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काशी महासम्मेलन से आर्य समाज ने क्या पाया

आमतौर पर धर्म और अद्ध्यात्मिक कही जाने वाली काशी नगरी का जिक्र आते ही आज समय में सबसे पहले देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट की तस्वीर दिखाई देती है। नरेंद्र मोदी ने साल 2014 काशी पहुंचकर कहा था गुजरात की धरती से आया हूँ गंगा माँ ने बुलाया है। देश को आगे बढ़ाने में इस काशी नगरी से मोदी की एतिहासिक जीत ने देश को आगे बढ़ाने में कार्य किया। लेकिन इसी काशी नगरी ने आज से 150 वर्ष पहले गुजरात की धरती से एक और बेटे स्वामी दयानंद सरस्वती जी को भी बुलाया था। ताकि इस सोये देश को जगाने के लिए आगे बढ़ाने पाखंड और अंधविश्वास का समूल नाश किया जा सके। यदि काशी नगरी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को भुला दिया गया तो काशी का परिचय अधुरा रह जायेगा।

जब सन 1861 में महर्षि दयानंद का पौराणिक रीति-नीति के मानने वाले पाखंड में पारंगत पंडितों से काशी में शास्त्रार्थ हुआ तो वह महज एक शास्त्रार्थ नहीं बल्कि एक नये युग की आहट थी।  उस आहट ने इस देश की धरा के युवाओं की चेतना को न केवल जाग्रत किया बल्कि उन्हें एक वैचारिक हथियार भी दिया था। धीरे-धीरे समय गुजरता गया। स्वामी दयानन्द के बाद उनके शिष्यों ने देश विदेश में आर्य समाज ने वैदिक मान्यताओं का प्रचार तो किया लेकिन उसका दायरा सिमित होकर रह गया था।

देश विदेश में अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलनों जैसे अनेकों सफल आयोजन करने के पश्चात इस वर्ष आर्य समाज की शिरोमणि संस्था सार्वदेशिक सभा ने फिर एक बीड़ा उठाया, दिल्ली सभा एवं उत्तर प्रदेश सभा ने संयुक्त रूप से पूरा सहयोग किया और देखते ही देखते काशी में एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का महर्षि दयानंद सरस्वती के प्रसिद्ध काशी शास्त्रार्थ की 150 वी वर्षगांठ के अवसर पर तीन दिवसीय स्वर्ण शताब्दी वैदिक धर्म महासम्मेलन के आयोजन की नीव रख दी।  यधपि यह कार्य कोई छोटा-मोटा नहीं था क्योंकि आज के वर्तमान युग में जिस तरह से अनेकों पाखंडों को सरकारों का संरक्षण प्राप्त है उस लिहाज से तो बिलकुल भी नहीं।  परन्तु आर्य समाज के जुझारू, कर्मठ कार्यकर्ताओं ने अपनी एकजुटता दिखाते हुए 150 वर्ष बाद उसी काशी की भूमि पर एक बार फिर जो वैदिक शंखनाद किया, ऐसे सफल आयोजन का भव्य आरम्भ और समापन विरले ही सुनने और देखने को मिलता है।

कार्यक्रम भले ही 11 से 13 अक्टूबर का था लेकिन 10 अक्तूबर प्रातरू से ही जिस तरह बिहार, बंगाल, तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक. छतीसगढ़, झारखंड, उत्तर भारत के हजारों की संख्या में कार्यकर्ताओं के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश समेत किन-किन राज्यों से आये विशाल संख्या में हजारों लोगों का वर्णन करें क्योंकि भारत का कोई राज्य और हिस्सा ऐसा शेष नहीं था जहाँ से आर्यजन ना आये हो। बल्कि म्यांमार, नेपाल, बांग्लादेश समेत कई देशों के उत्साहित कार्यकर्ता भी भाग लेने पहुंचे। विशाल क्षेत्र में फैला पंडाल तो आर्यजनों की उपस्थिति दर्ज करा ही रहा था इसके अतिरिक्त यज्ञशाला, भोजनालय से लेकर महासम्मेलन स्थल के मुख्यमार्गों के अलावा कोई कोना ऐसा शेष नहीं था जहाँ ये कहा जा सके कि यह स्थान खाली है। हर कोई उत्साहित और गौरव के इन पलों का साक्षी बनकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा था।

