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ऋषि दयानन्द का उद्देश्य सद्ज्ञान देकर आत्माओं को परमात्मा से मिलाना था

महाभारत के बाद ऋषि दयानन्द ने भारत ही नहीं अपितु विश्व के इतिहास में वह कार्य किया है जो संसार में अन्य किसी महापुरुष ने नहीं किया। अन्य महापुरुषों ने कौन सा कार्य नहीं किया जो ऋषि ने किया? इसका उत्तर है कि ऋषि दयानन्द ने अपने कठोर तप व पुरुषार्थ से सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त वेदों का ज्ञान प्राप्त किया व उनकी रक्षा के उपाय किए। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेदों में परा व अपरा अर्थात् अध्यात्मिक व सांसारिक, दोनों प्रकार की विद्याओं का सत्य व यथार्थ ज्ञान है। वेदों में ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति का भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। महर्षि दयानन्द ने योगाभ्यास एवं आर्ष व्याकरण की सहायता से वेदाध्ययन कर सभी सत्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया वह उनके समय में देश व संसार में प्रचलित नहीं था। संसार में वेदों एवं ज्ञान के विपरीत असत्य, अविद्या व अन्धविश्वास आदि प्रचलित थे। लोग लोग ईश्वर, आत्मा, धर्म-कर्म तथा सामाजिक व्यवहार करने के प्रति भ्रमित थे। किसी भी मत के आचार्य व उनके अनुयायियों को ईश्वर, जीवात्मा सहित सृष्टि एवं मनुष्यों के कर्तव्य व अकर्तव्यों का यथार्थ ज्ञान नहीं था। इस कारण मनुष्य का कल्याण न होकर अकल्याण हो रहा था।

 मनुष्य भौतिक सुखों की प्राप्ति व उनके उपभोग को ही अपना लक्ष्य मानते थे। आज भी सभी व अधिकांश लोग ऐसा ही मान रहे हैं जिसका कारण मुख्यतः पश्चिमी संस्कार व अविद्या है। संसार में भिन्न भिन्न मत हैं जो सभी अविद्या से ग्रस्त है। इनके आचार्य चाहते नहीं कि ईश्वर व आत्मा विषयक सत्य ज्ञान सहित विद्या पर आधारित ईश्वरोपासना और सामाजिक परम्पराओं का प्रचार व लोगों द्वारा उसका निर्वहन हो। ऋषि दयानन्द ने इसी अविद्या के नाश का आन्दोलन किया था जिसके लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों की रचना की थी। यद्यपि ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में प्रायः सभी मुख्य विषयों का ज्ञान है परन्तु आत्मा और परमात्मा के ज्ञान व विज्ञान को जानना सबसे मुख्य है। ऋषि दयानन्द ने आत्मा व परमात्मा के यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर उसका देश व विश्व में प्रचार करने में सफलता प्राप्त की। सफलता से हमारा अभिप्राय इतना है कि ऋषि के विचार उनके समय देश के अधिकांश भागों सहित इंग्लैण्ड, जमर्नी आदि अनेक देशों में पहुंच गये थे। आज इण्टरनैट का युग है। आज इंटरनैट के माध्यम से किसी भी प्रकार की जानकारी का कुछ क्षणों में ही विश्व भर के लोगों मे ंआदान-प्रदान किया जा सकता है। दूसरे देशों में कहां क्या हो रहा है, उसका परिचय व जानकारी भी हमें प्रतिदिन मिलती रहती है।

 महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में मनुष्य, समाज, देश व विश्व के हित के अनेक कार्य किये। उन्होंने देश के अनेक भागों में जा जाकर धर्म व समाज सुधार के उपदेश दिये। पूना में दिए उनके 15 उपदेश तो सार रुप में संग्रहित किये गये परन्तु अन्य सहस्रों उपदेशों को संग्रहित नहीं किया जा सका। यह ज्ञान की बहुत बड़ी हानि हुई है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। इन ग्रन्थों में मनुष्य की प्रायः सभी जिज्ञासाओं को वेद, युक्ति व प्रमाणों के समाधान के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसमें ईश्वर के यथार्थ स्वरुप सहित आत्मा के स्वरुप व उनके गुण, कर्म व स्वभावों पर भी प्रकाश डाला गया है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के स्वरुप को अपने साहित्य में अनेक स्थानों पर प्रस्तुत करने के साथ आर्यसमाज के दूसरे नियम में संक्षेप में प्रस्तुत किया है। उसी को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ ईश्वर वेद ज्ञान का देने वाला और सभी प्राणियों के हृदयों में सत्कर्मों की प्रेरणा करने वाला भी है। वह जीवात्माओं का अनादिकाल से मित्र, आचार्य व राजा है और उनके कर्मों के अनुसार उन्हें सुख-दुःख देने सहित उन्हें नाना प्राणी योनियों में जन्म देने और सच्चे ईश्वर भक्तों व साधकों को मोक्ष आदि प्रदान करता आ रहा है।

