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क्या ये लड़ाई (इस्लामी हुक़ूमत) के लिए लड़ी जा रही है ?

लम्बे समय से चले आ रहे कश्मीर के जिस संघर्ष को लोग कश्मीर की आजादी से जोड़कर दुष्प्रचार कर रहे थे हिज्बुल मुजाहिदीन कमांडर जाकिर मूसा की ऑडियो क्लिप शायद उन लोगों को मुंह छिपाने को मजबूर कर दिया होगा. हाल ही में हिज्बुल कमांडर ने जिस तरह अपने पांच मिनट के ऑडियो क्लिप में हुर्रियत के नेताओं को धमकी देते चेताया है कि “अगर हुर्रियत नेताओं ने चरमपंथियों की इस्लाम के ख़ातिर लड़ी जा रही लड़ाई में रोड़े अटकाने की कोशिश की तो उनके सिर लाल चौक में कलम कर दिए जांए.” यह लड़ाई हम इस्लाम के लिए लड़ रहे हैं. अगर हुर्रियत नेताओं को ऐसा नहीं लग रहा है, तो हम बचपन से क्यों सुनते आए हैं- कि आजादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह

जाकिर मूसा के बयान के बाद इसे बिलकुल ऐसी ही लड़ाई कह सकते है जैसे लादेन लड़ रहा था, या बगदादी, या अनेकों इस्लामिक चरमपंथी संगठन लड़ रहे है. बस फर्क इतना है उनका स्तर बहुत बड़ा है और इनका अभी कुछ छोटा बाकि मानसिकता समान कही जा सकती है. जिस तरह इस ऑडियो में जाकिर मूसा ने कहा है कि “अगर कश्मीर की लड़ाई धार्मिक नहीं है तो फिर इतने समय से हुर्रियत नेता मस्जिदों को कश्मीर की लड़ाई के लिए इस्तेमाल क्यों करते रहे हैं. फिर चरमपंथियों के जनाजों में वह क्यों जाते हैं. ये लड़ाई (इस्लामी हुक़ूमत) के लिए लड़ी जा रही है.”

शायद अब वामपंथी नेता कविता क्रष्णनन और वह मानवाधिकार आयोग के विश्लेषक जो अभी पिछले दिनों  कश्मीर में इन्टरनेट बंद होने के कारण संयुक्त राष्ट्र में आंसू बहाकर इन्टरनेट को बंद करना भी मानवाधिकार पर हमला बता रहा थे वह इस ऑडियो को कई बार सुने और जवाब दे कि मात्र कुछ लोगों के मजहबी जूनून के कारण भारत अपने लोकतंत्र को मजहबी मानसिकता की आग की भट्टी में क्यों झोंक दे? आखिर भारत अपने लोकतंत्र की रक्षा अपने हितों रखरखाव क्यों न करें? दूसरी बात आज कश्मीरी कौनसी आजादी की बात कर रहे है? वो कट्टर मजहबी आजादी जिसने सीरिया, यमन, अफगानिस्तान, इराक आदि देश तबाह कर डाले? मूसा ने अलगावादी नेताओं के मुंह पर सही तमाचा लगाया कि यह धर्मनिपेक्ष लड़ाई नहीं है.

