स्वरूप कैसा है और प्रकृति व सृष्टि के गुण क्या है व उसके उपयोग क्या हैं? हम समझते हैं कि जब इन प्रश्नों पर विचार किया जायेगा तो जो तर्क व प्रमाणों से सिद्ध उत्तर होगा वह संसार के सभी लोगों का एक जैसा ही होगा। उसमें भिन्नता किंचित भी न होगी और यदि ऐसा हो जाये तो फिर नाना प्रकार के मत-मतान्तर सप्ताह होकर एक मनुष्य धर्म या मानव धर्म बचेगा जिससे मानवता का कल्याण होगा। ईश्वर व जीवात्मा का स्वरूप निर्धारित हो जाने पर मनुष्य का धर्म निर्धारित करना सरल व सुगम हो जाता है। यही सत्य के मानने वाले लोगो का अन्तिम लक्ष्य व उद्देश्य है। ईश्वर द्वारा वेद में मनुष्यों को ऐसा ही करने की आज्ञा है। सृष्टि के आरम्भ से महर्षि दयानन्द के समय तक और उनके बाद भी वेद मनीषियों द्वारा ऐसे प्रयत्न जारी हैं। बीच में महाभारत युद्ध के कारण इसमें व्यवधान अवश्य आया था जिसे महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व ज्ञान व क्षमता से दूर किया। आज हमें ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि के विषय में सत्य ज्ञान उपलब्ध है जो केवल किसी संस्था विशेष या भारत देश मात्र के लिए नहीं अपितु सारी दुनिया व संसार के प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान रूप से जानने व मानने योग्य है।
हमने पूर्व लिखा है कि संसार के अधिकांश मत-मतान्तर की मान्यताओं के अनुसार उनके अनुयायी ईश्वर व दैवीय शक्ति की सत्ता को मानते हैं जिससे यह संसार सहित हम भी उत्पन्न हुए हैं और उसी सत्ता से यह संसार चल रहा है। यह भी सब मानते हैं कि उस शक्ति के प्रति हमें अपने कर्त्तव्य पूरे करने हैं जो उसकी भक्ति व उपासना के द्वारा ही हो सकता है। उपासना से ही स्तुति व प्रार्थना भी जुड़ी हुई है। यदि स्तुति व प्रार्थना नहीं होगी तो उपासना हो ही नही सकती। सभी मतों में किसी न किसी प्रकार से स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है परन्तु सबके करने की विधियां अलग-अलग हैं। इन अलग विधियों के कारण ही विवाद होता है। प्राय: सभी व कुछ की यह धारणायें हैं कि इतर अन्य सभी मतावलम्बी उनकी पद्धति से उपासना व धार्मिक मान्यताओं का आचरण व पालन करें इसलिए वह धर्मान्तरण आदि कार्य करते हैं। अत: ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना में हमें ईश्वर को क्या-क्या किस प्रकार से कहना है व उसकी उपासना किस विधि से अच्छी व सर्वांगपूर्ण हो सकती है, इसके लिए यदि सभी मतों के लोग परस्पर प्रेम व सद्भाव से बैठकर विचार करें तो इसका हल निकाला जा सकता है। इसके लिए सभी मतावलम्बियों में सत्य को स्वीकार करने का जज्बा होना चाहिये जो कि सम्प्रति किसी में दिखता नहीं है। जो-जो मतावलम्बीजन अपना मत, मान्यतायें व उपासना पद्धति दूसरों से मनवाना चाहिते हैं वह वैचारिक आधार पर स्वमत को सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट व लक्ष्य प्राप्ति में समर्थ सिद्ध कर नही पाते, अत: उन्हें इसके लिए अन्य मतावलम्बियों पर बल प्रयोग के साथ प्रलोभन देते हैं या फिर छद्म रूप से प्रचार कर भोले भाले लोगों को फंसाते हैं। इतिहास में हमने इसका साक्षात् दर्शन किया है और आजकल भी लुक-छिप कर नाना प्रकार से यह कार्य किया जा रहा है।
