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जाति तंत्र पर भारी लोकतन्त्र

जिस तरह पांच राज्यों में जातिवाद को लेकर राजनीतिक समीकरण बन रहे थे चुनाव में कथित जातिवादी नेता अपनी जाति को लेकर जीत के प्रति आश्वस्त थे। राजनीति के नाम पर समाज में जातिवाद का जहर घोला जा रहा था। चुनाव परिणाम के बाद वह कहीं न कहीं बिखरता नजर आया। क्या अब इन परिणामों के बाद कहा जा सकता है कि देश अपने वास्तविक लोकतंत्र की ओर जा रहा हैघ् पांच राज्यों में यदि उत्तर प्रदेश जैसे जनसंख्या बाहुल्य राज्य को ही देखें तो उत्तर प्रदेश की जनता ने जातिवाद की राजनीति करने वालों को नकार दिया है। जीत किसकी हुई तथा कौन सरकार बनाएगा यह विषय आर्य समाज के लिए इतने मायने नहीं रखता। आर्य समाज के लिए मायने रखता है सामाजिक समरसताए सामाजिक सद्भाव और राजनैतिक स्तर से ऊपर उठकर जातिगत और राष्ट्रीय एकता बनी रहे। जिसके लिए आर्य समाज अपने प्रारम्भ के दिनों से ही बलिदान देता आया है।

पिछले कुछ साल के राजनीतिक इतिहास पर यदि गौर करें तो विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं के पास जहाँ सर्वसमावेशी विकासए अस्पतालए रोजगारए जनता की मूलभूत सुविधाओं की अपेक्षा सिर्फ एक मुद्दा जातिवाद की खाई खोदने का कार्य चुनाव के दौरान देखने को मिलता है। इन ताजा हुए चुनावों में ही देखें तो किस प्रकार दलित.मुस्लिमए यादव.मुस्लिमए जाट आदि मुस्लिम समीकरण बनाये जा रहे थे। जातिगत और सामाजिक भय पैदा कर वोट बटोरने का कार्य होता दिख रहा था। शायद राजनेता अब भी 1990 के दशक की सोच और मानसिकता लेकर चल रहे हैं उन्हें समय की दीवार पर लिखी इबारत को साफ.साफ समझना होगा और जाति को लेकर अपनी समझ बदलनी होगी या फिर वक्त की बदलती हुई धारा उन्हें एक किनारे कर अपने रास्ते चल देगी।

आज राजनीति के अतीत के ग्रन्थ बदल रहे हैं। आज मतदाता बदल गया उसकी राजनैतिक सोच बदली या कहो उसकी समझ बढ़ रही है। आज वो तमाम संचार के साधनोंए मीडिया माध्यमों के द्वारा एक मतदाता ही नहीं अपितु राजनीति का एक हिस्सा भी बन गया है। आज उसके अन्दर अपने आर्थिक हितए राष्ट्र की सुरक्षा नीति और विकास को लेकर जागरूकता बढ़ी है। शायद इससे भी तथाकथित जातिवादी नेताओं के घेरे टूट रहे हैं। अब सच्चाई हमारी आंखों के आगे है बशर्ते हममें उस सच्चाई की आंखों में झांकने का साहस हो। सच्चाई यह है कि देश का मतदाता जाति और समुदाय की घेरेबंदी से तेजी से बाहर निकल रहा है। बरसों पुरानी इस फांस को वह तोड़ रहा है।

