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क्या वेदों में अश्लीलता हैं?

वेदों के विषय में कुछ लोगों को यह भ्रान्ति हैं की वेदों में धार्मिक ग्रन्थ होते हुए भी अश्लीलता का वर्णन है। इस विषय को समझने की पर्याप्त आवश्यकता है क्यूंकि इस भ्रान्ति के कारण वेदों के प्रति साधारण जनमानस में आस्था एवं विश्वास प्रभावित होते है।
 पश्चिमी विद्वान ग्रिफ्फिथ महोदय ने इस विषय में ऋग्वेद 1/126 सूक्त के सात में पाँच मन्त्रों का भाष्य करने के पश्चात अंतिम दो मन्त्रों का भाष्य नहीं किया हैं एवं परिशिष्ठ में इनका लेटिन भाषा में अनुवाद देकर इस विषय में टिप्पणी लिखी हैं की इन्हें पढ़कर ऐसा लगता हैं कि मानो ये मंत्र किसी असभ्य उच्छृंखल, बेलगाम मनमौजी गडरियें के प्रेमगीत के अंश हो[i] ।
ग्रिफ्फिथ महोदय अपने यजुर्वेद के भाष्य में भी 23 वें अध्याय के 19 वें मंत्र के पश्चात सीधे 32 वें मंत्र के भाष्य पर आ जाते हैं। 20 वें मंत्र के विषय में उनकी टिप्पणी हैं की यह और इसके अगले 9 मंत्र यूरोप की किसी भी सभ्य भाषा में वर्णन करने योग्य नहीं हैं। एवं 30 वें तथा 31 वें मंत्र का इन्हें पढ़े बिना कोई लाभ नहीं हैं[ii]।
विदेशी विद्वान वेद के जिन मन्त्रों में अश्लीलता का वर्णन करते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
ऋग्वेद 1/126/6-7
ऋग्वेद 1/164/33 और ऋग्वेद 3/31/1
यजुर्वेद 23-22,23
अथर्ववेद 1//11/ 3-6
अथर्ववेद 4//4/ 3-8
अथर्ववेद 6//72/ 1-3
अथर्ववेद 6/101/1-3
अथर्ववेद 6/138/4-5
अथर्ववेद 7/35/2-3
अथर्ववेद 7/90/ 3
अथर्ववेद 20/126/16-17
अथर्ववेद कांड 20 सूक्त 136 मंत्र 1-16
शंका  1- वेदोंमेंअश्लीलताहोनेकेकारणहै?
समाधान- यह प्रश्न ही भ्रामक है क्यूंकि वेदों में किसी भी प्रकार की अश्लीलता नहीं है। संस्कृत भाषा में यौगिक , रूढ़ि एवं योगरूढ़ तीन प्रकार के शब्द होते हैं।  वैदिक काल में अनेक ऐसे शब्द प्रचलित थे जिन्हे सर्वदा श्लील (शालीन) माना जाता था और उनका संपर्क कुत्सित भावों से करने की प्रवृति न थी। ये शब्द है लिंग, शिश्न, योनि, गर्भ, रेत, मिथुन आदि। आजकल भी इन शब्दों को हम सामान्य भाव से ग्रहण करते हैं जैसे लिंग का प्रयोग पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग में किया जाता हैं। योनि का प्रयोग मनुष्य योनि एवं पशु योनि में भेद करने के लिए प्रयुक्त होता हैं, गर्भ शब्द का प्रयोग पृथ्वी के गर्भ एवं हिरण्यगर्भ के लिए प्रयुक्त होता हैं। इस प्रकार से अनेक शब्दों के उदहारण लौकिक और वैदिक साहित्य से दिए जा सकते है जिनमें सभ्य व्यक्ति अश्लीलता नहीं देखते। श्लीलता एवं अश्लीलता में केवल मनोवृति का अंतर हैं। ऊपर में जिस प्रकार शब्दों के रूढ़ि अर्थों का ग्रहण किया गया हैं उसी प्रकार से कुछ स्थानों पर शब्दों के यौगिक अर्थों का भी ग्रहण होता हैं। जैसे ‘माता की रज को सिर में धारण करो’ का तात्पर्य पग धूलि हैं न की माता के ‘रजस्वला’ भाव से प्रार्थना की गई हैं। इस प्रकार से शब्दों के अर्थों के अनुकूल एवं उचित प्रयोग करने से ही तथ्य का सही भाव ज्ञात होता हैं अन्यथा यह केवल अश्लीलता रूपी भ्रान्ति को बढ़ावा देने के समान है। इस भ्रान्ति का एक कारण कुछ मन्त्रों में अर्थों का अस्वाभाविक एवं पक्षपातपूर्ण प्रयोग करके उनमें व्यभिचार अथवा अश्लीलता को दर्शाना है। एक  कारण तथ्य को गलत परिपेक्ष में समझना है। एक उदहारण लीजिये की जिस प्रकार से चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों में मानव गुप्तेन्द्रियों के चित्र को देखकर कोई यह नहीं कहता की यह अश्लीलता है क्यूंकि उनका प्रयोजन शिक्षा है उसी प्रकार से वेद ईश्वरीय प्रदत ज्ञान पुस्तक है इसलिए उसमें जो जो बातें हैं वे शिक्षा देने के लिए लिखी गई हैं। इसलिए उनमें अश्लीलता को मानना भ्रान्ति है।
शंका2 – अगरवेदोंमेंअश्लीलतानहींहैतोफिरअनेकमन्त्रोंमेंक्योंप्रतीतहोताहैं?
समाधान- वेदों में अश्लीलता प्रतीत होने का प्रमुख कारण विनियोगकारों, अनुक्रमणिककारों, सायण,महीधर जैसे भाष्यकारों और उनका अनुसरण करने वाले पश्चिमी और कुछ भारतीय लेखक हैं। यदि स्वामी दयानंद और यास्काचार्य की पद्यति से शब्दों के सत्य अर्थ पर विचार कर मन्त्रों के तात्पर्य को समझा जाता तो वेद मन्त्रों में ज्ञान-विज्ञान के विरुद्ध कुछ भी न मिलता। कुछ उदहारण से हम इस संख्या का निवारण करेंगे।
ऋग्वेद 1/126 के छठे और सातवें मंत्र का सायणाचार्य, स्कंदस्वामी आदि ने राजा भावयव्य और उनकी पत्नी रोमशा के मध्य संभोग की इच्छा को लेकर अत्यंत अश्लील संवाद का वर्णन मिलता है। पाठक सम्बंधित भाष्यकारों के भाष्य में देख सकते है। वही इसी मंत्र का अर्थ स्वामी दयानंद सुन्दर एवं शिक्षाप्रद रूप से इस प्रकार से करते है। स्वामी जी इस मंत्र में राजा (जो उत्तम गुण सीखा सके और सब लोग जिसे ग्रहण करके उस पर सुगमता से चल सके) के प्रजा के प्रति कर्तव्य का वर्णन करते हुए व्यवहारशील एवं प्रयत्नशील प्रजा को सैकड़ों प्रकार के भोज्य पदार्थ  दे सकने वाली  राजनीती करने की सलाह देते है। इससे अगले मंत्र में राजा कि भांति उसकी पत्नी  विदुषी और राजनीति में निपुण होने तथा प्रजा विशेष रूप से स्त्रियों का न्याय करने में राजा का सहयोगी बनने का सन्देश है।
ऋग्वेद 1/164/33 और ऋग्वेद 3/3/11 में प्रजापति का अपनी दुहिता (पुत्री) उषा और प्रकाश से सम्भोग की इच्छा करना बताया गया हैं जिसे रूद्र ने विफल कर दिया जिससे की प्रजापति का वीर्य धरती पर गिर कर नाश हो गया ऐसे अश्लील अर्थो को दिखाकर विधर्मी लोग वेदों में पिता-पुत्री के अनैतिक संबंधो पर आक्षेप करते हैं।
