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ईश्वर के नाम पर भिन्नता और विवाद क्यों?

स्वामी स्वरूपानन्दजी का षिरडी के सांई बाबा को लेकर एक बयान इन दिनों चर्चा में है। उन्होंने षिरडी के   सांई बाबा को ईष्वर न मानने और उनका मन्दिर न बनाने का कहा।

 बात तो वेदोक्त सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार उचित है। किन्तु यह बात केवल सांई बाबा के लिए ही नहीं है, अनेक ऐसे नाम हैं जिन पर यह प्रष्न घटित होता है। वास्तव में इस बात को महर्षि दयानन्द  सरस्वती ने लगभग डेढ़ शतक पूर्व शास्त्रोक्त प्रमाण देकर तमाम विद्वानों को चुनौति देकर सिद्ध किया था। किन्तु उन्हें उस समय समाज का और तथाकथित ईष्वर भक्तों का बहुत बड़ा विरोध सहना पड़ा और उस विरोध की परिणिती बलिदान देकर ही हुई। बात तो सही है .किन्तु जनसाधारण वर्तमान में जिस विचारधारा के प्रभाव में जीवन जी रहा है उसमें ज्ञानमय व तर्कमय विचार नहीं है इसलिए वह सत्य भी स्वीकार्य नहीं है। सत्य कड़वा होता है किन्तु परिणाम शुभ होता है, गीता में कहा गया ‘‘यत्तदग्रे विषमिव परिणामे अमृतोपमम’’ अर्थात सत्य कभी-कभी पहले कड़वा होता है किन्तु उसका परिणाम अमृत के समान लाभकारी होता है। जब कोई विचार अथवा शारीरिक व्याधि प्रारंभ हो उसी समय उस पर नियन्त्रण कर लेने से विषेष समस्या नहीं होती। किन्तु जब वो बहुत बढ़ जाये तो उसे नियन्त्रित करना एक बहुत कठिन समस्या हो जाती है। कभी-कभी असत्य और अव्यवहारिक बातें भी व्यवहार में आ जाती है इस कारण हमें वे अधिक नहीं सताती हैं, जैसे वर्तमान समय में रिष्वत का आदान-प्रदान सामान्य व्यवहार बन गया है जबकि यह एक जघन्य सामाजिक अपराध है।

               वास्तविकता तो यही है कि कोई भी शरीरधारी ईष्वर तुल्य या ईष्वर नहीं हो सकता। अज्ञान संषय को जन्म देता है और संषय आत्मा का हनन करता है, योगीराज श्रीकृष्ण जी ने गीता में यही कहा ‘‘संषयात्मा विनष्यति।’’ आत्मा पर अज्ञान छा जाता है तो सत्य किसी भी निर्णय से दूर हो जाता है, वहां उचित अनुचित और लोक मान्यता रूढ़ी बन जाती है उसे ही फिर सत्य माना जाता है।

               संषय के कारण ही इस प्रकार के अनेक विवादों का जन्म होता रहा। इस प्रष्नका निवारण बौद्धिक, ज्ञानमय, तार्किक तथ्यों पर विचार करके किया जाना चाहिए। ईष्वर का संबंध धर्म में ही निहित है या एक-दूसरे के दोनों पूरक हैं। विष्वविख्यात महापण्डित आचार्य मनु ने लिखा – ‘‘यस्तर्केण अनुसंधत्ते स धर्मो वेद नेतरः।’’ अर्थात् धर्म के संबंध में ज्ञान की कसौटी पर तर्क करके निर्णय लेना चाहिए।

               ईष्वर और मनुष्य के संबंधों में फैले इस प्रकार के भ्रम का निवारण इन दो तथ्यों पर विचार करके किया जा सकता है।

               क्या आत्मा परमात्मा का अंष है? या, क्या आत्मा परमात्मा हो सकती है?