ईश्वर का स्वरूप कैसा है इसका उल्लेख पूर्व की पंक्तियों में किया जा चुका है। इस पर सभी मतों के लोग एक साथ बैठ कर विस्तार से चिन्तन कर ईश्वर का सत्य स्वरूप निर्धारित कर सकते हैं। इसी प्रकार से आत्मा का स्वरूप भी निर्धारित किया जा सकता है। हमने चिन्तन व स्वाध्याय द्वारा यह जाना है कि मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, सर्प आदि योनियों में जीवात्मा का स्वरूप एक ही है अर्थात् सबका जीवात्मा समान है। यह जीवात्मा सत्य, चेतन, आनन्द से रहित है तथा सुख व आनन्द के लिए अग्रसर हैं। सभी मनुष्यों, पशु, पक्षी आदि की सब क्रियायें व अच्छे बुर कर्म सुख व आनन्द की प्राप्ति के लिए ही होते हैं। यह जीवात्मा एकदेशी, आकार रहित, अत्यन्त सूक्ष्म, मनुष्य योनि में कर्मों का कर्ता व कर्मो के फलों तथा सुख व दुखों का भोक्ता है। इस जन्म में इसे पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों का फल भी भोगना होता है। इस कारण कई लोग कर्म फल सिद्धान्त को समझ नहीं पाते। हमने जो पूर्व जन्मों में कर्म किए हैं परन्तु फल अभी नहीं भोगा है उनके फलों को वर्तमान व भावी जीवन में अवश्यमेव भोगना होगा। इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि बुरे कर्म व पाप करने वाला व्यक्ति सुखी हो सकता है और कोई अच्छे व पुण्य कर्मों को करने वाला दु:खी हो सकता है, परन्तु बुरे व्यक्ति के सुख व अच्छे व्यक्ति के दु:ख का एक प्रमुख कारण पूर्व जन्मों के जमा या अवशिष्ट कर्म हुआ करते हैं। जीवात्मा को ईश्वर के द्वारा उसके कर्म, पाप-पुण्य व प्रारब्ध के अनुसार अगले व पुनर्जन्म में मनुष्य व पशु आदि योनियां, आयु व सुख-दुख मिलते हैं। प्रत्येक जन्मधारी की मृत्यु अवश्य होती है और मृत्यु के बाद जन्म अर्थात् पुनर्जन्म होना भी अवश्यम्भावी है। मनुष्य का मनुष्य या पशु पक्षी आदि के रूप में जो जन्म होता है वह कर्मों के बन्धन के कारण होता है। यदि हम सभी कर्मो के फलों को भोग लें, वर्तमान व आगे कोई बुरा कर्म करें ही न, सभी अच्छे-अच्छे कर्म करें और उपासना द्वारा ईश्वर को जानकर उसका साक्षात्कार कर लें तो जन्म-मरण से छुट्टी मिल जाती है और जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार कि जेल में बन्द व्यक्ति की सजा पूरी होने और उस बीच कोई नया अपराध न करने पर जेल से मुक्ति हो जाता है। इस प्रकार आत्मा के बारे में जाना जा सकता है और इसी प्रकार सृष्टि व प्रकृति के बारें में शास्त्रों के अध्ययन, चिन्तन, मनन व प्रयोगों द्वारा परमाणु व उससे पूर्व की अवस्था तक भी पहुंचा जा सकता है। स्वाध्याय, विचार व चिन्तन से सृष्टि से पूर्व की अवस्था प्रलय में प्रकृति किस रूप में थी, उसका भी पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार से वेद, वैदिक साहित्य, उपनिषद्, दर्शन व ऋषि-मुनियों, विद्वानों, ज्ञानियों आदि के सत्य ज्ञानयुक्त ग्रन्थों को पढ़कर व जीवित विद्वान् मनीषियों से शंका समाधान कर भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यह सब कुछ पूरा हो जाने पर ईश्वर की उपासना को करके जीवन के उद्देश्य के अनुरूप उचित व करणीय कर्मों व साधना को करते हुए हम बन्धनों से छूटते हैं।
