Tekken 3: Embark on the Free PC Combat Adventure

Tekken 3 entices with a complimentary PC gaming journey. Delve into legendary clashes, navigate varied modes, and experience the tale that sculpted fighting game lore!

Tekken 3

Categories

Posts

केवल जलीकट्टू का विरोध गलत!!

राजीव चौधरी

जल्लीकट्टू एक खेल है या धार्मिक आस्था से जुडी एक परम्परा का सवाल? पिछले कई दिनों से यह मामला उभरकर सामने आया है. दरअसल जल्लीकट्टू को धार्मिक आस्था से इस वजह से भी जोड़ा जा रहा है कि पोंगल त्योहार के दौरान यह खेल पिछले चार सौ वर्षो से खेला जाता रहा है. हो सकता है उस समय कोई और खेल न रहा हो अपने बल और पराक्रम को साबित करने के लिए इस खेल का आयोजन होता हो! पर आज ऐसा नहीं है आज के आधुनिक युग में सैंकड़ो खेल उभर कर सामने आये है जिन्हें बिना किसी हिंसा या चोट के खेला जाता है. परन्तु इस खेल की प्राचीनता को लेकर उभरे इस नये विवाद में राजनीतिक हस्तक्षेप से भी इंकार नहीं किया जा सकता. अक्सर हमारे देश में बहुतेरे फैसले जन भावनाओं को ध्यान में रखकर लिए जाते है.लेकिन पिछले कुछ समय में सबने देखा कि ज्यादतर फैसलों में सुप्रीम कोर्ट को विरोध का सामना ही करना पड़ा है चाहें उसमें जन्माष्ठमी की दही हांड़ी प्रतियोगिता हो या महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, केरल व गुजरात में परंपरागत बैलगाड़ी दौड़ प्रतियोगिता.

जल्लीकट्टू तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों का एक परंपरागत खेल है जिसमे बैलों से इंसानों की लड़ाई कराई जाती है. जल्लीकट्टू को तमिलनाडु के गौरव तथा संस्कृति का प्रतीक कहा जाता है. तमिलनाडु से सुप्रीम कोर्ट के वकील वी. सालियन के अनुसार ये 5000 साल पुराना खेल है जो उनकी संस्कृति से जुड़ा है. प्राचीन काल में महिलाएं अपने वर को चुनने के लिए जलीकट्टू खेल का सहारा लेती थी. जलीकट्टू खेल का आयोजन स्वंयवर की तरह होता था जो कोई भी योद्धा बैल पर काबू पाने में कामयाब होता था महिलाएं उसे अपने वर के रूप में चुनती थी हालाँकि इस तरह का खेल स्पेन में भी होता है जिसे बुल फाइट कहते हैं और वहां ये खेल काफी लोकप्रिय है. कई बार जलीकट्टू के इस खेल की तुलना स्पेन की बुलफाइटिंग से भी की जाती है लेकिन ये खेल स्पेन के खेल से काफी अलग है इसमें बैलों को काबू करने वाले युवक किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल नहीं करते हैं.

2014 में जानवरों की सुरक्षा करने वाली संस्था पेटा इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गयी. अदालत ने इस खेल पर पाबंदी लगाने का फैसला सुनाया. जलीकट्टू सामंती युग की एक परंपरा है जो न सिर्फ पशुओं बल्कि इसमें शामिल इंसानों के लिए भी घातक है पिछले दो दशक में करीब दो सौ लोगों ने इसमें अपनी जान गवां दी है. लेकिन परंपरा के नाम पर इसे आज भी ढोया जा रहा है. परन्तु यदि इसमें तमिल लोगों की राय माने तो वो कहते है कि पशु प्रेमी संस्था पेटा को परंपराओं के नाम पर पशुओं के प्रति क्रूरता और जगह क्यों दिखाई नहीं देती उनका साफ तौर पर इसका इशारा बकरीद पर होने वाले पशुओं के सामूहिक नरसंहार की ओर है.

