देश की राजधानी दिल्ली में हजारों लोगों को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने की खबर चारों और फैली। खबर थी कि 22 प्रतिज्ञायें लेकर हजारों लोग नवबौद्ध बन गये जिसमें वह कह रहे थे कि हम ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण, गौरी-गणपति को भगवान नहीं मानेंगे और कभी उनकी पूजा नहीं करेंगे। बताया जाता है इन्हीं 22 प्रतिज्ञाओं को लेकर भीमराव आंबेडकर भी नवबौद्ध बने थे आज भी हर वर्ष उसी परिपाटी को देश के अलग हिस्सों में दोहराया जा रहा है।
ऐसे में कई सवाल खड़े होते है। पहला यह कि धर्म नफरत या दबाव का नहीं बल्कि आस्था का बिंदु है। दूसरा क्या नवबौद्ध बनने के लिए नफरत का आधार उपयुक्त है? या फिर कितना कमजोर मत आपने खड़ा किया कि उसमें जाने के लिए आपको अपने ही महापुरुषों के प्रति नफ़रत सिखाई जा रही है? इस कारण ये सवाल मिलकर एक नया सवाल खड़ा करते है कि क्या नवबौद्ध कोई धार्मिक सम्प्रदाय है या राजनितिक प्रयोग?
अतीत से समझे तो साल था 2017 अक्टूबर का महीना था इस दौरान बसपा अध्यक्ष मायावती ने आजमगढ़ में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर सत्ताधारी दलों ने दलितों, मुसलमानों के प्रति अपनी सोच नहीं बदली तो वे लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपना लेगी। तब ये सवाल बनकर सामने उभरा था कि क्या उनके समर्थक जो मुसलमान है वो भी बौद्ध बनेंगे? अगर हाँ तो मायावती जी को ये काम कर देना चाहिए। दूसरा प्रश्न ये भी उठा था कि दलितों को बौद्ध बनाकर मायावती जी कोई राजनीतिक उद्देश्य हासिल करना चाहती हैं या दलितों का उत्थान? या फिर इसी तरह दलितों के नाम पर राजनीति की रोटी सेकती रहेगी।
दरअसल इससे पहले मायावती 14 अक्तूबर 2006 को नागपुर दीक्षाभूमि गईं थी जहां उन्हें पहले किए गए वादे के अनुसार बौद्ध धर्म अपना लेना था। यह वादा कांशीराम ने किया था कि बाबा साहेब के धर्म परिवर्तन की स्वर्ण जयंती के मौके पर वह खुद और उनकी उत्तराधिकारी मायावती बौद्ध धर्म अपना लेंगे। उसी दौरान मायावती ने वहां बौद्ध धर्मगुरूओं से आशीर्वाद तो लिया लेकिन सभा में कहा, मैं बौद्ध धर्म तब अपनाऊंगी जब आप लोग मुझे प्रधानमंत्री बना देंगे। तब बौद्ध भिक्षु भी सोच में पड़ गए कि यह विशुद्ध धर्म के नाम पर राजनीति कर रही है। क्योंकि महात्मा बुद्ध जी ने तो मोक्ष यानि निर्वाण के लिए राजपाट छोड़ दिया था और यह लोग अपने राजपाट के निर्माण के लिए आज महात्मा बुद्ध जी का प्रयोग कर रहे है। तो इससे साफ़ हो जाता है कि विशुद्ध रूप से नवबौद्ध राजनितिक संगठन है।
अब एक बार फिर कहा जा रहा है कि जातीय अत्यचार की वजह से धर्म छोड़ रहे है, अगर ऐसा तो यह कायरता है! क्योंकि अमेरिका में काले और गोरे लोगों के बीच एक लम्बे संघर्ष का इतिहास रहा है। कालों के साथ इस हद तक बुरा बर्ताव था कि उन्हें नागरिक अधिकारों के प्रति लम्बा संघर्ष करना पड़ा, अमेरिका का संविधान लागू होने के सेंकड़ों वर्षों बाद उन्हें तब कहीं जाकर 1965 में गोरे नागरिकों के बराबर मताधिकार दिया गया। गोरों और कालों के बीच सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक असमानताएं आज भी बनी हुई हैं। जातीय भेद अमेरिका की भी कड़वी सच्चाई है। इसी वजह से गोरों की बस्तियों में कालों के घर बिरले ही मिलते है। इस लम्बे संघर्ष के कालखण्ड में क्या कोई बता सकता है कितने काले लोगों ने अपना धर्म छोड़ा?
अगर इस सम्बन्ध में भारत की बात करें तो आजादी के बाद जब 1950 में संविधान लागु हुआ। तब बिना किसी नस्ल, रंग-भेद, जातीय-भेद के सबको मताधिकार और समानता का कानून साथ ही पिछड़े लोगों को आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण भी दिया। यानि अमेरिका ने जो काम 1965 में किया वो यहाँ 15 वर्ष पहले किया गया। लेकिन फिर भी कुछ खुद को दलित मानने वाले लोग कहते है कि मनुस्मृति में ब्राह्मण को सिर तो शुद्र को पैर लिखा गया इस कारण हम धर्मपरिवर्तन कर रहे है। सिर्फ इतना पढ़कर बवाल मचाने वालों ने कभी ये नहीं पढ़ा कि उसी मनुस्मृति ने ये भी लिखा है कि प्रथम प्रणाम पैर यानि चरणों को होगा। सनातन संस्कृति में सिर स्पर्श नहीं बल्कि चरण स्पर्श को महत्व दिया गया है।
असल में ये जो अत्याचार का रोना रोया जाता है, मंदिर में ना घुसने देने का बहाना बनाया जाता है, वो ग्रामीण स्तर पर लोगों के पर्सनल मंदिर हो सकते है। जबकि हरिद्वार से लेकर काशी, उज्जैन समेत किसी धर्म स्थल पर कोई किसी की जाति नहीं पूछता। जबकि दुनिया में बराबरी और शांति का डंका पीटने वाले सुन्नी मजहबी आतताइयों ने अभी अफगानिस्तान में शिया हजारा समुदाय के करीब 150 बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। इससे बुरा क्या अत्याचार हो सकता है वो भी मजहब के नाम पर! लेकिन उन लोगों ने मजहब नहीं छोड़ा?
