Categories

Posts

चिंता दलितों की है या वोटों की

अक्सर राजनेताओं का दलित प्रेम तभी जागता है जब चुनाव नजदीक हों. लेकिन हकीकत ये है कि ये सियासी लोग दलितों की वोट तो चाहते हैं लेकिन उनकी चिंता नहीं करते. भारतीय आबादी में दलितों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है. आंकड़ों के मुताबिक लगभग 16.6 भारतीय आबादी अनुसूचित जाति की है. इसके अलावा लगभग 8.6 भारतीय आबादी अनुसूचित जनजाति की है. इसीलिए ज्यादातर नेता दलितों को वोट बैंक की तरह ही इस्तेमाल करते आये हैं.

स्वतन्त्रता से पहले और स्वतंत्रता के बाद भारत में बहुत दलित नेता हुए जिनमें गुरु रविदास, ज्योतिबा फुले, पेरियार, बाबा अम्बेडकर, बाबु जगजीवन राम, कांशीराम, मायावती और अब 14 वें राष्ट्रपति महामहिम रामनाथ कोविंद. आज देश के प्रथम नागरिक के पद से लेकर देश की संसद में करीब 50 से अधिक दलित सांसद, कई राज्यसभा सांसद के अलावा कई सौ दलित विधायक विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे है. इसके बावजूद भी अचानक से बीते कुछ वक्त में देश में दलितों पर अत्याचारों को लेकर कई छोटे-बड़े प्रदर्शन हुए. राजनीति हुई आन्दोलन हुए, उनके के हितों का मुखोटा लगाये हुए छोटे बड़े दलित गैर दलित नेता बाहर आये और दलित उत्पीडन को सीधे कथित उच्च वर्ग से जोड़कर अपने कर्तव्यों से इतिश्री कर लेते ली या फिर धर्म परिवर्तन की धमकी दी गयी.

इससे सब से ऐसा लगता है जैसे समूचे वर्ग का उत्पीडन हो रहा है और करने वाला एक समूचा कथित उच्च वर्ग है.? जबकि अधिकांश मामलों में यह सिर्फ अशिक्षितों पर अशिक्षितो का हमला है, साथ ही एक सवाल यह भी है कि क्या धर्मांतरण के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है हालाँकि धर्म परिवर्तन के शिकार ज्यादातर वे ही लोग होते हैं जी गरीब हैं और दलित और आदिवासी समुदायों से सम्बन्ध रखते हैं. यह बात अलग है कि धर्म परिवर्तन के बावजूद वे या तो दलित मुस्लिम या फिर दलित इसाई कहलाते हैं. कुल मिलाकर धर्म परिवर्तन करने के बावजूद भी उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं होता है. देश के कई हिस्सों में आदिवासियों को बड़े स्तर पर इस धर्म से उस धर्म में खींचने का प्रयास चलता रहता है. उनके मोक्ष चिंता सबको होती है लेकिन सामाजिक सुधारों की चिंता किसी को नहीं.

अभी पिछले दिनों भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता और पूर्व सांसद विजय सोनकर शास्त्री जी ने अपने लेख था कि दलित समस्या का एकमात्र उपाय इनको हिन्दू समाज में आत्मसात करने का है, न की धर्मपरिवर्तन शिया-सुन्नी या प्रोटेस्टेंट- कैथोलिक जैसे अलग सम्प्रदाय बनाना. लगभग आठ सौ बर्षों से यह दुर्भाग्यपूर्ण कुकृत्य कुछ लोगों के साथ हुआ. एक स्वाभिमानी, धर्माभिमानी कौम को यह सजा मुगल काल में मिली वरना वे भी ब्राह्मण और क्षत्रिय ही थे. जिन्हें आज दलित के रूप में चिन्हित किया गया है. वास्तव में एक ब्राह्मण भी निर्धन हो सकता है. आवास रहित हो सकता है.  कपड़े का उसको भी आभाव हो सकता है, यानी मूलभूत आवश्यकता की वस्तुएं वस्तुओं से वंचित हो सकता है. ऐसी ही अन्य जातियों की भी स्थिति है. परन्तु क्या कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या अन्य सामान्य वर्ग या जाति के लोग दलित हो सकते हैं? दलित का मतलब  सामाजिक व्यवस्था में निम्न एवं अस्पृश्य माना जाता है. यह सामान्य लोगों की सोच बदल जाये तो आरक्षण का कोई ओचित्य ही नहीं रह जायेगा.