 जीवात्मा के स्वरुप पर विचार करें तो हम पाते हैं कि जीवात्मा एक चेतन तत्व है जो अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अनादि, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा, ईश्वर की उपासना, यज्ञ व वेदानुरुप कर्तव्यों का पालन कर सुख व उन्नति को प्राप्त होता है। ईश्वर व आत्मा का परस्पर व्याप्य-व्यापक संबंध है। व्याप्य-व्यापक संबंध होने के कारण दोनों सदा एक साथ रहते हैं परन्तु जीवात्मा की अविद्या जीवात्मा के ईश्वर के आनन्द को प्राप्त करने व उसका साक्षात्कार करने में बाधक होती है। ऋषि दयानन्द ने आत्मा की अविद्या को दूर करने के वेद व योग के आधार पर अनेक उपाय बताये हैं। यह उपाय उनके ग्रन्थों को पढ़कर जाने जा सकते हैं। यहां इतना ही कहना उपयुक्त होगा कि मनुष्य को सत्कर्मों का ज्ञान प्राप्त कर उन्हीं का आचरण करना तथा असत्कर्मों को जानकर उनका सर्वथा त्याग करना ही आत्मा की अविद्या को दूर करता है। इसके साथ ही वेद एवं वैदिक साहित्य का नित्य प्रति स्वाध्याय, योग दर्शन का अध्ययन व उसके अनुसार अभ्यास, ऋषि प्रणीत सन्ध्या एवं अग्निहोत्र आदि यज्ञों को करने सहित अन्य तीन महायज्ञों को भी करने से मनुष्य की अविद्या दूर होकर उसकी ईश्वर से आध्यात्मिक निकटता हो जाती है जो उसे ईश्वर का यथार्थ ज्ञान कराने के साथ सन्ध्या व योग साधना में सहायक होकर लक्ष्य तक पहुंचाती हैं।

 महर्षि दयानन्द जी ने ईश्वर की प्राप्ति वा उसका साक्षात्कार करने के लिए सन्ध्या नाम से एक पुस्तक लिखी है जिसका उद्देश्य प्रतिदिन प्रातः सायं दो समय ईश्वर के व उसके गुण, कर्म व स्वभाव आदि का ध्यान करते हुए उसकी निकटता को प्राप्त करना है। ईश्वर के स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदवादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय व वेदभाष्य ग्रन्थों को पढ़कर हो जाता है। सन्ध्या करने से मनुष्य की आत्मा का सुधार होता है और वह असत् से दूर होकर सत् अर्थात् ईश्वर की निकटता से शुद्ध व पवित्र हो जाता है। मनुष्य वा उपासक जितना अधिक सन्ध्योपासना करता है उतना ही उसकी आत्मा की उन्नति होकर उसका ज्ञान बढ़ता है। मनुष्य ईश्वर के वेद वर्णित सभी गुणों का विचार करने पर अनुभव करता उसे उपासना से लाभ हो रहा है। ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरुप को जानना व वेद सम्मत विधि से सन्ध्या करना भी मनुष्य की उन्नति के लिए बहुत बड़ी बात है। ऐसा करने से अन्धविश्वास व पाखण्ड दूर हो जाते हैं और मनुष्य सब प्राणियों में अपनी जैसी आत्मा के दर्शन करता है व उसे इसकी ज्ञानानुभूति होती है। यह ज्ञान ऋषि के ग्रन्थों सहित दर्शन, उपनिषद आदि ग्रन्थों के अनुकूल होता है जो तर्क व युक्ति से भी प्रमाणित होता है। हमारे पुराने सभी योगी व विद्वान इसी मार्ग का अवलम्बन करते थे और अपने जीवन में ध्यान, जप, स्वाध्याय, अग्निहोत्र आदि के द्वारा मन को एकाग्र कर नाना प्रकार की उपलब्ध्यिं प्राप्त करते हैं।