अब सच्ची ईश्वर उपासना की विधि पर विचार करते है। हम समझते है। पौराणिकों के मूर्ति पूजा आदि कार्य, ईसाईयों द्वारा चर्च में प्रार्थना आदि अनुष्ठान एवं मुसलमानों द्वारा नमाज अता करना आदि स्तुति, प्रार्थना व उपासना के ही अन्तर्गत आते है। ईश्वर, गाड व खुदा सर्वव्यापक व सर्वातिसूक्ष्म होने से आत्मा व संसार के भीतर विद्यमान है। अत: उपासना अर्थात् उसकी निकटता के लिए कहीं जाना नहीं है। ईश्वर की उपासना तो उसकी हर पल व हर क्षण हमें प्राप्त है। हमें मात्र अपना कर्त्तव्य पूरा करना है और सावधान होकर शुद्ध मन से उसके गुणों व उपकारों का विचार, चिन्तन व वर्णन, उससे प्रार्थना अर्थात् वह ध्यान व उपासना में हमारी सहायता करे और हम उसका साक्षात्कार कर सकें, आदि बौद्धिक कर्म करने हैं। हम विज्ञान के नियम के अनुसार जानते हैं कि लौह की तार आदि सुचालक good Conductor में ही विद्युत का प्रवाह होता है, सुखी लकड़ी आदि कुचालक Bad Conductor में नहीं। इसी प्रकार से हमें स्वयं को ईश्वर का सुचालक बनाना होगा। इसके लिए हमें अपने गुण, कर्म व स्वभाव को ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभावों के अनुरूप बनाना होगा। जब यह हो जायेगा और स्थिरासन में बैठकर भली प्रकार से हम उपासना अर्थात् इसका ध्यान कर रहे होगें और स्तुति व प्रार्थना चल रही होगी, उसमें डूब जायेंगे और केवल ईश्वर ही हमारे ध्यान में होगा, संसार व उसकी वस्तुओं व व्यवहारों से हम पूर्णत: रूके हुए होगें व उनका सम्बन्ध पूर्णत: अवरूद्ध होगा तो देर या सबरे ऐसी स्थिति आयेगी कि हमें ईश्वर की साक्षात् अनुभूति होगी और उसका साक्षात्कार होगा। इस साक्षात्कार की स्थिति में हृदय की सभी गांठे खुल जाती है और साधक व उपासक नि:शंक हो जाता है। जब तक नि:शंक नहीं हुआ साधना जारी रखनी है। नि:शंक हो जाने के बाद भी उस स्थिति को जारी रखने के लिए साधना व उपासना करना आवश्यक होता है। यह स्थिति प्राप्त हो जाने पर आत्मा के दु:ख व कष्टों का निवारण हो जाता है और मनुष्य सुख-शान्ति-आनन्द की स्थिति को प्राप्त कर लेता है। इसके बाद संसार में कुछ भी प्राप्त करने के लिए नहीं रहता। यहीं वह चीज व स्थिति है जो प्राप्तव्य है और जिसके लिए हमें मनुष्य जन्म परमात्मा के द्वारा मिला हुआ है। इससे यह ज्ञात हुआ कि उपासना के लिए यम, नियमों का पालन, आसनों की सफलता, प्राणायाम का अभ्यास जो मन को स्थिर करने के लिए किया जाता है, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का अभ्यास, पालन व आचरण आवश्यक है। यह प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है तथा इसमें किसी मत व सम्प्रदाय क कारण कोई भेद या अन्तर नहीं आता। अर्थात् एक ही ईश्वर संसार के सभी मनुष्यों के लिए उपासनीय है और