सब जानते है कि यह सिर्फ मजहबी उन्माद है वरना वहां सिख, जैन बोद्ध हिन्दू ईसाई आदि समुदाय से तो कोई आजादी की आवाज नहीं आती क्यों? बुरहान वानी की मौत के बाद अचानक उपजी हिंसा के बाद जब पत्थरबाजी का दौर चला उसकी बखिया उधेड़ते हुए तब भारत के एक प्रसिद्ध न्यूज चैनल ने वहां की हिंसा मुख्य कारण यही बताया था जो आज जाकिर मूसा बता रहा है. किस तरह वहां कदम-कदम पर खड़ी की गयी मस्जिदों और मदरसों को संचालित करने वाले लोग इस हिंसा में अपनी भूमिका निभा रहे है. लेखक विचारक तुफैल अहमद इस पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखते हुए कहते है कि कुरान में ऐसी बहुत सी आयतें हैं जिनका अर्थ अलग-अलग समझाया जाता रहा है जैसे आयत 9:14 कहती है: उनके खिलाफ लड़ो. तुम्हारे हाथों से अल्लाह उन्हें तबाह कर देगा और लज्जित करेगा, उनके खिलाफ तुम्हारी मदद करेगा, और मुसलमानों की छातियों पर मरहम लगाएगा.” कुछ लेखक आयत 2:256 का भी हवाला देते हैं जो कहती है: धर्म में कोई मजबूरी नहीं है.” तुफैल आगे लिखते है कि जिहादी तर्क देते हैं कि यह आयत गैर मुसलमानों पर लागू होती है जिन्हें शरिया शासन के तहत रहना चाहिए. पाकिस्तान में रहने वाले एक बर्मी चरमपंथी मुफ्ती अबुजार अजाम का स्पष्टीकरण है कि इस आयत के अनुसार, किसी भी ईसाई, यहूदी या गैर मुसमलान को इस्लाम कबूल करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, लेकिन उसकी दलील है कि जब मुसलमान जंग के लिए आगे बढ़ें तो उन्हें सबसे पहले दावा  करना (यानी गैर मुसलमानों को इस्लाम में आने का न्यौता देना) चाहिए, अगर वे इसे कबूल नहीं करते हैं तो फिर लडाई शुरू होनी चाहिए. हालांकि सब कश्मीरी इन लोगों के इस बहकावे में नहीं आते इनके बाद वहां बड़ा हिस्सा भारत को अपना देश मानता है और आजादी को मात्र एक राजनीतिक ढकोसला. इसका सबसे बड़ा उदहारण यह है कि अगर वहां आजादी के नाम पर बुरहान वानी जैसे आतंकी जन्म लेते है तो हमें गर्व है कि वहां उमर फय्याज जैसे राष्ट्रभक्त भी जन्म लेते है.

असल में कश्मीर में कोई समस्या नहीं है वहां समस्या इस्लाम के नाम पर पैदा की जाती रही है. चाहें इसमें 90 के दशक का पंडित भगाओ का आन्दोलन रहा हो या आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद उपजा पत्थरबाजी का दौर. मुख्य रूप से इसके हमेशा से तीन कारक उत्तरदायी हैं. कश्मीर के बारे में पाकिस्तान का जुनून, जम्मू कश्मीर सरकार का बहुत ज्यादा राजनीतिक कुप्रबंधन और राज्य में कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा का उदय. शायद यह तीनों समस्या कहीं ना कहीं एक साथ मूसा के बयान से जुडी नजर भी आती है.

पाकिस्तान कश्मीर भूभाग पर इस्लाम की आड़ लेकर भारत के अधिकार को लगातार चुनौती देता आया है. भारत को बांटने और कश्मीर पर कब्जा करने के उसके रणनीतिक मकसद ने भारत के खिलाफ आतंकवाद को समर्थन देने की उसकी नीति को जन्म दिया है. अत: इस बात को नाकारा नहीं जा सकता कि कश्मीर मामले की जड़े कट्टरपंथी इस्लाम में भी हैं आज कश्मीरी नौजवानों के बीच ‘आजादी‘ का नारा लोकप्रिय होकर उन्हें बड़ी संख्या में संगठित कर रहा है. आतंकवादियों और अलगाववादियों द्वारा सोशल मीडिया के दुरूपयोग ने लोगों को ज्यादा उग्र बनाया है, जिससे भारत के समक्ष बड़ी चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं. लेकिन इस सब के बावजूद में इसे अच्छी खबर मानता हूँ कि जिस लड़ाई को वर्षो से राजनेता और मीडिया आजादी की लड़ाई बता रही थी जाकिर मूसा ने एक पल में चरमपंथ का एजेंडा सामने रखकर सबके दावे खोखले कर दिए.

 राजीव चौधरी

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