आजीविका के लिए कोई साधन नहीं है। ना पहचान ना घर बंजारों समेत करीब 300 जातियों जन जातियों के माथे पर आज भी लिखा हुआ है “तेरी जात चोर है” यानि जन्मजात अपराधी होने का कलंक। ये कानून कभी भारत में बना था, कानून का नाम था जरायम पेशा कानून।
कैसा लगता होगा जब 12 वर्ष से ऊपर समस्त पुरूषों को प्रतिदिन थाने में हाजिरी देनी पड़ती हो या फिर कैसा महसूस होगा जब घर में किसी नवजात बच्चें की किलकारी गूंजती और उसके बाप को दौड़कर इसकी सूचना तुरंत प्रशासन यानि नजदीक के थाने देनी पड़ती हो। कैसा लगता होगा, भले ही आपने कभी चोरी या अपराध ना भी किया हो लेकिन सरकार आपको चोर अपराधी साबित करने के लिए क्रिमनल ट्राइब्स एक्ट बनाकर हमारे ऊपर ये कानून थोप दे तब हम कैसा महसूस करेंगे? आज सड़कों के किनारे तमाशा दिखा कर अपना पेट पालने वाले बंजारे अपने माथे पर इस कलंक को लेकर जी रहे हैं, यह कलंक उन्हें इतिहास ने दिया है।
दरअसल 1857 की क्रांति का दौर था समूचे देश में आजादी की बयार चल रही थी। सभी भारतीय जात-पात अलग करके एकजुटता से अंग्रेजों को उनके जलपोतों में फैंककर, वापिस भेजने की तैयारी कर चुके थे। लेकिन क्रांति किन्ही कारणवश विफल रह गयी। नतीजा ईस्ट इंडिया कंपनी ने हजारों लोगों को बाजारों में और सड़कों पर लटकाकर मार डाला और बहुत से लोगों को कुचल डाला गया। यह ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार था। स्वतंत्रता संग्राम के अगले वर्ष एक नवंबर को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने कंपनी के अधिकारों को समाप्त कर शासन की बागडोर सीधे तौर पर अपने हाथों में ले ली थी।
अब शुरू हुई अगली कारवाही यानि सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जिन जातियों जन जातियों ने अंग्रेजों के विरूद्ध हथियार उठा संघर्ष किया और अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए सरकारी सम्पत्ति को भारी नुक़सान पहुँचाया। इनसे बदला लेने के लिए इसमें शामिल रही जातियों पर प्रतिशोध स्वरूप दंडात्मक कार्यवाही करते हुये इन जातियों के तमाम गतिविधियों को प्रतिबंधित करने के लिए आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 यानि जरायम पेशा क़ानून बना दिया।
इसके तहत भारत की कई जनजातियों को आदतन अपराधी चोर लुटेरा घोषित कर दिया गया। इनमें से 160 संजातीय भारतीय समुदायों के लोगों के खिलाफ एक प्रकार का गैर-जमानती वॉरंट जारी कर दिया गया। उन्हें हर सप्ताह या रोजाना थाने में बुलाया जाने लगा। वो अपनी मर्जी से हिल-डुल भी नहीं सकते थे, उनकी गतिविधियों पर कुछ इस तरह से अतिक्रमण हुआ कि बच्चे के जन्मते ही थाने में अपराधियों की लिस्ट में नाम लिख दिया जाता था और 12 साल का होते ही थाने में दो बार हाजिरी लगाना। एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए थानेदार के पैरों पर गिड़गिड़ाना पड़ता और लिखित में इजाजत ले कर जाना पड़ता था। अगर इन आपराधिक जनजातीय समुदायों का कोई भी व्यक्ति बिना लाइसेंस के पाया जाता था तो उसे 3 साल तक की कड़ी जेल की सजा दिए जाने का प्रावधान था।
