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देखना एक दिन ऋषि दयानन्द की यह सेना इस अंधकार को चीर देगी

ऋषि बोधोत्सव 13 फरवरी पर जिस-जिस ने रामलीला मैदान का यह सुन्दर नजारा देखा होगा निश्चित ही उसका मन गर्व और गौरव से प्रफुल्लित होकर, वैदिक धर्म का नाद कर उठा होगा। शाम के समय भले ही सूर्य ने प्रकाश को अपनी गोद में समेट लिया हो पर वेद की जलती ज्योति, यज्ञ की प्रचंड अग्नि शिखा ने मन और स्थान से अंधकार भगा दिया था। बच्चों की लम्बी-लम्बी कतारें, उनके मुख मंडल पर अनूठी आभा, सब कुछ व्यवस्थित, हर एक बच्चा मन, वचन कर्म से उत्साहित अपने-अपने यज्ञ पात्र लिए उचित दूरी पर जैसे परमात्मा के निकट बैठा दिखा। एक बार को तो मन में शंका उठी थी कि आयोजक इस विशाल यज्ञ प्रदर्शन को किस तरह व्यवस्थित करेंगे, क्योंकि कुछ बच्चे भले ही 10 से 15 वर्ष के करीब थे किन्तु अधिकांश बच्चे तो 10 वर्ष से कम आयु के भी थे, पर देखते ही देखते लगभग 10 मिनट के अन्तराल में हर एक बच्चा एक दिशा, एक पंक्ति में बिना किसी बहस और विवाद के, यज्ञ आसन मुद्रा में समान दूरी पर हवन कुंड सामने रखकर यज्ञ के लिए तैयार था। इससे हर कोई स्वयं में ही व्यवस्थापक नजर आ रहा था।

दिल्ली आर्य प्रतिनधि सभा के तत्त्वावधान में पिछले काफी समय से ‘घर-घर यज्ञ- हर घर यज्ञ’ और स्थान-स्थान पर यज्ञ प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये जा रहे हैं। जिनमें दिल्ली की विभिन्न आर्य समाजों एवं आर्य संस्थाओं, कन्या विद्यालयों, गुरुकुल आदि में यह प्रशिक्षण शिविर चलाये जा रहे हैं या ये कहिये वैदिक संस्कृति के अध्यात्मिक स्वरूप को बचाने के लिए ये ऋषि दयानन्द की फौज खड़ी की जा रही है।

इस विशाल यज्ञ प्रदर्शन में करीब 600 बच्चे थे, आगे बढ़ने से पहले बता दूँ यह कोई पौराणिक कहानियों का जादू का मन्त्र नहीं था बल्कि दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा और समस्त समाजों और आर्य शिक्षण संस्थाओं के सहयोग का वह प्रतिफल था जिसने हर किसी को गद-गद होने पर मजबूर कर दिया। ये भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को अगली पीढ़ी को सौंपने का वह पुनीत कार्य था जो प्रत्येक भारतवासी को करना ही चाहिए। ये ऋषि दयानंद के सपने के वैदिक रथ को उस मार्ग पर आगे बढ़ाने का कार्य था जिसमें आधुनिकता के नाम पर आज समाज में कुसंस्कार के गड्ढे खोद दिए गये हैं। संस्कार अर्थात् सदगुणों को गुणा करना अर्थात् बढ़ाना एवं दोषों को घटाना, अच्छी आदतें डालना एवं बुरी आदतें निकाल कर फेंकना, संस्कार कोई दवाई नहीं होती कि किसी को पिला दो और वह संस्कारी हो जाये। संस्कार बाल्यकाल का वह वातावरण होता है जिसमें उसके मन को जैसी छाप मिलती है, उसके मासूम मन की गीली सी मिट्टी पर जो लिखा जाता है वही सारी जिन्दगी अंकित रहता है।

यह सब मानते हैं कि यज्ञ भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है। भला वैदिक धर्म का नाम आये और उसके साथ यज्ञ का जिक्र न हो! कैसे हो सकता है? यज्ञ तो संस्कृति का पिता है। हमारे जीवन में यज्ञ का बड़ा महत्त्व है। हमारा कोई भी कार्यक्रम बिना यज्ञ के पूरा नहीं होता। सब संस्कार जन्म से लेकर मृत्यु तक यज्ञ से ही पूर्ण होते आये हैं। इसे ही भारतीय संस्कृति कहा गया है। भले ही कोई पौराणिक हो लेकिन उसे भी प्रत्येक कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, पर्व, त्योहार, उत्सव, उद्यापन सभी में यज्ञ अवश्य करना-कराना पड़ता है। बस इसमें हानि यह होती है कि यह लोग यज्ञ के असली स्वरूप को बिगाड़ देते हैं और जो परिवार यज्ञ के असली स्वरूप को नहीं समझते वह इसे ही स्वीकार कर लेते हैं। उदहारण के लिए अभी पिछले दिनों मध्यप्रदेश में शराब से यज्ञ किया गया था जिसमें स्थानीय और दूर दराज से आये सैकड़ों लोग भी उपस्थित थे। यदि उनमें किसी एक को भी यज्ञ के वैदिक कालीन स्वरूप का ज्ञान होता तो क्या वह इसका विरोध नहीं करता? क्योंकि इसकी आड़ में हमारी शुद्ध परम्पराओं पर हमला हो रहा था। ऐसे घोर अवैदिक कृत्यों को मिटाने के लिए ही आर्य समाज प्रयासरत है। इससे समाज को दो लाभ होंगे एक तो उन्हें कोई यज्ञ के नाम पर मूर्ख बनाकर धन, समय आदि की हानि नहीं कर सकता दूसरा यदि किसी के आस-पास कोई पुरोहित न भी हो तो वह इस क्रिया को स्वयं भी कर सकता है।

आज देश में यज्ञ प्रशिक्षण शिविर क्यों जरूरी है इसे समझने के लिए मात्र एक और छोटा सा उदहारण काफी होगा कि फरवरी माह में ही राजधानी दिल्ली के सुभाष पैलेस इलाके में घर की शुद्धि हवन तन्त्र क्रिया के नाम पर तांत्रिकों के कहने पर अभिभावकों ने अपनी बेटी को तांत्रिक के हवाले कर दिया और तांत्रिक लगातार उससे 12 वर्ष दुष्कर्म करता रहा। यहाँ पर फिर वही सवाल खड़ा होता है कि यदि उक्त परिवार में कोई एक भी सदस्य वैदिक यज्ञ प्रक्रिया को जानता, समझता तो क्या वह तांत्रिक इस नीच कार्य में सफल हो पाता? शायद नहीं क्योंकि यज्ञ में समिधा, सामग्री, घी, जल, कपूर आदि के अलावा किसी चीज की आवश्यकता शायद ही पड़ती हो। लेकिन शर्म का विषय यह है कि आज अनुष्ठानों के नाम पर तांत्रिक अस्मत तक रोंद रहे हैं। लेकिन अब यह लोग सफल नहीं होंगे, नौजवानों में बच्चों के रूप में खड़ी हो रही यह महर्षि दयानन्द की सेना इस अंधकार को चीर कर रख देगी। इस वर्ष ऋषि बोधोत्सव पर 600 बच्चे उपस्थित थे तो अबकी बार अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलन में यज्ञ प्रदर्शन में दस हजार का लक्ष्य है। भारत की समस्त आर्य समाजें इस कार्य को गति देंगी तो एक दिन यह संख्या लाखों करोड़ों में होगी।  ऐसा हमें विश्वास है।..लेख राजीव चौधरी

 

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