               सामान्यतः उपरोक्त वर्णित दोनो बाते ईष्वर और जीवात्मा के सम्बन्ध में सुनी जाती है। इनके द्वारा यह माना जा रहा है कि आत्मा और परमात्मा एक ही है। जो आत्मा है वो परमात्मा का ही स्वरूप है।

               बोलचाल की भाषा में यह भी कहा जाता है कि आत्मा सो परमात्मा और आत्मा परमात्मा का अंष है।

               इन शब्दों पर कभी चिन्तन नहीं किया कि ये कितने सही हैं, कितने प्रामाणिक हैं? वास्तव में यह विचार नितान्त अनुचित और यथार्तता से, वैदिक सिद्धान्तों के विपरीत है। इन पर विष्वास करने वालों ने ही ईष्वर के सत्य स्वरूप को विकृत कर उसका अपमान किया है। इसी विचारधारा के कारण परमात्मा की पहचान करने में संषय, भिन्नता व दोष उत्पन्न हो गए। इसी मान्यता के कारण यह अल्पज्ञ जीव भी परमात्मा की श्रेणी में पूजा जा रहा है। इसी कारण ईष्वर के नाम पर आज दूरियां बढ़ रही हैं।

               वास्तव में जीवात्मा न तो कभी परमात्मा बन सकती है और न ही आत्मा परमात्मा का अंष हैै।

               दो वस्तुओं की समानता का मुख्य आधार दोनों के गुणों का तुलनात्मक मूल्यांकन होता है। यदि दोनों के गुण समान हैं तो दोनों एक हो सकते हैं।

               जैसे जीवात्मा के 6 गुण बताए गए, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, ज्ञान। यह जितने भी जीवधारी हैं उन सबमें पाये जाते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि संसार के सभी प्राणियों में फिर वह मनुष्य हो, पशु-पक्षी, कीट, पतंगा ही क्यों न हो, सभी में जीवात्मा का वास होने से सभी प्राणी जीवधारी हैं व समान गुण वाले हैं।

               किन्तु परमात्मा के गुण अलग हैं, जीवात्मा के गुण अलग हैं। इसलिए दोनों एक नहीं हो सकते। जीव अल्पज्ञ हैं परमात्मा सर्वज्ञ है, परमात्मा संसार का रचयिता है, जीवात्मा भोक्ता है, जीवात्मा कर्म के फल भोगता है, परमात्मा भोगों से मुक्त है, जीवात्मा को बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है, परमात्मा अषरीरी है इसलिए उसे शरीर धारण करने की आवष्यकता नहीं। जीवात्मा में क्लेष, कर्म सुख-दुःख गुण हैं। भोग, शरीर धारण करके पाया जा सकता है, परमात्मा इनसे मुक्त है, परमात्मा सर्वषक्तिमान है, जीवात्मा की शक्ति अत्यन्त सीमित है। किन्तु योग दर्षन में स्पष्ट रूप से कहा – क्लेष कर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरूष विषेष ईष्वरः। अर्थात् जो कर्म, क्लेष और भोग से मुक्त है, वही परमेष्वर है। ऐसे अनेक गुण परमात्मा के हैं जो जीवात्मा में नहीं पाए जाते। दोनों के गुणों में बहुत बड़ी असमानता है।

               आत्मा और परमात्मा दोनों अलग-अलग सत्ताएं हैं, दोनोंकभी एक नहीं हो सकते। इसलिए जन्म लेने वाले मनुष्य को परमात्मा मानना या मानने का भ्रम पालना अज्ञानता का कारण है।

0             दूसरा विचार यह कि क्या आत्मा परमात्मा का अंष है?

               ऐसा मानना भी अज्ञानतापूर्ण व सामान्य ज्ञान से भी विचार करने पर अनुचित सिद्ध होता है।

               अनेक विषमताएं जीवात्मा और परमात्मा के मध्य हैं। जब किसी की तुलना किसी दूसरे से करके उसे पहली वस्तु का अंष बताया जाता है तो वहां पहली वस्तु और जिसे अंष बताया जा रहा है उसके गुणों में समानता होनी चाहिए। जब दोनों के गुण समान होगें तभी दूसरी वस्तु को पहली वस्तु का अंष माना जा सकता है।

               उदाहरण के लिए बड़ा पात्र दूध से भरा है उसमें से कुछ दूध किसी छोटे पात्र में निकाल लिया। तो इस छोटे पात्र में निकाला हुआ दूध बड़े पात्र का अंष कहा जा सकता है।

               उसी प्रकार एक बड़ा ढेला मिट्टी, पीतल का अथवा किसी धातु का है। उस बड़े ढेले में से कुछ-कुछ हिस्सा निकाल लिया। यह निकाला हुआ हिस्सा भी बड़े हिस्से का अंष होगा। इसका निर्णय इस प्रकार किया जा सकता है।

