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ऋषि दयानन्द के आठ नाम

लेखक डाॅ0 भवानीलाल जी भारतीय

आप लेख का शीर्षक देखकर आश्चर्य करेंगे ! क्या सचमुच ऋषि दयानन्द के आठ नाम थे? मेरा उत्तर है-हाँ। जब करसन जी तिवारी के यहाँ लड़का पैदा हुआ तो लाड़ प्यार में उसका नाम रखा गया दयाराम। तत्पश्चात् जन्म के मूल नक्षत्र के आधार पर उन्हें मूलजी या मूल शंकर नाम दिया गया। यही मूल शंकर इक्कीस वर्ष की भरी जवानी में गृह त्याग कर वैराग्य धारण करता है। जब उसने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया तो खुद ने अपना नाम वेदान्त से प्रभावित होकर रख लिया-शुद्ध चैतन्य। निश्चय ही इस ब्रह्मचारी में चैतन्य ही था, शुद्ध सात्विक और निष्कलुष। वह तब नवीन वेदान्त से प्रभावित भी था इसलिए इससे अधिक सुन्दर नाम स्वयं को क्या दे सकता था?

जब महाराष्ट्र निवासी स्वामी पूर्णानन्द ने इसे संन्यास की दीक्षा दी तो नाम दिया दयानन्द सरस्वती। प्राणिमात्र के प्रति दया दर्शाने वाले इस उदार चरित संन्यासी के लिए यह नाम सर्वथा उपयुक्त था। पारिवारिक नाम दयाराम का ‘दया’ शब्द इसमें सम्मिलित था ही। संन्यासी बनने पर नाम रखने की एक रीति यह भी है कि पूर्व नाम किसी न किसी रूप में चतुर्थ आश्रम के नाम में अन्तर्निहित रहता है। नारायण प्रसाद नारायण स्वामी बने और खुशहाल चंद खुर्सन्द (आनन्द) ने अपना नाम आनन्द स्वामी रखा। अतः दयाराम का दयानन्द बन जाना आश्चर्यजनक नहीं था। वह सचमुच दया और आनन्द का आगार था।

1860 के खत्म होने से कुछ पहले दयानन्द ने विद्या गुरू विरजानन्द के विद्यालय में प्रवेश किया। शीघ्र ही गुरू ने इस तेजस्वी शिष्य के गुणों को पहचान लिया। उसने इस प्रिय शिष्य के दो नाम दिये-कालजिह्न तथा कुलक्कर। कालजिह्न वह होता है जिसकी जिह्ना से पाखण्ड, अनाचार, अत्याचार, मतान्धता तथा अंधविश्वास पर सतत् यम तुल्य प्रहार होता हो। दयानन्द तो अपनी वाणी से पाखण्डों, अनाचारों तथा धर्मध्वजियों के विरोध में सतत अग्निवर्षा करते थे, अतः उन्हें कालजिह्न कहना सार्थक था। कुलक्कर का अर्थ होता है खूंटा या खूंटे से बंधा। शास्त्र मर्यादा तथा सत्सिद्वान्तरूपी मजबूत खूंटे से बंधा दयानन्द गुरूदेव द्वारा कुलक्कर नाम से पुकारा जाता था।

प्रचार काल के प्रारम्भ में स्वामी दयानन्द गंगा के तटवर्ती प्रदेश में घूमकर वैदिक धर्म के मौलिक मन्तव्यों का प्रचार करते रहे। इस अवधि में उन्होंने आठ अवैदिक गप्पों का निरन्तर खण्डन किया तथा आठ वैदिक सत्यों का प्रतिपादन किया। अवैदिक पाखण्ड मत का खण्डन करते समय स्वामी जी की वाणी में एक निराली ओजस्विता तथा तेजस्विता आ जाती थी। उन्होंने जिन आठ गप्पों का खण्डन किया वे थीं-(1) पुराण (2) मूर्तिपूजा (3) शैव, शाक्त आदि समुदाय (4) वाम मार्ग (5) मादक द्रव्य सेवन (6) परस्त्री गमन (7) चोरी (8) कपट, छल, अभिमान तथा मिथ्या भाषण। स्वामी जी द्वारा इन आठ गप्पों का तीव्र खण्डन इतना लोकप्रिय तथा चर्चित हुआ कि सामान्य लोग इन्हें गप्पा बाबा कहकर पुकारने लगे। गप्पों का खण्डन करने वाला गप्पा बाबा कहलाने लगा।

जब कोई व्यक्ति उनके सामने कोई मिथ्या बात कहता तो स्वामी जी तुरन्त उसका खण्डन करते और संस्कृतमें कहते-‘मनुष्याणां कोलाहलः’ यह सत्य नहीं है। केवल अज्ञानी लोगों का कोलाहल है। उनका यह कथन इतना लोकव्यापी हो गया कि सामान्य जनता उन्हें कोलाहल स्वामी कहने लगी। यह एक प्रचलित सत्य है कि किसी व्यक्ति द्वारा किसी शब्द का निरन्तर, अप्रतिहत प्रयोग होता जन समाज सुनता है तो वह उसे व्यंजना की शैली में उसी नाम से पुकारने लगता है। अन्यों के प्रति ‘महाशय जी’ का अनवरत प्रयोग करने वालों को साधारण जनता ‘महाशय जी’ पुकारने लगती है। इसी कारण ‘कोलाहल’ का अतिशय प्रयोग करने वाले दयानन्द को गंटा तटवर्ती सामान्यजन कोलाहल स्वामी कहने लगे तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

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