स्वामी दयानंद इन मंत्रो का निरुक्त एवं शतपथ का प्रमाण देते हुए अर्थ करते हैं की प्रजापति कहते हैं सूर्य को और उसकी दो पुत्री उषा (प्रात काल में दिखने वाली लालिमा) और प्रकाश हैं। सभी लोकों को सुख देने के कारण सूर्य पिता के सामान है और मान्य का हेतु होने से पृथ्वी माता के सामान है।  जिस प्रकार दो सेना आमने सामने होती हैं उसी प्रकार सूर्य और पृथ्वी आमने सामने हैं और प्रजापति पिता सूर्य मेघ रूपी वीर्य से पृथ्वी माता पर गर्भ स्थापना करता है जिससे अनेक औषिधिया आदि उत्पन्न होते हैं जिससे जगत का पालन होता है। यहाँ रूपक अलंकार है जिसके वास्तविक अर्थ को न समझ कर प्रजापति की अपनी पुत्रियो से अनैतिक सम्बन्ध की कहानी बना दी गई।
इन्द्र अहिल्या की कथा का उल्लेख ब्राह्मण ,रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रंथो में मिलता हैं जिसमें कहा गया हैं की स्वर्ग का राजा इन्द्र गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या पर आसक्त होकर उससे सम्भोग कर बैठता हैं। उन दोनों को एकांत में गौतम ऋषि देख लेते हैं और शाप देकर इन्द्र को हज़ार नेत्रों वाला और अहिल्या को पत्थर में बदल देते है। अपनी गलती मानकर अहिल्या गौतम ऋषि से शाप की निवृति के लिया प्रार्थना करती है तो वे कहते है की जब श्री राम अपने पैर तुमसे लगायेगे तब तुम शाप से मुक्त हो जायोगी। इस कथा का अलंकारिक अर्थ इस प्रकार है।  यहाँ इन्द्र सूर्य हैं, अहिल्या रात्रि हैं और गौतम चंद्रमा है। चंद्रमा रूपी गौतम रात्रि अहिल्या के साथ मिलकर प्राणियो को सुख पहुचातें हैं।  इन्द्र यानि सूर्य के प्रकाश से रात्रि निवृत हो जाती हैं अर्थात गौतम और अहिल्या का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है।
यजुर्वेद के 23/19-31 मन्त्रों में अश्वमेध यज्ञ परक अर्थों में महीधर के अश्लील अर्थ को देखकर अत्यंत अप्रीति होती है। इन मन्त्रों में यजमान राजा कि पत्नी द्वारा अश्व का लिंग पकड़ कर उसे योनि में डालने, पुरोहित द्वारा राजा की पत्नियों के संग अश्लील उपहास करने का अश्लील वर्णन हैं। पाठक सम्बंधित भाष्यकार के भाष्य में देख सकते है। स्वामी दयानंद ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में इन मन्त्रों का पवित्र अर्थ इस प्रकार से किया है। राजा प्रजा हम दोनों मिल के धर्म, अर्थ। काम और मोक्ष की सिद्धि के प्रचार करने में सदा प्रवृत रहें। किस प्रयोजन के लिए? कि दोनों की अत्यंत सुखस्वरूप स्वर्गलोक में प्रिया आनंद की स्थिति के लिए, जिससे हम दोनों परस्पर तथा सब प्राणियों को सुख से परिपूर्ण कर देवें। जिस राज्य में मनुष्य लोग अच्छी प्रकार ईश्वर को जानते है, वही देश सुखयुक्त होता है। इससे राजा और प्रजा परस्पर सुख के लिए सद्गुणों के उपदेशक पुरुष की सदा सेवा करें और विद्या तथा बल को सदा बढ़ावें। कहाँ स्वामी दयानंद का उत्कृष्ट अर्थ और कहाँ महीधर का निकृष्ट और महाभ्रष्ट अर्थ!
ऋग्वेद 7/33/11 के आधार पर एक कथा प्रचलित कर दी गयी की मित्र-वरुण का उर्वशी अप्सरा को देख कर वीर्य स्खलित  हो गया।  वह घड़े में जा गिरा जिससे वसिष्ठ ऋषि पैदा हुए।  ऐसी अश्लील कथा से पढ़ने वाले की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है।
इस मंत्र का उचित अर्थ इस प्रकार है। अथर्व वेद 5/19/15 के आधार पर मित्र और वरुण वर्षा के अधिपति यानि वायु माने गए है , ऋग्वेद 5/41/18 के अनुसार उर्वशी बिजली हैं और वसिष्ठ वर्षा का जल है।  यानि जब आकाश में ठंडी- गर्म हवाओं (मित्र-वरुण) का मेल होता हैं तो आकाश में बिजली (उर्वशी) चमकती हैं और वर्षा (वसिष्ठ) की उत्पत्ति होती है।  इस मंत्र का सत्य अर्थ पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है।
इस प्रकार से वेदों में जिन जिन मन्त्रों पर अश्लीलता का आक्षेप लगता है उसका कारण मन्त्रों के गलत अर्थ करना हैं। अधिक जानकारी के लिए स्वामी दयानंद[iii], विश्वनाथ वेदालंकार[iv] ,आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति[v], धर्मदेव विद्यामार्तंड[vi], स्वामी सत्यप्रकाश[vii],डॉ ज्वलंत कुमार शास्त्री[viii] आदि विद्वतगण की रचना महत्वपूर्ण है जिनकी पर्याप्त सहायता इस लेख में ली गई हैं।
शंका  3- वेदोंमेंयमयमीजोकिभाईबहनहैंउनकेमध्यअश्लीलसंवादहोनेसेआपक्यासमझतेहै 

समाधान- वेदों के विषय में अपने विचार प्रकट करते समय पाश्चात्य एवं अनेक भारतीय विद्वानों ने पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने के कारण वेदों के सत्य ज्ञान को प्रचारित करने के स्थान पर अनेक भ्रामक तथ्यों को प्रचारित करने में अपना सारा श्रम व्यर्थ कर दिया ।यम यमी सूक्त के विषय में इन्ही तथाकथित विद्वानों की मान्यताये इसी भ्रामक प्रचार का नतीजा हैं। दरअसल विकासवाद की विचारधारा को सिद्ध करने के प्रयासों ने इन लेखकों को यह कहने पर मजबूर किया की आदि काल में मानव अत्यन्य अशिक्षित एवं जंगली था। विवाह सम्बन्ध, परिवार, रिश्ते नाते आदि का प्रचलन बाद के काल में हुआ।

श्रीपाद अमृत डांगे में लिखते हैं – “इस प्रकार के गुणों में परस्पर भिन्न नातों तथा स्त्री पुरुष संबंधों की जानकारी न होना स्वाभाविक ही था। परन्तु इस प्रकार का अनियंत्रित सम्बन्ध संतति विकसन के लिए हानिकारक होने के कारण सर्व्रथम माता-पिता एवं उनके बाल बच्चों का बीच सम्भोग पर नियंत्रण उपस्थित किया गया और इस प्रकार कुटुंब व्यस्था की नींव रखी गई। यहाँ विवाह की व्यवस्था कुटुम्भ के अनुसार होनी थी, अर्थात समस्त दादा दादी परस्पर एक दुसरे के पति पत्नी हो सकते थे। उसी प्रकार उनके लड़के लड़कियां अर्थात समस्त माता पिता एक दूसरे के पति पत्नी हो सकते थे । सगे व चचेरे भाई-बहिन सब सुविधानुसार एक दूसरे के पति पत्नी हो सकते थे। आगे चलकर भाई और बहिन के बीच निषेध उत्पन्न किया गया ।परन्तु उस नवीन  सम्बन्ध का विकास बहुत ही मंदगति से हुआ और उसमें अड़चन भी बहुत हुई, क्यूंकि समान वय के स्त्री पुरुषों के बीच यह एक अपरिचित सम्बन्ध था ।