प्रदर्शनकारियों की माने तो जल्लीकट्टू पर पाबंदी तमिलों की भावनाओं की अनदेखी है और इसे तमिल स्वाभिमान पर चोट के रूप में देखा जाना चाहिए. उनका कहना है कि क्या प्राचीन सांस्कृतिक त्योहार अब अदालतें तय करेंगी? तमिल समाज यह मानने के लिए तैयार है कि जिस चौखटे में और जिस रूपरेखा में अदालत उन्हें जल्लीकट्टू मनाने की इजाजत दे वे उसे स्वीकार करेंगे तो फिर इजाजत क्यों नहीं मिलती? हालाँकि इसे कुछ लोग उत्तर भारत बनाम दक्षिण की सांस्कृतिक जंग बनाने का विकृत प्रयास भी कर रहे है जो हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए अच्छी नहीं है. लेकिन इस सारे मामले में यह भी समझना चाहिए कि इतनी बड़ी संख्या में क्या तमिल युवा बिना नेतृत्व, बिना किसी संगठन और बिना किसी राजनीतिक दल के हस्तक्षेप सड़कों पर उतर आए हैं?

जलीकट्टू हो या बकरीद, ताजिये हो या बली प्रथा ऐसी बहुतेरी प्रथाओं का चलन जब शुरू हुआ, तब हमारे जीवन मूल्य कुछ और थे. हमारे जीने का ढंग दूसरा था.आज हमारे रहन-सहन के तौर-तरीके में काफी परिवर्तन आया है. लेकिन हम आज भी अक्सर इनकी प्राचीनता को संस्कृति का नाम देकर बचाने की दुहाई देने लगते है. बल और पराक्रम दर्शाकर स्वंयवर रचा उससे जीवन संगनी हासिल करना पुराने समय की प्रथा थी. आज ऐसा नहीं है सोशल मीडिया से लेकर कार्यालयों में साथी महिला कर्मचारी से भी विवाह होते देखे जाते है. आमतौर पर बल से अपनी मादा हासिल करना सब जानवरों में देखा जाता है कि नर पशु अपनी मादा को रिझाने के लिए अपनी श्रेणी के अन्य नर पशुओं पर अपनी ताकत का हिंसक प्रदर्शन करते है.

समय के अनुसार मनुष्य समाज परिवर्तन करता आया है. उसी समाज के बुद्धिजीवी लोग अपनी कुप्रथाओ के विरुद्ध आवाज उठाने लगते है. सती प्रथा जैसी क्रूर प्रथा आज समाज से खत्म हो चुकी है. पेटा जैसी संस्था का आगे आना पशुओं के प्रति दया दिखाना जायज है और सम्मानीय भी लेकिन तमिल लोग इस संस्था की आलोचना करते हुए सवाल रख रहे है कि ईद पर पशुओं की कुर्बानी पर चुप रहते हैं, क्रिसमस पर टर्की नामक पक्षी को भूनकर खाने पर नहीं बोलते हैं और रेसकोर्स की घुड़दौड़ की अनदेखी करते हैं वे उनकी संस्कृति से जुड़े खेल उत्सव को कैसे बंद करा सकते हैं?  देश के अन्य हिस्सों की तरह तमिलों के घरों में नंदी बैल पर समस्त शिव परिवार विराजित दिखाने वाले चित्र लगे रहते हैं. आम तमिलों का सवाल है कि क्या अब पेटा की याचिका पर शिवजी को नंदी से उतारा जाएगा, हो सकता है नंदी बैल को कष्ठ होता हो? और ऐसे चित्र बैलों पर अत्याचार की प्रेरणा देते हैं. वह सवाल उठा रहे है कि सर्वोच्च न्यायालय ने आतंकी याकूब के वकीलों की दलीलें सुनने आधी रात को भी दरवाजे खोल दिए थे, लेकिन एक सांस्कृतिक उत्सव पर पाबंदी की जल्द सुनवाई करने से मना कर दिया. क्या यह खेल एक आतंकवादी के हिंसक कारनामों से भी बुरा है? क्या पेटा बकरीद पर हिंसा के नाम पर अपील कर सकती है यदि नहीं तो फिर केवल जलीकट्टू का विरोध गलत है..

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *