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टीपू देशभक्त था और सावरकर….?

देश में चुनाव सम्पन्न होने में अभी एक चरण बाकी है लेकिन कांग्रेस में अपने घोषणापत्र को जमीन पर उतारना शुरू कर दिया हैं। राजस्थान में वर्तमान कांग्रेस की सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर से देशभक्ति का तमगा छीन लिया। सावरकर को देशभक्त नहीं बल्कि अंग्रेजों से माफी मांगने वाला बताया हैं। इससे थोड़े दिन पहले जनवरी में महाराष्ट्र के नासिक की यशवंतराव चव्हाण ओपन यूनिवर्सिटी में भी वीर सावरकर को हिंदुत्व विचारधारा वाला कट्टरपंथी आतंकवादी व्यक्ति बताया गया था। इस किताब के एक अध्याय में दहशतवादी क्रांतिकारी आंदोलन में वीर सावरकर से लेकर वासुदेव बलवंत फड़के, पंजाब के रामसिंह कुका, लाला हरदयाल, रास बिहारी बोस जैसे क्रांतिकारियों के नाम शामिल थे।

अब इसे इस तरीके से भी समझ सकते है कि अब राजस्थान के बच्चे पढेंगे कि सावरकर देशभक्त नहीं थे और अन्य राज्यों के बच्चों को पढाया जायेगा कि सावरकर एक महान क्रन्तिकारी थे। या फिर अभी तक राजस्थान में जिस बाप ने ये पढ़ा था कि सावरकर क्रन्तिकारी थे अब उनके बच्चे पढेंगे कि नहीं वो तो देशद्रोही थे। यानि हमारी आने वाली पीढ़ी अब राजनितिक दलों द्वारा वोट के लालच में दिग्भ्रमित की जाएगी।

पिछले दिनों कांग्रेस ने वर्ष 2019 के आम चुनाव के लिए अपना घोषणापत्र जारी किया था। कांग्रेस ने इस घोषणापत्र को जनआवाज का नाम दिया था। इस घोषणापत्र में एक मामले को लेकर काफी विवाद भी हुआ था कि देश विरोधी बातें करना कांग्रेस की नजर में कोई अपराध नहीं है। क्योंकि कुछ दिनों पहले ही जेएनयु में कांग्रेस की बौद्धिक खुराक में सहायक रहे वामपंथी कार्यकर्ताओं ने सीधे-सीधे देश के टुकड़े करने के नारे लगाये और कांग्रेस किस तरह इनकी तरफदारी करती नजर आयी थी यह सब देश ने देखा था।

बहुत सारे लोग सोच रहे होंगे आखिर ऐसा क्या कारण है जो कांग्रेस पार्टी के लोग बार-बार सावरकर पर हमला करते है। शायद वो कारण है सावरकर द्वारा लिखी किताब जिसे सावरकर ने अंडमान से वापस आने के बाद लिखा था। इस पुस्तक का नाम है हिंदुत्व हू इज हिंदू इस किताब में सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा देते हुए लिखा कि इस देश का इंसान मूलत: हिंदू है। इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो। यानि जिसके अराध्य देवों से लेकर तीर्थ स्थान तक इसी देश में हो वही इस देश का नागरिक हो सकता है। क्योंकि पितृ और मातृ भूमि तो किसी की हो सकती है, लेकिन पुण्य भूमि तो सिर्फ हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों की हो हो सकती है,  मुसलमानों और ईसाइयों की तो ये पुण्यभूमि नहीं है न उनके यहाँ पर तीर्थस्थान। सावरकर की इस राष्ट्रीय परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई तो इस देश के नागरिक कभी हो ही नहीं सकते। बस यही वो लाइन है जो कांग्रेस की आंखों में खटकती है क्योंकि सावरकर की परिभाषा के अनुसार तो कांग्रेस के बड़े नेताओं का धर्म क्या है सभी अच्छी तरह जानते है. इस कारण वो देश के नागरिक नहीं हो सकते।

असल में 1883 में जन्मे सावरकर 1948 में हुई महात्मा गांधी की हत्या के आठ आरोपियों में से एक बनाए गये थे। नाथूराम गोडसे और उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किष्टैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय परचुरे। इस गुट का नौवां सदस्य दिगंबर रामचंद्र बडगे था जो सरकारी गवाह बन गया था। हालांकि सावरकर को गाँधी की हत्या के आरोप से बरी कर दिया गया था क्योंकि उन्हें दोषी साबित करने के लिए जरूरी सबूत नहीं थे।