अहमदिया समुदाय के लोग स्वयं को मुसलमान मानते हैं। परन्तु अहमदिया समुदाय के अतिरिक्त शेष सभी मुस्लिम वर्गां के लोग इन्हें मुसलमान मानने को हरगिज तैयार नहीं होते। बल्कि देश की प्रमुख इस्लामी संस्था दारुल उलूम देवबंद ने वर्ष 2011 में सऊदी अरब सरकार से मांग की थी कि अहमदिया समुदाय के लोगों के हज करने पर रोक लगाई जाए। संस्था ने इस समुदाय के लोगों को गैर मुस्लिम लिखते हुए कहा था कि शरिया कानून के मुताबिक गैर मुस्लिमों को हज करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है। इस सबके बावजूद क्या कोई बता सकता है कि अहमदिया समुदाय के लोगों ने इससे प्रताड़ित होकर इस्लाम छोड़ दिया ?
लेकिन इसके उलट हमारे यहां यदि एक कथित ऊँची जाति का अशिक्षित जिसकी खोपड़ी में जाति की सनक है अगर वह किसी दलित को धमका दे तो अनेकों लोग कूद पड़ते है कि ब्राह्मणों ने बहुत ऊंच-नीच फैला रखी है। कोई मनुस्मृति पर आरोप लगाएगा तो कोई धर्म पर। हम जातिगत भेदभाव से इंकार नही कर रहे हैं और ना ही इसका समर्थन करते। लेकिन धर्म छोड़ना कोई समाधान कैसा हो सकता है? हमें नहीं लगता पलायन से कोई भी कथित दलित सम्मान कमा सकता है! धर्म पर जितना अधिकार एक कथित ऊँची जाति के व्यक्ति का है, उतना ही अन्य लोगों का भी है। यानि धर्म से कोई किसी का अधिकार नहीं छीन सकता। रही सम्मान की तो वह हीनता को नहीं, हमेशा संघर्ष को मिलता है।
दूसरा क्या कथित दलित जातियों में आपसी भेदभाव नहीं है! ये हमारा कोई कोई जातीय तंज नहीं है ना हमारी ऐसी कोई धारणा सिर्फ सवाल है कि क्या कोरी जाटव से विवाह करते है? क्या मुसहर, महार के घर रिश्ता लेकर जाते है? कितने वाल्मीकि, सोनकर से रिश्ता करते है? ये सवाल उन कथित नवबौद्ध से भी है, उन जय- भीम, जय-मीम वालों से, उन दलित चिंतकों से भी है, जो उस समय खामोश हो जाते है जब किसी पूर्णिया में मुस्लिमों की दलित बस्ती को आग के हवाले कर देती है। सुल्तानपुर ने दलितों को दौड़ा दौड़कर पीटती है तब उनकी आवाज समानता का भाषण बंद हो जाता है। लेकिन एक हाथरस की घटना पर सब मुखर हो जाते है। तब कोई शपथ नहीं ली जाती की हम इन मजहबी लोगों से कोई नाता नहीं रखेंगे। इनकी दुकानों से सामान नहीं खरीदेंगे। ना तब ओवेसी बोलता साथ ही नवबौद्दो के गुरु भीम आर्मी और बामसेफ वाले सब चुप हो जाते है।
ना केवल चुप हो जाते बल्कि जब दलित मुसलमानों को अपने साथ ऊँची जाति के मुस्लिम अपने घर में घुसने भी नहीं देते। तब क्यों उन दलित मुस्लिमों से क्यों नहीं कहा जाता चलो बुद्ध की ओर? ना उन्हें शपथ दिलाई जाती की वो अब आसमानी किताब को नहीं मानेगे ना मस्जिद में जायेंगे ना इबादत करेंगे?
यही नहीं जब पोप दलित ईसाइयों से हाथ मिलाने से इंकार कर देता है। जब दिसंबर 2016 में कैथलिक चर्च अपनी ‘पॉलिसी ऑफ़ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह मानता है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद हैं। तब ये लोग क्यों उन्हें नवबौद्ध बना देते खुलकर दलित ईसाइयों की सभा करें और शपथ दिलाये कि वह आज मरियम और जीसस को अपना भगवान नहीं मानेगे ना उनकी पूजा करेंगे? लेकिन ऐसा कभी नहीं करेंगे क्योंकि इन्हें ऐसा करने का कोई फंड या शायद विदेशी सहायता नहीं मिलती। इन्हें सनातन धर्म को कमजोर करने के लिए जय मीम जैसे संगठन और विदेशी फंडिग मिलती होगी तभी ये लोग ऐसा कर रहे है। वरना अगर ये बुद्ध के सच में उपासक है तो क्यों नहीं अपने परम मित्र जय मीम वालों को नवबौद्ध बना दे? लेकिन ऐसा नहीं कर सकते इस कारण बुद्ध के नाम पर सनातन के प्रति नफरत सिखाई जा रही है शायद आगे आने वाले दिनों में इस नफरती फसल अन्य मत के लोग काट लेंगे?
By-Rajeev Choudhary