उसकी विधि भी हमारी निजी दृष्टि में एक ही हो सकती है, अलग विधि से करने पर परिणाम अलग होनें, अनेक विधियों से उपासना करने पर एक परिणाम अर्थात् ईश्वर की उपलब्धि या प्राप्ति नहीं हो सकता। ईश्वर की प्राप्ति उपासना, ध्यान व समाधि आदि से होती है। भोजन का उपासना से गहरा सम्बन्ध है। उपासक को शुद्ध शाकाहारी भोजन करने से लाभ मिलता है और सामिष भोजन करने से उपासना में सफलता नहीं मिलती। उपासक के लिए मांसाहार, मदिरापान, ध्रूमपान व अण्डों आदि का सेवन व ब्रह्मचर्य पालन में अनियमितता हानिकारक होती है। जो लोग या मतों के अनुयायी इन अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करते हैं वह उपासना से अधिक लाभ नहीं उठा सकते, न उन्हें लक्ष्य ही प्राप्त हो सकता है। इनका सेवन पुण्य कर्म न होकर पाप कर्म की श्रेणी में आता है। इससे स्वयं को भी हानि, स्वभाव का हिंसक होना व मलिन बुद्धिका होना, होता है और पशुओं आदि का जीवन भी संकट में पड़ता है। पशुओं की उत्पत्ति ईश्वर ने भिन्न प्रयोजनों के लिए की है। उस प्रयोजन को पूरा न होने देना व उसमें बाधा डालने से लोग ईश्वरीय दण्ड के भागी बनते हैं। अण्डों के सेवन से भी ऐसा ही होता है। ध्रूमपान से हमारे शरीर के अन्दर फेफड़ों आदि को हानि पहुंचती है। श्वास की सामान्य प्रक्रिया बाधित होती है, उसका प्रयोजन सिद्ध नहीं होता और वायुमण्डल के प्रदुषण से अन्य व्यक्तियों के श्वांस में बाधा आती है, कैंसर आदि रोग भी होते हैं। प्राण वायु के प्रदुषण का निमित्त ध्रूमपान वाला व्यक्ति होने से वह ईश्वरीय दण्ड का भागी होता है। अत: उपासक, ध्यानी व ईश्वर भक्त को कदापि इनका सेवन नहीं करना चाहिए। इसके स्थान पर भक्ष्य पदार्थों का ही सेवन करना चाहियें जिसका उल्लेख महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण में सविस्तार किया है। यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि आज तक किसी मांसाहारी व सामिष भोजी को ईश्वर के दर्शन व साक्षात्कार हुआ हो? हां यह तो बताया जा सकता है कि शुद्ध शाकाहारी भोजन करने वालों को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है। महर्षि दयानन्द का उदाहरण हमारे समाने हैं। महर्षि पतंजलि जिन्होंने योग दर्शन ग्रन्थ का प्रणयन किया है वह भी ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त ऋषि व योगी थे, ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
हम जब सभी मत-मतान्तरों पर दृष्टि डालते हैं तो ईश्वर के मानने वाले व उपासकों की कई श्रेणियां दिखाई देती हैं। एक ऐसी है जो परम्परा के अनुसार ईश्वर को मानते हैं और अपने मत के विधान के अनुसार पूजा उपासना करते हैं। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं हैं कि जो कृत्य वह करते हैं वह उचित है या नहीं। दूसरें ऐसे होते हैं जो अपनी मत की पुस्तक का कुछ कम या अधिक अध्ययन करते हैं। परन्तु उनमें भी ऐसे ही अधिक हैं जो अपनी विवेक बुद्धि से यह जानने का प्रयत्न नहीं करते कि उन्होंने जो पढ़ा है या ग्रन्थों में लिखा वह सत्य है अथवा नहीं। वह जानकारी के लिए पढ़ते है, सत्यासत्य के विवेक के लिए नहीं। ऐसे लोग भी हमारी दृष्टि में ईश्वर को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। ऐसे लोग पौराणिक मत सहित सभी मत, पंथ व सम्प्रदायों में विद्यमान हैं। तीसरी श्रेणी में वह लोग आते हैं जो स्वाध्याय करते हैं, अपने मत के साथ दूसरे मत के ग्रन्थ का भी यत्किंचित अध्ययन करते हैं और अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग कर यह देखते हैं कि उनका पढ़ा या ग्रन्थ में लिखा सत्य है भी अथवा नहीं। शंका होने पर वह ऊहापोह, विचार, चिन्तन, अन्य ग्रन्थों या विद्वानों की सहायता प्राप्त कर निर्णय करते हैं। ऐसे लोगों में सबसे अधिक लोग वैदिक धर्मी वा आर्य समाज के अनुयायी होते हैं। हमें लगता है कि आर्य समाज की सन्ध्या-उपासना की विधि वेद व शास्त्रों के अनुसार है। इसमें मनीषियों ने यह ध्यान रखा है। कि यह सरल व लक्ष्य-परक हो व इसके करने से अल्प समय में सफलता प्राप्त हो सके। इसमे त्रुटियों को खोज कर हटा दिया गया है। सन्ध्या-उपासना की विधि में कोई अनावश्यक कृत्य नहीं है और कोई आवश्यक कृत्य को छोड़ा नहीं गया है। अत: इस विधि को हम सन्ध्या-उपासना की सम्पूर्ण विधि कह सकते हैं। यह विधि महर्षि दयानन्द ने अपनी बनाई ‘’पंच-महायज्ञ-विधि’’ की पुस्तक में दी है जिसे देखकर अभ्यास किया जा सकता है और उसे जानकर अन्य मतों की पूजा पद्धतियों से मिलान करके सही व गलत का चुनाव किया जा सकता है। हम समझते हैं कि धर्म के प्रबुद्ध लोगों को पहली व दूसरी श्रेणी के भक्तों व उपासकों को तीसरी श्रेणी में लाने का प्रयास करना चाहिये जिससे सभी का कल्याण हो। हमारा अनुभव है कि बिना वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन के सही प्रकार से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना नहीं की जा सकती। सभी अध्येता परीक्षण कर स्वतन्त्र परिणाम निकाल सकते हैं। हमारा यह भी मानना है कि सारे जीवन ईश्वर को मानने व उसकी पूजा, उपासना, भक्ति करने के बाद यदि हम पूर्णत: सफल व संतुष्ट नहीं हैं, ईश्वर की अनुभूति व साक्षात्कार हमें नहीं हुआ है और स्वमत व विपक्षियों के ईश्वर के स्वरूप, स्तुति, प्रार्थना, उपासना से सम्बन्धित शंकाओं या तर्कों का सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे सकते हैं तो हमारी उपासना व ज्ञान में कहीं न कही कोई कमी अवश्य है। हम आशा करते है कि सभी मतों के अनुयायी इस पर मनन करेगें।
जीवन का उद्देश्य जनम व मृत्यु के बन्धन से मुक्त होना है जिसे ‘मोक्ष’ कहते है। यह मोक्ष सद्कर्मों यथा ईश्वरोपासना, सत्कर्तव्यों का पालन, आचरण, अग्निहोत्र करने, माता-पिता-आचार्यों-अतिथियों व ऋषि-मुनि-विद्वान् संन्यासियों की सेवा व सतकार, दान, परोपकार, सेवा, अहंकार शून्य स्वभाव, दया व करूणा से पूर्ण जीवन व्यतीत करने आदि कर्मों को करने से प्राप्त होता है। आईये, हम वेद व वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय व तदनुसार तर्क व प्रमाण युक्त ईश्वरोपासना करने का व्रत लें जिससे हम सभी जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।