एक ही माँ के पेट से उत्पन्न हुई सगी बहिन से प्रारंभ कर इस सम्बन्ध का धीरे धीरे विकास किया गया। परन्तु इसमें कितनी कठिनाई हुई होगी, इसकी कल्पना ऋग्वेद के यम-यमी सूक्त से स्पष्ट हो जाती हैं। यम की बहिन यमी अपने भाई से प्रेम एवं संतति की याचना करती हैं। परन्तु यम यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देता हैं की देवताओं के श्रेष्ठ पहरेदार वरुण देख लेंगे एवं क्रुद्ध हो जायेंगे। इसके विपरीत यमी कहती हैं की वे इसके लिए अपना आशीर्वाद देंगे। इस संवाद का अंत कैसे हुआ, यह प्रसंग तो ऋग्वेद में नहीं हैं, परन्तु यदि यह मान लिया जाये की अंत में यम ने यह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया तो भी यह स्पष्ट हैं की प्राचीन परिपाटी को तोड़ने में कितनी कठिनाई का अनुभव हुआ होगा[ix]।
यम यमी सूक्त ऋग्वेद[x] और अथर्ववेद[xi] में आता हैं। डांगे विदेशी विद्वानों की सोच का ही अनुसरण करते दिख रहे हैं। यम यमी सूक्त का मूल भाव भाई-बहन के संवाद के माध्यम से शिक्षा देना हैं। यम और यमी दिन और रात हैं, दोनों जड़ है। इन्ही दोनों जड़ों को भाई बहन मानकर वेद ने एक धर्म विशेष का उपदेश किया हैं। अलंकार के रूपक से दोनों में बातचीत हैं। यमी यम से कहती हैं की आप मेरे साथ विवाह कीजिये पर यम कहता हैं की-
बहिन के साथ कुत्सित व्यवहार करने से पाप होता हैं। पुराकाल में कभी भाई बहिन का विवाह नहीं हुआ, इसलिए तू दुसरे पुरुष को पति बना। परमात्मा ने जड़ प्रकृति का उदहारण देकर लोगों को यह सूचित करा दिया हैं की एक जड़ स्त्री के कहने पर भी पाप के डर  से परम्परा की शिक्षा से प्रेरित होकर एक जड़ पुरुष जब इस प्रकार के पाप कर्म को करने से इंकार करता हैं, तब चेतन ज्ञानवान मनुष्य को भी चाहिए की वह भी इस प्रकार का कर्म कभी न करे[xii]।
वेदों में बहिन भाई के व्यभिचार का कितना कठोर दंड हैं तो श्रीपाद डांगे का यह कथन की यम यमी सूक्त में बहन भाई के व्यभिचार का वर्णन हैं अज्ञानता मात्र हैं।  देखें-
ऋग्वेद[xiii] और अथर्ववेद[xiv] में आता हैं जो तेरा भाई तेरा पति होकर जार कर्म करता हैं और तेरी संतान को मरता हैं, उसका हम नाश करते हैं।
अथर्ववेद[xv] में आता हैं यदि तुझे सोते समय (स्वपन में) तेरा भाई अथवा तेरा पिता भूलकर भी प्राप्त हो तो वे दोनों गुप्त पापी औषधि प्रयोग से नपुंसक करके मार डाले जाएँ।
आगे श्रीपाद डांगे का यह कथन की विवाह, रिश्ते आदि से मनुष्य जाति वैदिक काल में अनभिज्ञ थी भी अज्ञानता मात्र हैं। ऋग्वेद के विवाह सूक्त[xvi], अथर्ववेद[xvii] में पाणिग्रहण अर्थात विवाह विधि, वैवाहिक प्रतिज्ञाएँ, पति पत्नी सम्बन्ध, योग्य संतान का निर्माण, दाम्पत्य जीवन, गृह प्रबंध एवं गृहस्थ धर्म का स्वरुप देखने को मिलता हैं, जो विश्व की किसी अन्य सभ्यता में अन्यंत्र ही मिले।
वैदिक काल के आर्यों के गृहस्थ विज्ञान की विशेषता को जानकार श्रीमति एनी बेसंत ने लिखा हैं-  भूमंडल के किसी भी देश में, संसार की किसी भी जाति में, किसी भी धर्म में विवाह का महत्व ऐसा गंभीर एवं ऐसा पवित्र नहीं हैं, जैसे प्राचीन आर्ष ग्रंथों में पाया जाता हैं[xviii] । यम यमी सूक्त एक आदर्श को स्थापित करने का सन्देश हैं नाकि भाई-बहन के मध्य अनैतिक सम्बन्ध का विवरण हैं।

शंका 4- क्याअथर्ववेदमेंवर्णितगर्भाधान, प्रसवविद्याआदि = कीप्रक्रियाकावर्णनअश्लीलनहींहै?