               ऊपर बड़े पात्र में रखे दूध को लेकर और छोटे पात्र के दूध को लेकर उसकी गुणवत्ता व प्रकृति की जांच कराने लेबोरेट्री में भेजें। उसी प्रकार मिट्टी के बड़े ढेले और उसमें से निकाले छोटे भाग को भी जांच करने के लिए लेब में भेजें। तो परीक्षण के बाद जो बड़े पात्र से और छोटे पात्र में भेजे गए दूध के नमूनों की एक समान रिपोर्ट आवेगी। उसी प्रकार बड़े ढ़ेलो में से उसके छोटे ढ़ेलों की जांच का परिणाम एक समान आवेगा।

               यह एक समान इसीलिए आवेगा क्योंकि बड़े व छोटे हिस्से का गुण, क्वालिटी समान ही है। इसलिए छोटे हिस्से को बड़े हिस्से का अंष कहा जा सकता है।

               अब विचार करें कि क्या परमात्मा और जीवात्मा के गुण हम समान है। यदि मनुष्य को परमात्मा का अंष माना जावे तो परमात्मा के ही सारे गुण उसमें आना चाहिये। मनुष्य स्वार्थी, लोभी, हिंसक, शोषक, मांसाहारी, भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी, चोर, लुटेरा, हत्यारा, पापी आदी भी बन जाता है तो क्या यह सब परमात्मा में भी है? यदि परमात्मा का अंष होता तो वह न्यायकारी, सदाचारी, पुण्यात्मा, परोपकारी ही होता दुर्गुणों से मुक्त होता तो संसार का प्रत्येक मनुष्य भी ऐसा ही होता।

जो वस्तु एक ही है उसे अनेक नहीं माना जा सकता, देष की राजधानी देहली है, उसकी कल्पना अनेक नहीं हो सकती, हिमालय पर्वत देष में उत्तर में स्थित है, उसकी कल्पना दक्षिण, पूर्व, पष्चिम में मानकर कई हिमालय नहीं हो सकते।

इसी प्रकार परमात्मा एक ही है, वह सबका पिता, पालक, रक्षक और सृष्टि का रचयिता है, वह न कभी जन्म लेता है और न कभी मरता है वह सदा से था और सदा रहेगा। इस जगत के निर्माण के पूर्व भी था, आज भी है और प्रलय हो जाने पर भी उसके अस्तित्व को कोई क्षति नहीं हो सकती, न उसमें कोई परिवर्तन हो सकता है।

सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार तीन सत्ताएं अजर, अमर और अविनाषी हैं, इन्हें ही सनातन कहा गया, ये हैं ईष्वर, जीव और प्रकृति। यहां ध्यान देने योग्य बात है प्रकृति और जीवात्मा का अस्तित्व ईष्वर से पृथक है। इसमें भेद है, यदि यह भेद नहीं होता तो तीनों को अलग-अलग नहीं बताया जाता। हममें अज्ञानता के कारण ईष्वर के सत्य स्वरूप की जानकारी न होने के कारण उसे उसके सत्य स्वरूप के स्थान पर काल्पनिक स्वरूप मान लिया और महापुरूषों को भी ईष्वर मानने लगे।

किसी भी व्यक्ति, स्थान या वस्तु की पहचान उसके गुणों के आधार पर होती है, नमक में खारापन, मिर्च में तीखा पन और शकर में मिठास उसका गुण है। इन गुणों के कारण ही उनका अस्तित्व है यदि नमक में खारापन, मिर्च में तीखापन और शकर में मिठास नहीं तो इन्हें नमक, मिर्च और शकर नहीं माना जा सकता। इनके छोटे से छोटे अंष में, कण में भी यही सब गुण पाये जायेगें।

इसलिए ईष्वर को या यदि हम किसी अन्य ईष्वर को माने, ईष्वर का अंष माने तो उसमें कम से कम यह गुण होना चाहिए, तभी वह ईष्वर माना जा सकता है।

ईष्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वषक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेष्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।

इस्लाम प्रमुख ग्रंथ कुरान तथा इसाई मत की धर्म पुस्तिका बाईबिल में भी ईष्वर की लगभग ऐसी ही व्याख्या की है।

ईष्वर अजन्मा व अविनाषी है, निराकार है, यह संसार के एक-दो नहीं अनेक महापुरूषों से माना है, इसके सैकड़ों शास्त्रोक्त प्रमाण है। नानकदेवजी ने भी जो जन्म लेता है और मर जाता है, उसे ईष्वर मानने से मना किया लिखा।