लेकिन सावरकर की देशभक्ति पर सवाल उठाने वाले यह जरुर जान ले कि आजादी से पहले वे तीन अंग्रेज अधिकारियों की हत्या या इसकी कोशिश में शामिल थे। आजादी की लड़ाई के नजरिये से देखें तो ये हत्याएं अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने की सावरकर की क्रांतिकारी भावना दिखाती हैं।

यही नहीं लेखक धनंजय कीर सावरकर के जीवनीकार थे। उनकी लिखी किताब, सावरकर एंड हिज टाइम्स 1950 में प्रकाशित हुई थी। सावरकर की मृत्यु के बाद कीर ने इसे फिर प्रकाशित करवाया। इसमें कई नई जानकारियों को शामिल किया गया है जो उन्हें खुद सावरकर से मिली थीं। इस नये संस्करण में कीर ने लिखा है कि अंग्रेज अधिकारी वाइली की हत्या के दिन सुबह सावरकर ने ढींगरा को एक रिवाल्वर दी थी और कहा था, ‘यदि इसबार तुम असफल हुए तो मुझे अपना चेहरा मत दिखाना।

इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई के लिए रवाना होने से पहले सावरकर मित्र मेला नाम के एक गुप्त संगठन के सदस्य थे। इसी का नाम बाद में अभिनव भारत रखा गया। इस संगठन का लक्ष्य किन्ही तरीकों से अंग्रेजी शासन को खत्म करना था। विनायक दामोदर सावरकर छत्रपति शिवाजी महाराज के अनुयायी थे। वे गांधी जी के विशुद्ध अहिंसा के सिद्धांत में विश्वास नहीं रखते थे। जैसे शिवाजी 1666 में आगरा से मिठाइयों के टोकरे में छुपकर मुगल कैद से फरार हुए थे, उसी से प्रेरणा लेकर सावरकर ने भी 1910 में मोरिया नामक एक स्टीमर से पलायन किया था। जैसे ही स्टीमर मार्से के फ्रांसीसी तट के निकट पहुंचा, सावरकर ने उस पर मौजूद एक बड़े छेद में से निकल कर समुद्र में छलांग लगा दी और तैर कर किनारे पहुंचे थे।

लेकिन सावरकर की यह बहादुरी किसी ने नहीं देखी और वामपंथियों और छद्मवादियों ने सावरकर को बदनाम करने की एक के बाद एक चाल चलते गये। ऐसा इसलिए कि यदि हम भारत के पिछले 120 वर्ष के इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि राजनीतिक अखाड़े में मुस्लिम रणनीतिकारों ने अलग-अलग बहाने से लगभग सभी हिंदू नेताओं को इतिहास से मिटा दिया और उन लोगों को नायक बना दिया, जिहोनें इस देश को लहूलुहान किया था। इसी कड़ी में वामपंथी इतिहासकारों ने दक्षिण भारत के औरंगजेब टीपू सुल्तान जिसनें 700 मेलकोट आयंगर ब्राह्मणों को फांसी पर लटकाया था को देशभक्त बना दिया और हिंदुत्व की बात करने वाले सावरकर को देशद्रोही।

देश के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने सेकुलरिज्म का झूठा ढोंग कर टीपू को ‘वीर’ और ‘देशभक्त पुरुष’ के रूप में वर्णन किया है। सोचने की बात यही है भला जो इन्सान 25 सालों तक वो किसी न किसी रूप में अंग्रेजों का कैदी रहा उसकी देशभक्ति पर कैसा शक? दूसरा सवाल राजस्थान के शिक्षा मंत्री से भी है यदि सावरकर अंग्रेजो का दोस्त था तो अंग्रेज क्यों बार-बार जेल में डाल रहे थे? साथ ही राजस्थान कांग्रेस वो कारण भी जरुर बताये कि यदि 25 साल जेल काटने के बाद सावरकर देशभक्त नहीं हो सके तो मात्र कुछ साल जेल में रहे नेहरु जी किस लिहाज से देशभक्त और भारतरत्न हो गये ?

राजीव चौधरी

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