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जाति व्यवस्था समाज में एक अभिशाप है.

दुनिया का इक रंगी आलम आम था पहले एक कौम थी जिसका नाम इन्सान था. किन्तु आज लगता है जैसे जितने इन्सान उतनी कौमे! हर कोई अपनी-अपनी कौम लिए बैठा है. भारत में जिस प्रकार से जातिवाद का बीज बोकर समाज में बिखराव का जो खेल खेला, जा रहा है निसंदेह वह पूरी तरह से देश को बर्बाद करने की नीति का हिस्सा ही कहा जाएगा.

यह शुद्ध रुप से कैसे भी हो अलगाव से हो या बिखराव से राजनीती की व्यवस्था का हिस्सा बन चुका है क्योंकि जातिवाद के नाम पर राजनीति करना बड़ा आसान हो गया है ऐसे लोग इस व्यवस्था का फायदा लेने में लगे है. जाति के नाम पर सेनाएं बन रही है संगठन बन रहे है क्या कोई बता सकता है ये जातीय सेना और संगठन किससे लड़ रहे हैं? इनकी लड़ाई किसी बाहरी ताकत से नहीं बल्कि आपसी युद्ध के लिए सेना बनाई जा रही है. ताकि जाति व्यवस्था के आधार पर देश के लोगों को बॉटकर सत्ता की प्राप्ति के लिए उनका हमेशा शोषण किया जा सके.

इसमें कोई एक शामिल नहीं हैं यह खेल बहुत गहरा है. केवल राजनितिक दल ही नहीं जब चुनाव निकट आते हैं किस तरह प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक प्रत्येक लोकसभा या विधानसभा सीट का जातीय समीकरण दिखाने और बताने में जुट जाते है इससे एक आम मतदाता अपने स्थानीय मुद्दे भूलकर अपनी-अपनी जाति के उम्मीदवार को जीतने में लग जाते है. अंत में कोई उम्मीदवार जीत जाता है पर स्थानीय स्तर पर जातीय खाई गहरी हो जाती है. इसलिए जो लोग जाति के नाम पर राजनीति करते है उनसे सावधान रहने की जरूरत है. ऐसी पार्टियों का विरोध करो और अपना वोट जाति के आधार पर नहीं, देश में क्या आर्थिक नीतियाँ लानी है इस पर वोट दिए जाने चाहिए.

जिस भारत की एकता की पूरे विश्व में प्रशंसा की जाती है, वर्तमान में वही भारत देश आज जातिवाद की भट्टी में जलता दिखाई दे रहा है. जबकि देश के सांस्कृतिक दर्शन की अवधारणा हमारे मूल वैदिक धर्म, हमारी विविधता में एकता की संस्कृति पर टिकी हुई है. किन्तु तेजी से प्रग्रतिशील समाज को आज जातियों में बांट देने का काम हमारी सरकारों द्वारा बखूबी किया जा रहा है वास्तव में भारत में जितने भी धर्म या संप्रदाय हैं, उनमें से आज जितना हमारे मूल धर्म में बिखराव दिखाई देता है, उतना संभवत: किसी और संप्रदाय में दिखाई नहीं देता. नेताओं ने कभी भी मुसलमान और ईसाई संप्रदाय को जातियों में विभाजित करने का कुचक्र नहीं रचा. ऐसा करने की हिम्मत ये नेता लोग कर भी नहीं सकते. क्योंकि इन संप्रदाओं के लोग अपने संप्रदाय की रक्षा करना जानते हैं. इस मामले में हम कमजोर है और यह बात सर्वविदित है कि कमजोर का शिकार करना आसान होता है.

हर एक छोटी बड़ी घटना के बाद जैसा पहले भी कहा कि मीडिया संस्थान इस मामले किस तरह जातिगत नामों के सहारे खबर प्रसारित करते है यह भी हमारी सामाजिक समरसता पर चोट कर ताने-बाने को कमजोर करता है. अब सवाल यह आता है कि जातिवाद का जहर घोलने का काम करने के लिए उन्हें कौन प्रेरित कर रहा है। इसमें अगर राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचा जाए तो यह कहना तर्कसंगत होगा कि ऐसे मामलों पर राजनीति कभी नहीं की जानी चाहिए, बल्कि ऐसे प्रकरण घटित न हों इसके लिए देश में राजनीति करने वाले सभी दलों को व्यापकता के साथ विचार विमर्श करना चाहिए

महंगाई, बेरोजगारी,  देश का अन्नदाता और राष्ट्रविरोधी तत्वों व् आम लोगों से जुड़े सवालों के जगह अगर नेताओं को जातीयता की दुकान अधिक भी रही है तो इसे जनता को ही समझना होगा कि वह इनके स्वार्थरूपी चंगुल से कैसे मुक्ति पाएं. यह तभी संभव है जब जनता इनके कारगुजारियों को समझे और इनके मंसूबों को त्याग कर देशहित में सोचे कि कैसे गरीबी व महंगाई दूर होगी. और यह सोचना आप सभी को है कि क्या चाहिए समर्द्ध देश या जातिवाद?

आज हमारे राजनेताओं को अपनी दृष्टि व्यापक करनी होगी और यह समझना होगा कि राजनीति राष्ट्रनिर्माण का काम है. आज हरेक राजनीतिक दल को वोट चाहिए और उसके लिए सही तरीका यह है कि  वे अपने दल के लिए वोट जुटाने में विचारधारा और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण यानि विकास की योजना का प्रचार-प्रसार करें। जनमत बनाना प्रत्येक राजनीतिक दल का कर्तव्य है लेकिन जाति आधारित राजनीति समाज गठन में बाधक है. यह सभी राजनीतिक दलों को समझना होगा. आखिर ऐसे में सवाल उठता है कि आधुनिक लोकतंत्र में जाति व्यवस्था को मजबूत करने का अपकर्म किसके द्वारा किया जा रहा है? क्या जातिवादी दल या नेता ही मरणासन्न जाति व्यवस्था को बार-बार पुनर्जीवित नहीं कर रहे हैं? थोड़ी देर कल्पना करो कि ये जाति व्यवस्था कल से खत्म हो गई अब सोचो कितने झगड़े, विवाद और राजनीति में कितने बदलाव आ जायेगे. देश  में सिर्फ सामाजिक, आर्थिक विकास की ही बातें होगी…राजीव चौधरी

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