समाधान- सभी मनुष्यों के कल्याणार्थ ईश्वर द्वारा वेदों में गृहस्थाश्रम में पालन हेतु संतान उत्पत्ति हेतु अथर्ववेद के 14 वें कांड के 2 सूक्त  के 31,32, 38 और 39 मन्त्रों में गर्भाधान की प्रक्रिया का वर्णन है। यह वर्णन ठीक इस प्रकार से है जैसा चिकित्सा विज्ञान के पुस्तकों में वर्णित होता है एवं उसे कोई भी अश्लील नहीं मानता। इसी प्रकार से अथर्ववेद के पहले कांड 11 वें सूक्त में प्रसव विद्या का वर्णन लाभार्थ वर्णित है। ग्रिफ्फिथ महोदय इन मन्त्रों को अश्लील मानते हुए अवांछनीय टिप्पणी लिख देते है[xix]। अब कोई ग्रिफ्फिथ साहिब से पूछे कि चिकित्सा विज्ञान में जब अध्यापक छात्रों को प्रसव प्रक्रिया पढ़ाते है तो क्या योनि, गर्भ, लिंग आदि शब्द अश्लील प्रतीत होते हैं। उत्तर स्पर्श है कदापि नहीं अंतर केवल मनोवृति का है। इन मन्त्रों में कहीं भी अनाचार, व्यभिचार आदि का वर्णन नहीं हैं यही अंतर इन्हें अश्लील से श्लील बनता हैं।

 


 

[i]  I subjoin a Latin version of the two stanzas omitted in my translation. They are in a different metre from the rest of the Hymn, having no apparent connection with what precedes and look like a fragment of a liberal shepherd’s love song. Appendix 1, The Hymns of the Rigveda, 1889 by Ralph T.H.Griffith.
[ii] This and the following nine stanzas are not reproducible even in the semi-obscurity of a learned European language; and stanzas 30, 31 would be unintelligible without them.p.231, White Yajurveda by Ralph T.H.Griffith.
[iii] ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यजुर्वेदभाष्य ,ऋग्वेदभाष्य
[iv] अथर्ववेद भाष्य प्रकाशक- रामलाल कपूर ट्रस्ट
[v] वेद और उसकी वैज्ञानिकता भारतीय मनीषा के परिपेक्ष में- गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय
[vi] वेदों का यथार्थ स्वरुप- समर्पण शोध संस्थान
[vii] वेदों पर अश्लीलता का व्यर्थ आक्षेप
[viii] वेद और वेदार्थ- श्री घूडमल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास
[ix] Origin of Marriage by Dange
[x] ऋग्वेद 10/10
[xi] अथर्ववेद 18/1
[xii] ऋग्वेद 10/10/10
[xiii] ऋग्वेद 10/162/5
[xiv] अथर्ववेद 20/16/15
[xv] अथर्ववेद 8/6/7
[xvi] ऋग्वेद 10/85
[xvii] अथर्ववेद 14/1, 7/37 एवं 7/38 सूक्त
[xviii] Nowhere in the whole world, nowhere in any religion, a nobler, a more beautiful, a more perfect ideal of marriage than you can find in the early writings of Hindus- Annie Besant
[xix] The details given in the stanza 3-6 are strictly obstetric and not presentable in English.

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