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गुरुकुल, पौंधा-देहरादून में आयोजित 4 दिवसीय स्वाध्याय शिविर

बुरे काम करने और दिखाने के लिए ईश्वर की उपासना करने वाले मनुष्यों को ईश्वर कभी प्राप्त नहीं होताः डा. सोमदेव शास्त्री”
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आज मंगलवार 30 मई, 2017 को गुरुकुल पौंधा, देहरादून में आयोजित 4 दिवसीय ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका स्वाध्याय शिविर दूसरे दिन भी आचार्य डा. सोमनाथ शास्त्री, मुम्बई के पावन सान्निध्य में जारी रहा। शिविर में भाष्य-भूमिका के उपासना विषय का अध्ययन वा स्वाध्याय चल रहा है। प्रथम दिन उपासना विषय के प्रथम 7 मन्त्रों तक का स्वाध्याय सम्पन्न हुआ था। आज आठवें मन्त्र से स्वाध्याय आरम्भ किया गया। शिविर में आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी प्रथम विषय को स्पष्ट करते हैं। उसके बाद मन्त्र को पढ़कर ऋषि दयानन्द द्वारा किये गये मन्त्र के सभी पदों वा शब्दों का अर्थ समझाते हैं। फिर ऋषि द्वारा की गई व्याख्या पर प्रकाश डाला जाता है। उसके बाद मन्त्र के हिन्दी अर्थ को एक श्रोता द्वारा पढ़ा जाता है। श्रोता द्वारा पढ़े गये अर्थों को आचार्य जी और गम्भीरता से समझाते हैं। मन्त्र व उसके अर्थों से संबंधित अन्य बातों को भी आचार्य जी बताते रहते हैं। आचार्य जी जिस प्रकार से वर्णन करते हैं उससे उनके वैदिक एवं ऋषि वांग्मय के गम्भीर ज्ञान का श्रोताओं को ज्ञान होता है। सभी श्रोता इस स्वाध्याय शिविर में भाग लेकर स्वयं को धन्य अनुभव कर रहे हैं। आज प्रातः 10 बजे ऋग्वेदभाष्य-भूमिका के आठवें मन्त्र ‘अष्टाविशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु में। … ’ मन्त्र से पाठ आरम्भ हुआ जो प्रातः एवं अपरान्ह के सत्रों में योगदर्शन के 12 वें सूत्र के अध्ययन तक चला। इस बीच आचार्य जी ने जो महत्वपूर्ण बातें कहीं और जिन्हें हम नोट कर सके, वह प्रस्तुत कर रहे हैं।

आचार्य जी ने कहा कि हमें ईश्वर की हर प्रकार से स्तुति करनी चाहिये। जो हमने ग्रन्थों में पढ़ा है, उसकी बार बार आवृत्ति करनी चाहिये। संसार में ब्रह्म से बड़ा और कोई तत्व नहीं हो सकता। वह सारे संसार को बनाने वाला है। उस परमात्मा को जानकर और उसका निश्चय करके उसे जीवन में सबको धारण करना चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि सब तरफ से अपने मन को हटाके परमात्मा के स्वरूप में उसे स्थित करें। ईश्वर के गुणों को भी हम सबको धारण करना है। परमात्मा सत्य स्वरूप है। हमारे व्यवहार में सत्य होना चाहिये। ऋषि दयानन्द के सत्य के प्रति निष्ठा का उदाहरण देते हुए आचार्य जी ने उन्हीं के कहे शब्दों को स्मरण कराया जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि उन्हें तोप के मुंह से बांध कर पूछा जाये तब भी उनके मुंह से सत्य ही निकलेगा। आचार्य जी ने कहा कि यह सत्य को धारण करने की स्थिति है। उन्होंने कहा कि गलत कामों को करने वाला ईश्वर का उपासक कदापि नहीं हो सकता। जो मनुष्य दिखाने के लिए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं, उन्हें परमात्मा कभी प्राप्त नहीं होता। आचार्य जी ने लौकिक विषयों में मन की एकाग्रता का उदाहरण देते हुए क्रिकेट के खेल और प्रसिद्ध टीवी सीरियलों की चर्चा की। आचार्य जी ने कहा कि जब इन व ऐसे अनेक कार्यों में मन को एकाग्र किया जा सकता है तो ईश्वर की उपासना में मन को एकाग्र क्यों नहीं किया जा सकता? जिस मनुष्य का मन वा अन्तःकरण शुद्ध होता है, वही अपने मन को परमात्मा में लगा सकता है। आचार्य जी ने बताया कि ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका का प्रकाशन एक पत्रिका की तरह मासिक अंकों में हुआ था। जो लोग महर्षि दयानन्द का वेद भाष्य क्रय करते थे उन्हें ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लेना अनिवार्य होता था।

आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई ने बताया कि ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के अंक 13 व 14 में इसके ग्राहकों की एक सूची प्रकाशित हुई थी जिसमें प्रथम स्थान पर प्रोफेसर मैक्समूलर का नाम था। वेदों के अध्येता प्रो. विल्सन का नाम भी ग्राहक सूची में था। आचार्य जी ने कहा कि मैक्समूलर ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य को पढ़कर प्रभावित हुए थे। प्रो. मैक्समूलर भारत में नियुक्त होने वाले सिविल व पुलिस सर्विस के अधिकारियों को भारत आने से पहलेे लैक्चर दिया करते थे। उनके व्याख्यानों का वह संकलन ‘हम भारत से क्या सीखें?’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में मैक्समूलर ने ऋषि दयानन्द और भारत देश की प्राचीन संस्कृति की प्रशंसा की है। आचार्य जी ने यह भी बताया कि प्रो. मैक्समूलर ऋषि दयानन्द की मृत्यु के बाद उनका जीवन चरित लिखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने परोपकारिणी सभा से पत्रव्यवहार भी किया था। खेद है कि परोपकारिणी सभा व पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा व आर्यसमाज के उस समय के प्रमुख विद्वानों ने उन्हें उसका समुचित उत्तर नहीं दिया। आचार्य जी ने कहा कि यदि मैक्समूलर को ऋषि जीवन की जानकारी उपलब्ध कराई जाती और वह जीवन चरित्र लिख देते तो ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का यूरोप में बहुत प्रचार होता।

आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि बिना ऋषि की ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के उनका वेदभाष्य समझ में नहीं आता। आचार्य जी ने 28 नक्षत्रों, गृहों, उपग्रहों, पृथिवी के क्रान्तिवृत आदि की विस्तार से चर्चा की और इसे सभी श्रोताओं को समझाया। आचार्य जी ने कहा कि सूर्य गतिशील है और 25 दिनों में एक चक्र पूरा करता है। सूर्य को वेदों में गृहपति कहा गया है। सूर्य ग्रह नहीं अपितु नक्षत्र है। आचार्य जी ने कहा कि पौराणिकों की 9 ग्रहों की कल्पना व पूजा कराना दोषपूर्ण है। उन्होंने कहा कि राहू और केतू भी ग्रह नहीं हैं अपितु वराह स्मृति के अनुसार यह छाया ग्रह हैं। आचार्य जी ने बताया कि सूर्य और पृथिवी के बीच की दूरी 9.30 करोड़ मील है। पृथिवी और चन्द्र की दूरी का उल्लेख कर आचार्य जी ने कहा कि यह दूरी 2.38 लाख मील है। चन्द्र पृथिवी की दीर्घवृताकार में गति वा परिक्रमा करता है। आचार्य जी ने समुद्र मन्थन का उल्लेख किया, समुद्र मंथन में निकले अमृत का विष्णु द्वारा एक सुन्दर स्त्री मोहिनी का रूप धारण कर छल पूर्वक देवताओं में वितरण करने और देवताओं की चाल को एक राक्षस द्वारा समझकर देवताओं की पंक्तियों में आ बैठने और अमृत प्राप्तकर उसे पी लेने का वर्णन भी किया और कहा कि विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से उसका संहार करने तथा उसका सिर धड़ से अलग होने की पुराण वर्णित कथा पर प्रकाश डाला। पौराणिकों ने उस मृतक राक्षस के सिर को राहू नाम दिया और उसके धड़ का केतु। अतः राहू केतू ग्रह नहीं हो सकते वह तो राक्षस के ही शरीर की उपमायें हैं। इस प्रकार नव ग्रहों में से सूर्य व राहू-केतु के निकल जाने पर ग्रहों की संख्या घट कर 6 ही रह जाती है। अतः पौराणिकों द्वारा 9 ग्रहों का पूजन करना व्यर्थ एवं तथ्यों के विपरीत है। आचार्य जी ने कहा कि 28 नक्षत्र अथर्ववेद में वर्णित हैं जिसमें एक सूर्य नक्षत्र भी सम्मिलित है। उन्होंने कहा कि सूर्य ग्रह नहीं अपितु नक्षत्र है, अतः पौराणिकों द्वारा ग्रहों में सूर्य की गणना करना उचित नहीं है। आचार्य जी ने बताया कि वर्ष में 13.5 दिन धरती किसी एक नक्षत्र के सामने रहती है। चन्द्रमा प्रतिदिन एक नक्षत्र के सामने रहता है। आचार्य जी ने बताया कि पृथिवी जब पूर्णिमा को ज्येष्ठ नक्षत्र के सामने होती है तो वह ज्येष्ठ का महीना कहलाता है। पौराणिक लोग ज्येष्ठ नक्षत्र को अशुभ मानते हैं। अतः उन्होंने कल्पना कर रखी है इस महीने में उत्पन्न होने वाली सन्तानों के परिवारों में नानी, नाना, मामा, मौसी आदि की मृत्यु का कल्पित विधान भी कर रखा है जिसके उपायों के रूप में वह जनता से धन व द्रव्य प्राप्त करते हैं। आर्यसमाजी उनके भ्रमजाल में नहीं फंसते और उन्हें कोई ग्रह पीड़ा नहीं पहुंचाते। आचार्य जी ने अपने साथ रेल में बीती एक घटना भी सुनाई जिसमें एक दम्पती ने बताया कि स्वप्न में सास को मिठाई खाता देखने और एक ज्योतिषी को बताने पर उसे अनेक उपाय करने पड़े थे जिसमें उसका धन व समय व्यर्थ गया था।

