Tekken 3: Embark on the Free PC Combat Adventure

Tekken 3 entices with a complimentary PC gaming journey. Delve into legendary clashes, navigate varied modes, and experience the tale that sculpted fighting game lore!

Tekken 3

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जुगाड़ एक अदद पी. एच. डी. का

एक पुरानी कहावत है कि ‘जिन खोजा तिन पाइया’ अर्थात् जिसने खोजा उसने पाया। मतलब यह कि कुछ पाने के लिए खोज करना जरूरी है। यही वजह है कि मेरे चारों तरफ जो आवरण है, जिसे आप जैसे बुह्मिान लोग वात- आवरण या वातावरण कहते हैं, उसमें खोज का बोल-बाला है। ≈पर-नीचे, आगे- पीछे सब तरफ खोज हो रही है। कोई आकाश में कुछ खोज रहा है तो कोई धरती को टटोल रहा है। कोई पहाड़ों के पर खोज कर रहा है तो कोई सागरों में डुबकी लगा रहा है और कोई बियाबानों की खाक छान रहा है। कोई गुरु खोज रहा है, कोई चेला खोज रहा है, कोई अपनी भागी हुई बीवी खोज रहा है और कोई सिर-फिरा अपने भीतर ही कुछ खोज निकला के नोटों से भरे 4-5 सूटकेस खोज लाए। मेरे पास मित्रों की कोई कमी नहीं है इसीलिए मेरे एक और मित्र थे जो आलू पर खोज कर रहे थे। कई साल की सफल खोज के बाद जब मुझसे मिलने आए तो उनके चेहरे पर गजब की चमक थी। अपनी खोज का सार प्रस्तुत करते हुए बोलेः-‘आलू की खोज के लिए मुझे गाव में जाना पड़ा क्योंकि आलू गाव में ही उगते हैं। यह हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इतना माडर्न जमाना होने के बावजूद हमारे आलू शहरों में उगना नहीं सीख सके हैं। इन सब अड़चनों के बावजूद मेरी खोज पूरी हो गई है। मैंने आलुओं के इस रहस्य का पता लगा लिया फिर सवाल किया: वहा आप क्या करते हैं?

-नीबुओं की छटाई करके उनकी तीन ढेरिया° बनाता हू छोटे नीबू, मध्यम आकार के नीबू और बड़े नीबू।

नीबू और बड़े नीबू। डाक्टर थोड़ी तेज आवाज में बोला-‘तो इसमें दिमाग पर जोर पड़ने की कौन-सी बात है?

-रोगी ने बड़े धेर्य से कहा: ‘सर आप समझते क्यों नही! मुझे हर नीबू के साथ एक फैसला लेना पड़ता है।’

रोगी का उत्तर सुनकर डाक्टर के साथ-साथ मेरे भी कान खुल गए और मैंने भी फैसला ले किया कि इस उम्र में खोज जैसा दिमागी काम करके सिर-दर्द ने रास्ता सुझाया। तुम अमुक ‘महाराज’ के पास चले जाओ। वे अवश्य ही तुम्हारे कष्ट का निवारण कर देंगे। मैंने शंका प्रकट की तो वे डपट कर बोले उनके लिए सब संभव है। जब वे बिना राज्य के ‘महाराज’ हो सकते हैं तो तुम्हें पीएच. डी. का दान उनके बाए° हाथ का काम हैं।

मैं महाराज की संस्था में पहुच गया। वे परमहंस थे। और मैं तो कहना चाहूंगा कि अगर परम हंस से भी बड़ा कोई हंस होता हो तो वे उसी तरह के हंस थे। बिल्कुल सालिड किस्म के महाराज। दाढ़ी, मूछ, सिर के बाल सब सफाचट। पूरी तरह घुटे हुए। मौका लगते ही मैंने महाराज के उन श्री चरणों का स्पर्श किया, जो इतने छूए गए थे कि पर की तरफ रहा है। अनेक उत्साही किताबों में ही कुछ खोजने में जुटे हुए हैं। हालांकि किताबें साफ-साफ लिखी हुई हैं, छपी हुई हैं और उन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता है इसके बावजूद उन में कुछ खोजा जा रहा है। इस किताब-खोज का आलम तो यह है कि इस पावन भारत भूमि का सिर्फ एक विश्वविद्यालय संत कवि तुलसीदास के साहित्य पर खोज करवाकर पीएच. डी. की अस्सी डिग्रिया° न्यौछावर कर चुका है और खोज है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही। यह ‘पीएच. डी.’ किस किस्म की ‘डी’ होती है यह तो मुझे ठीक से पता नहीं लेकिन जो इसे हासिल कर लेता है, चलते समय उसका सीना चैड़ा हो जाता है और वह अपने नाम से पहले ‘डाक्टर’ लगाने का अधिकारी बन जाता है।