लगभग बीते पौने तीन दशक से अपने को सेक्युलर बताने वाली पार्टियों ने मुस्लिमों को अपने सोच के फंदे में जकड़ रखा है। ये पार्टियां चाहती हैं मुसलमान अपनी पहचान के घेरे में कैद रहें जबकि मुसलमानों में बहुत से लोगए खासकर नौजवान चाहते हैं कि अच्छी नौकरी मिलेए तरक्की होए जीवन.स्तर सुधरे। किन्तु मदरसों और मस्जिदों से संचालित होने इस मजहब के ढेरों नेताए इमामए उलेमा और मोलवी नहीं चाहते कि मुस्लिम समुदाय उनके इस धार्मिक मकडजाल से बाहर आये। इसलिए वो सिविल कोड या तीन तलाक जैसे मुद्दे को धार्मिक अस्मिता का प्रश्न बनाकर वोट स्वरूप लेने का कार्य करते नजर आते हैं।

हालाँकि मीडिया का एक बड़ा धड़ा राजनीति में मुसलमानों की कम होती नुमाइंदगी को लेकर भी सवाल खड़े कर रहा हैं। जबकि पढ़े लिखे मुस्लिम तबके से जवाब आ रहा है कि विधायक हिन्दू हो या मुसलमानए इससे क्या फर्क पड़ता है। विकास तो सबको चाहिए और ये कोई भी कर सकता है। बहराल जीत अपने साथ जिम्मेदारी लेकर आती हैए घमंड नहीं! ये वास्तविक लोकतंत्र की जीत हैए किसी धर्म.जाति की नहीं और जब.जब समाज को कोई ऐसा नेता मिला है जो सबके दुःख दर्द को अपना दुःख दर्द समझेए तब.तब समाज ने उस नेता को अपने सर.आँखों पर बिठाया है। राष्ट्रपति रहे डॉण् अब्दुल कलाम और सरदार पटेल ऐसे ही व्यक्तित्व थे। देश का हर नागरिक उन्हें अपना प्रतिनिधि मानता थाए चाहे वह किसी जातिए क्षेत्रए सम्प्रदाय एवं भाषा का हो। सच्चा नेता वही है जो निःस्वार्थ भाव से जनता की सेवा करे। अपने लिए कुछ न चाहे। वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति का प्रतिनिधि हो। वह हर जाति का हो और हर जाति उसकी। मुझे तो आजतक यह समझ नहीं आया कि एक जाति का प्रतिनिधित्व उसी जाति का व्यक्ति क्यों करेघ् सही नेता तो सबका प्रतिनिधि है।

भारतीय प्रजातंत्र दुनिया के बेमिसाल उदाहरणों में से एक है। लेकिन राजनीती से जुड़े लोगों ने प्रजातंत्र को अपनी दुकान बना डाला। जिस कारण प्रजा के मुद्दे हासिये पर चले गये। उत्तरप्रदेश चुनाव परिणाम के बाद जिस तरह एक दलितवादी नेता का ईवीम मशीन में गड़बड़ का आरोप आया यह भी एक किस्म से जनादेश का अपमान है। हो सकता यह उनकी हार पर हताशा हो लेकिन इस बदलती परिस्थिति में आज इन नेताओं को समझना होगा कि अब उनका पुराना माल नहीं बिकेगा!! हालाँकि कहा जाता है कि जब राजा ही लुटेरा हो तो प्रजा अपनी सुरक्षा कहाँ ढूँढेगी ! विवश समाज तब अपनी सुरक्षा अपने कबीलों मेंए जातियों मेंए सम्प्रदाय में अथवा अपने किसी भी समुदाय में खोजने को मजबूर हो जाता है। यह अलग बात है कि पूरी सुरक्षा वहाँ भी नहीं मिलती। शोशण तो हर जगह है। एक जाति के अन्दर ही क्योंए एक परिवार के अन्दर भी शोषण देखा जा सकता है।जाति तो कई बहानों में से एक बहाना हैए कारण नहीं तो फिर बेहतर यही है कि नेता अपनी धारणा बदलें। नए सिरे से सोचें कि आधुनिक भारत में वोटर किन बातों को पसंद बनाकर अपने वोट डाल रहा है। आज वह अपनी जरूरतों का ध्यान रख रहा है या नेताओं की?

राजीव चौधरी

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