बहुत लोग सोच रहे होंगे कि आखिर भारत की राजधानी दिल्ली से इतनी दूर इस विराट महासम्मेलन के लिए स्थान क्यों चुना गया? दरअसल एक तो 150 वर्ष पूर्व काशी शास्त्रार्थ की विजय स्मृतियाँ आज धुंधली सी पड़ने लगी थी. जब काशी के दिग्गज पंडितों के साथ स्वामी दयानंद का शास्त्रार्थ काशी नरेश महाराज ईश्वरीनारायण सिंह की मध्यस्थता में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। इस शास्त्रार्थ के दर्श के तौर पर काशी नरेश के भाई राजकुमार वीरेश्वर नारायण सिंह, तेजसिंह वर्मा आदि प्रतिष्ठित व्यक्ति भी उपस्थित थे। दूसरा स्वामी जी ने वहां जिस पाखंड के खिलाफ अपनी मुहीम चलाई थी उन लोगों की अगली पीढीयों ने आज अन्य कई प्रकार नये पाखंड ईजाद कर लिए तो आज समय की मांग को देखते हुए स्वामी देव दयानन्द के शिष्यों का कर्तव्य बनता था कि फिर उसी काशी से फिर आर्य समाज का एक नया उद्घोष हो ताकि लोग यह न समझ बैठे कि आर्य समाज पाखंड से हारकर बैठ गया है।

इसी उद्गोष का नतीजा रहा कि काशी की नई पीढ़ी से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार में इस महासम्मेलन की दस्तक ने अगले कार्यकर्मों के दरवाजे खोल दिए। महासम्मेलन स्थल के बाहर मुख्य मार्ग पर मानो मेला सज गया। रेहड़ी पटरी वालों से लेकर बनारसी साड़ियों की दुकाने तक सज गयी, इनमें बहुतेरे लोगों को तो इससे पहले आर्य समाज का पता तक नहीं था लेकिन जब काशी की सड़कों पर भगवा ध्वज केसरियां टोपी और पगड़ी पहने जब विशाल शोभायात्रा का आयोजन हुआ तो हर किसी के लिए आश्चर्य का केंद्र बन गया, काशी के सभी समाचार पत्रों में तो महासम्मेलन ने सुर्खियाँ बटोरी ही साथ जी नरिया लंका से चली शोभायात्रा जहां से भी गुजरी लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया।

सही मायनों में देखा जाये तो काशी महासम्मेलन ने आर्य समाज का खोया गौरव लौटाया, स्वध्याय को ताकत मिली, वैदिक मन्त्रों, स्वामी देव दयानंद, आर्य समाज तथा वैदिक धर्म के नारों से न केवल काशी नगरी गूंजी बल्कि 150 वर्ष पहले के स्वामी दयानंद जी के शास्त्रार्थ को पुनर्जन्म मिल गया।  एक बार फिर काशी के युवाओं को पुनरवलोकन करने मौका दिया कि हमारी सनातन संस्कृति में अन्धविश्वास और पाखंड के लिए कोई स्थान नहीं है। हम वेदों के मार्ग पर चलने वाले लोग थे न कि अन्धविश्वास के मार्ग पर चलने वाले। काशी महासम्मेलन से लौटे सभी आर्य समाज से जुड़ें लोग प्रसन्नता पूर्वक कह रहे है कि इस कड़ी में अंतिम लक्ष्य है ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम’ अर्थात संपूर्ण विश्व को आर्य यानी श्रेष्ठ बनाना हैं। यदि कहीं जो अपूर्णता बचीं हैं उसे दूर करके जल्द ही हम संगठन, समाज व राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ बनाते हुए विश्व भर को आर्य बनाने के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

 विनय आर्य

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