आचार्य जी ने कहा कि सभी नक्षत्रों, ग्रहों व उपग्रहों का मनुष्यों के जीवन पर एक जैसा प्रभाव पड़ता है। किसी ग्रह का शुभ व अशुभ प्रभाव किसी मनुष्य पर नहीं पड़ता अतः फलित ज्योति असत्य है। आचार्य जी ने बताया कि नक्षत्रों में एक नक्षत्र अभिजीत नाम का है जिसका प्रकाश पृथिवी पर 21 वर्ष में पहुंचता है। आचार्य जी ने मनुष्य शरीर में 5 ज्ञान इन्द्रियों, पांच कर्म इन्द्रियों, 10 प्राणों और अन्तःकरण चतुष्टय के अंगों मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की चर्चा कर बताया कि यह आत्मा को उसके लक्ष्य तक पहुंचाने के साधन हैं। आचार्य जी ने कहा कि मन संकल्प और विकल्प करता है। सोचता है कि अमुक काम को करूं या न करूं। अहंकार अपने अस्तित्व को बताने वाला है। मनुष्य का चित्त अपने अन्दर कर्मों से उत्पन्न संस्कारों को सुरक्षित रखता है। बुद्धि निर्णय करने का काम करती है और आत्मा के सबसे निकट रहती है। बुद्धि के बाद चित्त, फिर अहंकार और इसके बाद मन होता है। योग-क्षेम की चर्चा कर आचार्य जी ने बताया कि योग अप्राप्त को प्राप्त करने को कहते हैं जबकि क्षेम प्राप्त हुए की रक्षा करने को कहते हैं। ईश्वर हमारी बुद्धि, वाणी और कर्मों का रक्षक है। हितकारी कर्मों का फल सुख व अहितकारी कर्मों का फल दुःख के रूप में मिलता है। उन्होंने कहा कि जो मनुष्य यशस्वी होता है, उसकी अनुपस्थिति में दूसरे लोग उसकी प्रशंसा किया करते हैं। आचार्य जी ने कहा कि दयानन्द जी के जीवन काल में कोई विरोधी भी उन पर कलंक नहीं लगा सका। उन्होंने कहा कि यश बड़ी तपस्या के बाद मिलता है। शत्रु भी यशस्वी मनुष्यों की प्रशंसा किया करते हैं। आचार्य जी ने बताया कि नम्रता का गुण भी बड़ी तपस्या करने पर प्राप्त होता है। शरीर का तप गुरुजनों की सेवा करना है। मौन रहना वाणी का तप नहीं है अपितु असत्य भाषण व गालियां आदि न देना वाणी का तप है। आचार्य जी ने वाराणसी के एक पौराणिक संस्कृतज्ञ विद्वान की चर्चा की जो सात वर्षों तक मौन व्रत धारा करे रहे और उसके बाद उनकी जिह्वा आदि अवयवों ने बोलने का काम ही बन्द कर दिया। तब वह चाह कर भी बोल नहीं पाते थे। अपने साथ उनसे हुए संवाद पर भी आचार्य जी ने प्रकाश डाला। आचार्य जी ने कहा कि वेदों का स्वाध्याय करना और उसे आचरण में लाकर प्रचार करना वाणी का तप है। ओ३म् का जप करना भी उन्होंने तप बताया। तप वह साधन है जिससे मनुष्य का जीवन चमक उठता है। आचार्य जी ने बताया कि मनुष्य को ब्रह्मवर्चसता ईश्वर के पास बैठकर साधना करने से प्राप्त होती है। उन्होंने कहा कि साधु वह होता है जो भोजन के स्वाद से ऊपर उठा हुआ होता है। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का इस विषयक एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि एक बार गलती से एक गृहस्थी ने खीर में चीनी के स्थान पर नमक डाल कर उन्हें दी, जिसे उन्होंने खा लिया। बाद में उस गृहस्थी को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। इसके साथ ही प्रातः 10 बजे से आरम्भ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका स्वाध्याय शिविर का पूर्वान्ह का सत्र सम्पन्न हुआ। दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के अधिकारी श्री सुखवीर सिह आर्य जी ने आचार्य जी का धन्यवाद किया और अपरान्ह के कार्यक्रमों की सूचना देने के साथ अनुरोध किया कि सभी श्रोता समय पर सभी आयोजन में पहुंच जायें। शान्ति पाठ के साथ यह सत्र सम्पन्न हुआ। आज के सत्र में देश के अनेक भागों से आये ऋषि भक्त स्त्री व पुरुष बड़ी संख्या में सम्मिलित थे।

-मनमोहन कुमार आर्य

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