हम कहा भटक गए! आइए फिर से अपने खोज वाले विषय पर लौटते हैं। तो बंधुओ! हालांकि इस काल को विद्वानों ने बेशक आधुनिक काल, जेटॅकाल, परमाणु काल या भ्रष्टाचार काल जैसे तरह-तरह के नामों से विभूषित कर रखा है लेकिन पर के विवरण के आधार पर मुझे लगता है कि इसका सर्वश्रेष्ठ नाम ‘खोजकाल’ है। खोज के इस महत्त्व से प्रभावित होकर अनेक खोजी खोज अभियान में जुटे हुए हैं। नतीजा यह है कि हर फील्ड में खोज हो रही है। मेरे एक मित्र राजनीति उद्योग में चले गए। वे वहा कई साल तक खोज करते रहे जिसका सुखद परिणाम यह ऐसे खोजियों से प्रेरणा पाकर मेरे मन में दबी डाक्टरैषणा उभर आई। हालांकि मैं खुद भी काफी खोजी किस्म का जीव रहा हू। इस का प्रमाण यह है कि जब भी घर में कोई चीज़ गुम हो जाती थी तो घर वाले मुझ से ही उसकी खोज करवाते थे। मेरी यह खोज-कला इतनी विकसित हो गई थी कि दूर-दूर के घरों से, रात के घुप अँधेरे में भी चीजें खोज लाता था। लेकिन अब उम्र ऐसी हो चली थी कि थोड़ा-सा जोर डालते ही मेरी खोज-बुह् िटें बोल जाती थी। इस सिलसिले में मैं उस घटना को नहीं भूल सकता जब मैं एक दवाई देने वाले डाक्टर के पास बैठा था। डाक्टर पुराने सिर-दर्द के एक रोगी से सवाल-जवाब कर रहा था ताकि वह उस के सिर-दर्द का कारण जान सके। जब कुछ नहीं पता चला सका तो डाक्टर ने आखिरी सवाल पूछा: ‘आप बहुत दिमागी काम तो नहीं करते?’ रोगी ने ‘हा’ में उत्तर देते हुए कहा कि वह नीबू का अचार बनाने वाली फैक्टरी में काम करता है। यह सुनकर डाक्टर को वही हुआ जिसे आश्चर्य कहते हैं और रोगी से को बिल्कुल न्यौता नहीं दूंगा।

लेकिन पीएच. डी. का जुगाड़ तो करना ही था। डाक्टरी-एषणा ने मन में धर्मचैकड़ी मचा रखी थी। इस विषय में कई शुभ चिंतकों से बात की कि वे मेरे लिए कहीं से सिर्फ एक अदद पीएच. डी. का जुगाड़ करवा दें। एक शुभचिंतक ने कहा: ‘एक नई-नई यूनिवर्सिटी डेढ़ लाख रुपये लेकर पीएच. डी. की डिग्री अर्पित कर रही है। थीसिस के नाम पर जो कुछ थोड़ा बहुत लिखना पड़ेगा उसकी जिम्मेदारी खुद गाइड संभालेगा। बात करवाने की इच्छा तो बड़ी प्रबल थी लेकिन डेढ़ लाख रुपये की मांग ने उसी तरह ध्ाराशायी कर दिया जैसे दहेज-लोभी बहू को ध्ाराशायी कर देते हैं। पर मैंने भी हिम्मत नहीं हारी। कई रसूख वाले लोगों से निवेदन किया कि किसी यूनिवर्सिटी से एक आॅनरेरी ;मानदद्ध पीएच. डी. ही दिलवा दें। वे बोले: यूनिवर्सिटी को आपसे ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा प्यारी है। आप जैसी हैसियत को आॅनरेरी डिग्री देने के बाद यूनिवर्सिटी कहीं मु°ह दिखाने लायक नहीं
रह जाएगी।

कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करू। मन आवेश से भर रहा था। लानत है ऐसे देश पर जो एक भले आदमी के लिए एक पीएच. डी. का इंतजाम नहीं कर सकता। लेकिन इस सबके बावजूद मैंने पीएच. डी. की खोज का अभियान जारी रखा। मेरी पीड़ा पर संवेदना का मरहम लगाते हुए एक कृपालु की नीचे से भी ज्यादा ठोस हो गए थे। मेरी इच्छा थी कि महाराज की चरण धूलि से अपने मस्तक को पवित्र कर लू लेकिन ऐसा नहीं हो सका। महाराज साफ-सुथरे कार्पेट पर बैठे थे इसलिए चरणों पर से धूलि नदारद थी। जो थोड़ी बहुत रही भी होगी तो उसे वह कार्पेट जज्ब कर चुका था। खैर मैंने चरण सेवा शुरू कर दी। उन श्री चरणों को पुष्ट और संतुष्ट करने में काफी समय लग गया। लगता था कि वे कई साल से सेवा का अकाल झेल रहे थे। खैर, जब मुझे उन परमहंसी चरणों की पुष्टि, तुष्टि और तरावट का पूरा भरोसा हो गया तो मैंने अत्यंत नम्रता से भी ज्यादा नम्रता से निवेदन किया: महाराज अब तो इस सेवक का भी कल्याण कर दो। मुझे लिखना-पढ़ना तो कुछ ज्यादा आता नही’। मेरा धर्म तो सिर्फ सेवा है। इसी को मेरी पूंजी मानकर आशीर्वाद स्वरूप मुझे एक अदद पीएच. डी. प्रदान कर दो। मेरा सम्मान बढ़ जाएगा और आपका मान रह जाएगा। परमंहस पसीजते दिखाई दिए क्योंकि उनकी दोनों भुजाए पर की तरफ उठकर हंस के पंखों की तरह फड़फड़ाई। उन्होंने तथास्तु कहा और मुझे एक अदद पीएच. डी. का दान दे दिया।

अब मैं पीएच. डी. हैं। इसका मतलब है कि मेरे नाम के पहले डाक्टर शब्द जुड़ गया है। अपने सिकुड़े से सीने को फुलाकर गर्व पूर्वक चलने लगा हू। लोग मेरी तरफ उत्सुकता से देखते हैं कि देखो सड़क पर पीएच. डी. जा रहा है। लेकिन समाज में सब आप जैसे सज्जन नहीं होते, बहुत से सिर-फिरे लोग भी होते हैं जो किसी बात को सहज रूप से स्वीकार नहीं करते।

ऐसे ही एक सिर-फिरे ने मुझ में पूछ ही लिया: आपकी पीएच. डी. का विषय क्या था?

-मैं एक शरीफ आदमी हैं विषयों से दूर रहता हैं।

-आप कभी पढ़ते-लिखते तो दिखाई नहीं दिए, फिर आपको यह डिग्री कैसे मिल गई?

– मैं जन-सेवा करता हू। सेवा ही सब से बड़ी पढ़ाई-लिखाई है। इसीलिए तो शास्त्रों में कहा गया हैः-‘सेवा परमो धर्म’। मेरी डिग्री उसी सेवा का प्रतिफल है। उसने पूछा – आपको डिग्री किसने दी? मैंने कहा- हंसों के भी हंस स्वनाम धन्य महाराज परमहंस जी ने।

– पर उन्होंने आज तक तो कभी कोई डिग्री दी नहीं।

– शायद उनका डिग्री विभाग हाल ही में खुला है।

– पर बंधु! वे तो दसवीं का सर्टीफिकेट भी नहीं दे सकते!

– अभी सर्टिफिकेटों की मांग नहीं है। हो सकता है मांग होने पर यह विभाग भी शुरू कर दिया जाए।

– मेरा मतलब है जब वे डिग्री दे ही नहीं सकते तो आपको कैसे दे दी?

– मुझे पेड़ गिनने से नहीं आम खाने से मतलब है। कैसे देते हैं, कहा से देते है, यह जिरह उन्हीं से कीजिए। मैंने डिग्री ली है दी नहीं।

वह सही अर्थ में सिर-फिरा निकला। वह अपने सवाल लेकर परमहंस जी के पास पहुच गया। हालांकि परमहंस जी उसे यह जानकारी देने को बाध्य नहीं थे क्योंकि परमहंस जी और उनकी संस्था सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं आते थे। इसके बावजूद दयालु-स्वभाव परमहंस जी ने उनको उत्तर दे दिया। जो सवाल किए गए और जो उत्तर दिए गए वे भी उस सिर-फिरे के सौजन्य से नीचे दर्ज किए जा रहे है:

-क्या आप पीएच. डी. की डिग्री दे

सकते हैं?

– बिल्कुल नहीं। मैं वही दे सकता हू

 

जो मेरा है और जिस पर मेरा अधिकार है।

– अगर नहीं तो फिर आपने डबास को डिग्री कैसे दे दी?

– मैंने कोई डिग्री नहीं दी। मैं तो अपने सेवकों को अपने स्नेह, करुणा तथा आशीर्वाद का दान देता हू। मैं जो दान देता हू वह परम हंस दान कहलाता है।

– लेकिन वह तो कहता है उसे पीएच. डी. मिली है।

– परमहंस दान ;च्ंतंउ भ्ंदे क्ंदद्ध का ही संक्षिप्त रूप पी. एच. डी. है।

– लेकिन वह तो अपने नाम के साथ डाक्टर लगाता है।

– वह क्या लगाता है और क्या नहीं लगाता इसकी जिम्मेदारी मेरी नहीं है।

यह फालतू का सवाल उसी से जाकर पूछ। –