आरम्भ में इस कानून को बना कर इसे उत्तर पश्चिमी प्रान्त के साथ-साथ अवध और पंजाब में लागू किया गया। धीरे धीरे समूचे देश की अलग-अलग जातियों को इसमें जोड़ते चले गये। वैसे विश्व के लगभग 53 देशों में अंग्रेजों का शासन था, लेकिन क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट केवल भारत में लागू किया गया था। अंग्रेजों की धारणा यह थी कि जिस तरह से भारत में जातिगत व्यवसाय होते हैं जैसे लोहार का लड़का लोहार होता है, बढ़ई का लड़का बढ़ई, किसान का लड़का किसान और चिकित्सक का लड़का चिकित्सक, इसी तरह अपराधी की संतानें अपराधी ही होती हैं। इसलिए भारत की वीर बहादुर लड़ाकू जातियों, जनजातियों की संतानों को भी अनिवार्य रूप से जन्मजात अपराधी मान लिया गया था।
जिन्हें आज कथित तौर पर बंजारे नट कंजर सांसी कहकर लोग हेय द्रष्टि से देखते है असल में कभी ये भारत की वीर जनजातियां थी। जो मुगलों से लड़ी और बाद में अंग्रेजों को सीधे तौर पर टक्कर दी। इतिहास का ऐसा उदहारण सन 1025 का है जब गजनी का लुटेरा महमुद गजनवी सोमनाथ मंदिर को लूटने आया तब अजमेर के राजा धर्मगजदेव की हार के बाद भीलों मीणों और बंजारों ने जंगल में उसकी सेना घेरकर उसे घुटनों के बल ला दिया था। लेकिन राजनितिक सूझबुझ की कमी कहो या संगठन शक्ति की कमी के कारण लुटेरे को बंधक ना बना सकी।
यानि घुमंतू जनजातियां भारतीय हिंदू संस्कृति की रक्षक थीं और आज भी हैं। घुमंतू समुदाय गाड़िया लोहारों के त्याग, बलिदान और हिंदू संस्कृति के महान रक्षकों को कौन नहीं जानता? आज उनकी स्थिति बद से बदतर है किन्तु अधिकांश प्रांतीय सरकारें उन्हें अपने प्रांत का नागरिक भी नहीं मानतीं। जबकि बांग्लादेश से आकर घुसपेतियां रोहिंग्या अपना आधार कार्ड बनाकर बैठ गये लेकिन इन वीर जातियों जनजातियों को अभी तक भी भारत की नागरिकता नहीं मिल पाई।
अब आप सोच रहे होंगे कि अब तो अंग्रेज नहीं है या 1947 में देश तो आजाद हो गया था फिर अब इस कानून का क्या काम! तो आप बिलकुल ठीक सोच रहे है असल में पाकिस्तान ने 1948 में जबकि भारत सरकार ने 31 अगस्त 1952 को मजबूरी में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट समाप्त जरूर किया किन्तु बड़ी युक्तिपूर्वक इसके स्थान पर हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट लागू कर दिया इसका अर्थ यह हुआ कि जो ब्रिटिश विद्रोही समुदाय 1952 तक जन्मजात अपराधी माने जाते थे, वे अब आदतन अपराधी माने जाने लगे।
फर्ज अदायगी के तौर पर इनके उत्थान के लिए कतिपय कमेटियों और आयोगों का गठन भी किया गया लेकिन किसी की सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया। इनमें दो प्रमुख राष्ट्रीय आयोग रेनके आयोग ने 2008 में और दादा इदाते आयोग ने जनवरी 2018 में अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी थी। लेकिन अभी तक किसी सरकार ने इदाते आयोग की रिपोर्ट को लागु नहीं किया और नतीजा आज भी इन वीर जनजातियों को अपने माथे का कलंक ढोना पढ़ रहा है। आज यह आपराधिक जनजाति तो नहीं कहलातीं है मगर आज इन्हें विमुक्त जनजाति के नाम से जाना जाता है। चूँकि इनके साथ यह कलंक लगा हुआ है इसलिए समाज ने कभी भी इन्हें स्वीकार नहीं किया। ना समाज ने और ना ही सरकार ने। वर्ष 1948 से अब तक इन जातियों के उत्थान विकास व कल्याण के लिए कुल आठ-नौ कमेटियां व दो आयोग बनाये लेकिन अभी तक इनके लिए बने किसी भी कमीशन की शिफारिश किसी भी सरकार ने नहीं मानी। ये लोग आज भी कलंक को लेकर सड़कों पर तमाशा दिखाकर जीने को मजबूर हैं। हालाँकि आज मुगलों और अंग्रेजों की सचाई बताना गुनाह माना जाता है लेकिन आज हमारा दायित्व बनता है कि हम हिन्दू संस्कृति की रक्षक इन वीर जातियों जन जातियों के लिए आवाज उठाएं ताकि इन्हें इनका अधिकार इनकी वीरता की गर्वीली विरासत मिल सकें।
BY-Rajeev Choudhary