 ऋषि दयानन्द ने ईश्वर व आत्मा के सच्चे स्वरुप से तो विश्व के लोगों को परिचित कराया ही इसके साथ जीवन का कोई विषय ऐसा नहीं था जिसका ज्ञान उन्होंने न दिया हो। उन्होंने हिन्दी भाषा को देश की एकता व अखण्डता के लिए आवश्यक माना और अपने सभी ग्रन्थों को हिन्दी में लिखने के साथ पराधीनता के काल में अपने समय में हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए हस्ताक्षर अभियान व आन्दोलन भी चलाया था। गोरक्षा के प्रति भी वह पूर्ण सजग थे। उन्होंने गोरक्षा के अनेक कार्य किये। गोरक्षा से आर्थिक लाभों को बताते हुए उन्होंने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तक ‘गोकरुणानिधि’ की रचना की थी। सच्चे हिन्दुओं के लिए गोरक्षा का प्रश्न जीवन व मरण का प्रश्न है। हमारे देश राजनीतिज्ञों में इच्छा शक्ति का अभाव है। इसी कारण गोरक्षा मानवीय एवं आर्थिक दृष्टि से देश हित में होने पर भी यह गोहत्या का दुष्कर्म देश में बढ़ता ही जा रहा है। ऋषि दयानन्द अपने समय में अनेक अंग्रेज अधिकारियों से भी मिले थे और उन्हें गोरक्षा के लाभों का परिचय देकर उनसे गोहत्या बन्द कराने में अपनी भूमिका निभाने को कहा था।

 ऋषि दयानन्द ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होंने अपने विचारों व मान्यताओं को वेद पर आधारित बनाया। वेद ज्ञान व विज्ञान के आधार है। इस कारण वेद में किसी प्रकार का अन्धविश्वास व मिथ्या परम्पराओं का होना सम्भव ही नहीं है। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में समाज में प्रचलित सभी मिथ्या परम्पराओं का भी खण्डन किया और उनके वेदों के अनुरुप समाधान प्रस्तुत किये। उन्होंने नारियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के साथ बाल विवाह का विरोध किया। विधवाओं के प्रति भी उन्हें सहानुभूति थी। अल्प आयु की युवा विधवाओं के पुनर्विवाह का उन्होंने कभी विरोध नहीं किया। ऋषि दयानन्द ‘एक पति एक पत्नी’ की वैदिक व्यवस्था के समर्थक थे। ऋषि दयानन्द ने पूर्ण युवावस्था में गुण, कर्म व स्वभाव की समानता के अनुसार विवाह करने का समर्थन व प्रचार किया। वह ग्रहस्थ जीवन में भी ब्रह्मचर्य के नियमों के पालन के समर्थक व प्रचारक थे। उन्होंने स्त्री व पुरुष शिक्षा के लिए भी उत्तम आदर्श विचार दिये और धर्म रक्षा के लिए सभी को वेद एवं पूर्व ऋषियों के ग्रन्थों को नियमित रुप से पढ़ने की प्रेरणा की। दलित बन्धुओं के प्रति भी उनका हृदय दया और करुणा से भरा हुआ था। उनके अनुसार सभी अशिक्षित व्यक्ति ज्ञान न होने से शूद्र होते हैं जिनका कार्य अन्य तीन वर्णों की सेवा व उनके कार्यों में सहयोग करना होता था। छुआछूत का उन्होंने समर्थन नहीं किया। उन्होंने दलित बन्धुओं के हाथ का भोजन कर समाज को दलितों से प्रेम व उन्हें साथ रखने का सन्देश दिया था। देश की आजादी में भी उनका सभी सामाजिक संगठनों व बाद में बने राजनीतिक संगठनों से अधिक योगदान है। आजादी की प्रेरणा भी उन्होंने अपने ग्रन्थों के माध्यम से की थी। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि विदेशी राजा माता-पिता के समान कृपा, न्याय व दया के साथ भी शासन करें तब भी उनका शासन स्वदेशीय राज्य से हितकर नहीं होता। उनके अनुयायियो ंवा आर्यसमाज ने आजादी के आन्दोलन में सबसे अधिक योगदान दिया है तथा बदले में कोई लाभ नहीं लिया जैसा कि कुछ नेताओं व परिवारों ने लिया है।

 हमने आत्मा व परमात्मा का जो ज्ञान प्राप्त किया है वह सब ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों व सन्ध्या-यज्ञ पद्धति के आधार पर ही किया है। आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य वा अनुयायी आर्यसमाज में विद्वानों के प्रवचन सुनकर ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप को भली भांति जानता व समझता है। हम जब देश विदेश में उत्पन्न व स्थापित अन्य मतों पर दृष्टि डालते हैं तो हमें किसी मत में ईश्वर व जीवात्मा के ज्ञान सहित ईश्वर की प्राप्ति के लिये की जाने वाली साधना-विधि में वह उत्तमता दिखाई नहीं देती जैसी श्रेष्ठता ऋषि की वेदों के आधार पर बनाई गई उपासना पद्धति में है। यदि मनुष्य जन्म को सफल बनाना है तो उसे ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की शरण में आना ही पड़ेगा तभी मनुष्य अज्ञान, अन्धविश्वास, अधर्म व मिथ्या परम्पराओं से मुक्त हो सकता है। ओ३म् शम्।

 -मनमोहन कुमार आर्य

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