               एको सिमरो नानका, जो जल-थल रहा समाय।

               दूजा कीहि सिमिरिये, जो जन्मे ते मर जाए।।

इस प्रकार उस परमपिता, जगतनियन्ता ईष्वर के स्थान पर उसका स्थान किसी अन्य को यदि देते हैं तो यह उसका अपमान है। जैसे देष का राष्ट्रपति एक है किन्तु अनेक व्यक्तियों को राष्ट्रपति कहने लगे तो, इस पद की गरिमा भंग हो जावेगी और अपमान होगा।

इसलिए जन्म लेने वाले, मृत्यु को प्राप्त होने वाले, काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष और सांसारिक भोग करने वालों को ईष्वर या उनका अंष मानना उस परमात्मा के अस्तित्व को क्षति पहुंचाना है।

ओ3म् जय जगदीष हरे की आरती में रोज तो गाते हैं ‘‘तुम हो एक अगोचर, सबके प्राण पति’’

एक ईष्वर के संबंध में नानकजी पुनः कहते हैं – ‘‘एक्योंमकार कर्ता निर्भो अकाल मूरत’’

कठोपनिषद में भी कहा – ‘‘एको वषी सर्व भूतान्तरात्मा’’

और संसार के सर्वमान्य, सनातन ज्ञान वेद में भी कहा –

न द्वितीयो, न तृतीयष्चतुर्थो नाप्युच्यते।

न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते।

नाष्टमो न नवमो दषमो नाप्युच्यते।

तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव।

                                                            – अथर्व. 13/4/16-18, 20

               अर्थात वह एक ही 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10 नहीं हो सकता, वह तो एक ही है।

               इसीलिए सन्त कबीर को कहना पड़ा ‘‘जो मन लागो एक सो, तो निरवारा जाय’’

               एक से मन लगने पर ही उद्धार है, एक के स्थान पर अनेक से संबंध जोड़ने पर गहरी मित्रता व दृढ़ता संभव नहीं है।

               इसलिए वह परमात्मा सर्वोच्च सभी आत्माओं का स्वामी है, उस जैसा या उसका अंष किसी को मानने योग्य नहीं है। योगीराज कृष्ण के उस सन्देष को ध्यान में रखें जिसमें उन्होंने ईष्वर को एक, व एक नाम का स्मरण का उपदेष अर्जुन को दिया, और कहा –

‘‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन मामनु स्मरन।’’

               सत्य को ज्ञान की कसौटी पर परखकर स्वीकार कर लेना ही मनुष्यता का लक्षण है। जिस प्रकार संसार में बहुत से रिष्ते हमसे जुड़े होते हैं किसी भी मनुष्य के मामा, काका, ताऊ, गुरू, षिष्य व अनेक संबंधी हो सकते हैं किन्तु जनक पिता के रूप में किसी को याद किया जाएगा तो वह केवल एक ही हो सकता है। एक से अधिक नहीं। यदि किसी के पिता के नाम के स्थान पर अनेक नाम सामने आ जाये तो वह अषोभनीय और अव्यवहारिक होगा। ठीक उसी प्रकार जो हम सबका पालक है, रक्षक है, समस्त सृष्टि का जनक है, वह तो परमपिता एक ही हो सकता है जो सबका पिता है दूसरा नहीं।

               ईष्वर एक अद्वितिय सत्ता है, इसलिए संसार का कोई भी शरीरधारी ईष्वर या उसका अंष नहीं हो सकता। हाॅं वह ईष्वर की कृपा है, ईष्वर उसका स्वामी है, ईष्वर उसका आचार्य, राजा, न्यायाधीष, भाई, बन्धु, सखा के समान सहायक है। यही सन्देष हमारा सनातन धर्म और सनातनधर्मी ऋषियों ने हमें दिया।

               इस संषय के कारण ईष्वर के सही स्वरूप को न मानने के कारण ही हमने ईष्वर से दूरी बना ली है और जो हृदय ईष्वर में सदा विद्यमान है इसे हम बाहर मान रहे हैं, जो निराकार है उसे शरीरधारी बना रहे हैं। ईष्वर का सानिध्य उसके सत्य स्वरूप को जानकर साधनों से नहीं साधना से प्राप्त करें।

                                                                                                                           – प्रकाष आर्य, महू

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