देखा जाएँ तो पिछले 30 से 35 सालों में देश में दलित राजनीति करने वाले नेताओं के हालात खूब अच्छी तरह बदल गए हैं. कानून, संविधान का अधिकार पा कर दलित समाज का एक तबका भले ही आगे बढ़ गया हो, पर समाज का एक बड़ा हिस्सा बेहद खराब हालत में जी रहा है. वह ईंट भट्टों पर मजदूरी से लेकर खेतों आदि में आज भी मेहनत मजदूरी करते आसानी से दिख रहा है. इनमें अधिकांश दलितों के बच्चे स्कूल ही नहीं जाते हैं. वे बचपन से ही मेहनत मजदूरी करने लगते हैं. कई जगह कम उम्र में पूरी खुराक न मिलना और हाडतोड़ मेहनत उन्हें कई तरह की बिमारियों की तरफ भी खींच ले जाती है. इस से साफ लगता है कि देश भले ही तरक्की की राह पर हो, पर सामाजिक और आर्थिक सुधारों की दिशा में भागते हुए भारत में दलित अभी भी बहुत पीछे हैं.

इस से एक बात साफ समझ में आ रही है कि राजनीतिक सत्ता भर पाने से भी दलित समाज का फायदा नहीं होने वाला है. अंबेडकर से लेकर कांशीराम तक सभी दलित महापुरुषों की यह सोच थी कि राजनीतिक सत्ता से सामाजिक व्यवस्था बदलेगी. इस बात को जमीनी धरातल पर देखें, तो यह बात खरी नहीं उतरती है. 4 बार बसपा की प्रमुख मायावती मुख्यमंत्री रहीं. साल 2007 से ले कर साल 2012 तक बहुमत की सरकार चलाने के बाद भी बसपा दलितों को प्रदेश में सम्मानजनक हक नहीं दिला पाई. उल्टा मूर्तियां लगवाने, पार्क बनवाने जैसे कामों में लग गईं. रामदास अठावले, रामविलास पासवान भी केंद्र सरकार में मंत्री हैं. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चैहान लंबे समय से सरकार में हैं लेकिन मध्य प्रदेश में भी हालातों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया तो किस आधार पर कहें दलित राजनीति से दलितों का कायाकल्प हो जायेगा?

दलित महापुरुषों की राजनीतिक सत्ता से सामाजिक व्यवस्था बदलने की सोच काफी हद तक सही थी. परेशानी का सबब यह बन गया कि दलित नेताओं ने सत्ता पाते ही समाजिक सुधार के मुद्दों को पीछे छोड़ दिया. उस दिशा में कोई पहल नहीं हो सकी. शायद इसी कारण आजादी के 70 वर्षों के बाद भी दलित समुदाय एक बड़ा हिस्सा सिर्फ मतदाता बनकर रह गया. आज जब हम देश के दलित-आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि उनका जो सामाजिक और आर्थिक उत्थान होना था वैसा नहीं हुआ है. इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ही एक मात्र कारण है. वहीं, कहीं न कहीं उन वर्गों के अधिकारी और राजनेता भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अवसर मिलने के बावजूद अपने समाज के लिए उतना काम नहीं किया, जितना वे कर सकते थे. दलित बिरादरी की सब से बड़ी परेशानी यह है कि आगे बढ़ चुके लोग खुद को अगड़ी जमात में शामिल कर बाकी समाज को भूल जाते हैं. अगड़ी जमात में शामिल होने की होड़ में दलित धार्मिक कुचक्रों में भी फंसते जा रहे हैं, जो उन के लिए खतरे की घंटी है. यदि आज हिन्दू धर्म को सामाजिक राजनीतिक रूप से कमजोर होता नहीं देख सकते तो इसके लिए पहले दलितों-आदिवासियों की चिंता करनी होगी तभी धर्म और राष्ट्र मजबूत हो सकता है. यह सामाजिक लड़ाई से पहले एक मानसिक लड़ाई है जिसमें पहले दिमाग से उंच-नीच का जातिगत भेद मिटाना होगा…….राजीव चौधरी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *