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देखना एक दिन दयानंद फिर याद आएगा.

लेप धातु के ऊपर हो या स्वर्णिम इतिहास के ऊपर, कुछ पल ऐसा करके उसकी कृतिम आभा एवं स्मृति को दबाया जा सकता है, परन्तु मिटाया नहीं जा सकता। अतीत में जिसनें ऐसा करने की कोशिश करी भी लेकिन दबा नहीं पाया क्योंकि काल ने ऐसे दाग़ खुद धो देता है। सर्वविदित है कि आज देश में बड़े रूप में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। देश की आजादी के लिए बलिदान देने वाले असंख्य क्रान्तिकारीयों, बलिदानियों के बलिदान रूपी अमृत का आभार प्रकट किया जाना इस महोत्सव का मुख्य ध्येय है। लेकिन पता नहीं क्यों अज्ञात कारणों से राष्ट्र को समर्पित आर्य समाज से जुड़े अनेकों क्रान्तिकारीयों, बलिदानियों का नाम इसमें ना आना संशय प्रकट करता है!

पिछले कई दिनों से आर्य समाज के अनेकों विद्वान, आर्य समाज की विभिन्न संस्थाओं से जुड़ें लोग अथवा आम कार्यकर्ता कहीं ना कहीं निराश नजर आये। कई बन्धुओं ने सोशल मीडिया पर भी अपना आक्रोश जाहिर किया कि आखिर आजादी का अमृत महोत्सव और प्रसाशनिक स्तर पर आर्य समाज या स्वामी दयानन्द जी का नाम नहीं!

यानि सवाल अनेकों है और जवाब एक है। महाभारत का एक प्रसंग है कि ज़ब कौरव, पांडवो को मिटाने के लिए छल कर रहें थे। तब पांडव भले ही चिंता में डूबे थे लेकिन कृष्ण मुस्कुरा रहें थे। कृष्ण का मुस्कुराना धोतक था इस बात कि धर्म, सच्चाई, तप और बलिदान कभी हराये या मिटाए नहीं जा सकते। यह प्रसंग आज उन नेताओं, लेखकों और संस्थाओं के लिए उपयुक्त उदहारण है कि भारत का स्वतन्त्रता संग्राम बिना महर्षि दयानन्द एवं बिना आर्य समाज के अधूरा है।

आखिर कहां से लाये जायेंगे, सरदार किशन सिंह, अर्जुन सिंह और सरदार अजित सिंह, कहां से प्रेरणा मिलेगी किसी सरदार भगत सिंह को, जिसकी 21 वर्ष की तरुण अवस्था में समूची अंग्रेजी हुकूमत थर-थर कांपने लगी थी। वो भी वह हुकुमत जो यह दावा करती थी कि उनके राज्य में सूरज अस्त नहीं होता।  कौन डी. ए. वी. जैसी राष्ट्र और धर्म को समर्पित संस्था ख़डी करेगा? जो निस्वार्थ भाव से शिक्षा और देश की आजादी का स्वपन नौजवानों को दे रही थी। कौन लायेगा स्वामी श्रद्धानन्द जैसी हुतात्मा को! जिन्होंने, इस धर्म के पतन को रोकने के लिए, शुद्धि जैसा व्यापक आन्दोलन चलाया। समाज के दबे-कुचले, हीन समझे जाने वाले वर्ग को उठाकर गले से लगाया। यही नहीं अपना धन, घर-परिवार और अपनी काया इस देश और धर्म पर न्योछावर करके गुरुकुल कांगड़ी जैसी संस्था खड़ी की, जिससे वैदिक धर्म और राष्ट्र के रखवाले निकले जो विश्व भर में फैले और वैदिक धर्म की पताका फहराई।

कहाँ से विचार डाला जायेगा किसी गुरुदत्त विधार्थी के कानों में? जिसे सुनकर दिन रात भूखा प्यासा रहकर भी वैदिक धर्म और स्वराज्य के लिए शंखनाद करते रहे। आखिर किस माँ की कोख से मानवती आर्या एवं नीरा आर्या जैसी बेटी पैदा होगी? जब इस देश में लड़कियां घर की देहरी नहीं लाँघ सकती थी, तब उस बेटी ने राज्यों की सीमा लांघी और अंगेजी शासन के विरुद्ध आजाद हिन्द फौज के लिए बेड़ियों में जकड़े इस देश के लिए जासूसी की तथा काले पानी की यातना सहकर भी अपनी जुबान नहीं खोली।

यह ऋषि दयानंद की ही सेना थी। यह स्वराज्य और स्वदेशी के लिए मर मिटने वाली सेना थी। जब खिलाफत के नाम पर विधर्मी मालाबार में हिन्दू बहु बेटियों का जबरन शिकार कर रहे थे, तब यही ऋषि दयानंद की सेना थी जो एक गैर भाषाई राज्य में चट्टान की तरह अड़ गयी थी। जिसने पाखंडियों और तथाकथित धर्म के ठेकेदारों को ना केवल आइना दिखाया बल्कि हजारों लोगों की अपने मूल धर्म में वापिसी कराई।

यह दयानंद की ही सेना थी जो हैदराबाद को इस भारत भूमि में मिलाने के लिए रक्त से धरा सींच रही थी जब सत्ता के प्यासे कुछ लोग देश का झंडा कैसा हो ये तय कर रहे थे। तब यही आर्य समाज के सिपाही महात्मा हंसराज जी थे जो राष्ट्र ध्वज के बीचों-बीच धर्म चक्र की स्थापना कर रहे थे। यह विचार कहाँ से आया? ये सोच कहाँ से आई? कौन थे वह योगी वह तपस्वी जो अपनी जमीन, जायदाद विरासत और परिवार को ठुकराकर, देश भर में स्वदेशी और स्वराज्य की अलख जगा रहा था? जो इस धर्म जाति इस राष्ट्र के लिए बार-बार जहर पी रहा था।

कौन इतिहास मिटा सकता है किसमें दम है! कौन है जो महर्षि दयानंद जैसा राष्ट्रव्यापी आन्दोलन इस राष्ट्र में खड़ा करने का साहस करें! साहस तो दूर सोच भी नहीं सकता! इस आन्दोलन ने ना केवल भारत को बल्कि विदेशों तक रह रहे मारिसश, फिजी एवं दक्षिण अफ्रीका तक में बैठा हिन्दू समाज भी जाग गया था।

किस के पास वो रबर है जो इस इतिहास को मिटा सके? जिस इतिहास ने पंडित  राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, विष्णु शरण दिए, आर्य समाज के अतिरिक्त कौन लन्दन में इंडिया हॉउस खड़ा करेगा? जो इस देश की स्वतन्त्रता के मतवाले क्रांतिकारियों तीर्थ स्थान बना। अगर श्याम जी कृष्ण वर्मा इंडिया हॉउस खड़ा ना करते तो शहीद मदनलाल ढींगरा और वीर सावरकर जैसे क्रन्तिकारी कहाँ से आते? अगर शाहजहांपुर में आर्य समाज मंदिर ना होता तो कैसे कोई अशफाक उल्ला खां खुद को आजादी की वेदी पर अर्पित करता?

आर्य समाज ना होता तो कहाँ से भाई परमानन्द आते? कौन अमेरिका में आजादी की लड़ाई के लिए समर्पण और सहयोग करता? आर्य समाज ना होता सांडर्स को मारकर भगत सिंह और उसके साथियों को कौन ठहरने के लिए जगह देता? आखिर क्यों क्रन्तिकारी पुलिस से बचने के लिए डी.ए.वी. कालेज एवं आर्य समाज मंदिरों में ही शरण लेते थे? या सवाल ये भी है क्यों देश की आजादी के लिए मर-मिट रहे, लड़ रहे क्रन्तिकारी गुरुद्वारों, पौराणिक मठ, मंदिर और मस्जिदों में नहीं जाते थे?

आर्य समाज ही तो था जो पंजाब केसरी लाला लाजपत राय को खड़ा कर सकता था। राजस्थान केसरी कुंवर प्रताप सिंह वारहट को खड़ा कर सकता था। राजनितिक मैदान में कोई चौधरी चरण सिंह खड़ा हुआ तो कोई छोटूराम आगे आया। आर्य समाज ना होता तो पंजाब नेशनल बैंक कैसे खड़ा होता? जो उस दौरान क्रांतिकारियों के लिए पैसा जमा करने उनकी मदद करने के लिए और स्वदेशी स्वराज्य पर मोहर लगाने के लिए खोला गया था।

जब सारा भारत अंग्रेजों की दासता को अपना भाग्य समझकर सोया था। देशवासी अपनी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की बजाय उल्टा उनका श्रृंगार कर रहे थे। राजनैतिक और मानसिक दासता इस तरह लोगों के दिमाग में घर कर गयी थी कि देश स्वतन्त्रता की बात करना भी लोगों को एक स्वप्न सा लगने लगा था। देश और समाज को सती प्रथा, जाति प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, मूर्तिपूजा, छुआछूत एवं बहुदेववाद आदि बुराइयों ने दूषित कर रखा था। विभिन्न आडम्बरों के कारण धर्म संकीर्ण होता जा रहा था। तब यही ऋषि दयानंद की ही सेना थी जो समूचे देश में पत्र पत्रिकाओं लेखन से लेकर हर एक मैदान में अंग्रेजी हुकूमत और मुग़ल दासता से युद्ध कर रही थी।

ये सेना लड़ रही थी मुग़ल दासता की मानसिकता से,  ये सेना लड़ रही थी पाखंड और अंधविश्वास से। ये दयानंद के ही सिपाही थे जो छुआछूत एवं भेदभाव से लड़ते हुए भी अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे और देश की स्वतन्त्रता के लिए भी। समाज के सामने आज वह सच आना चाहिए। आज चर्चा होनी चाहिए, कौन थे वो लोग जिन्होंने एक बड़े वर्ग को दलित कहकर वेद और वैदिक शिक्षा से दूर कर दिया था? कौन थे वो लोग जिन्होंने महिला के हाथ शिक्षा छीन ली थी? कौन थे वो लोग जिनके सामने गरीब छुआछूत के शिकार लोगों का धर्मांतरण किया जा रहा था और वह मौन थे?

तब यही ऋषि दयानंद की सेना थी। जो लडकियों के लिए गुरुकुल खोल रही थी। उन्हें शिक्षा का अधिकार दिला रही थी। समाज में फैले पाखंड से लोगों को जागरूक कर रही थी। पाखंड खंडनी पताका फहरा रही थी।

आज दुनिया का कोई इतिहास ऋषि दयानंद और आर्य समाज का इतिहास कैसे भुला सकता है? कैसे मिटा सकता है 19 वीं सदी में गाँव-गाँव शहर में बनी आर्य संस्थाओं आर्य समाज मंदिरों के इतिहास को? ये अमिट इतिहास है जो ना भुलाया जा सकता, ना मिटाया जा सकता। क्योंकि जब-जब राष्ट्र में अन्धविश्वास बढेगा वो दयानंद याद आएगा, जब-जब नारी की महत्ता की बात होगी वो दयानंद याद आएगा।  जब-जब पाखंड बढेगा तब-तब वो दयानंद याद आएगा। जब राष्ट्र की एकता, हिंदी भाषा की महत्ता, वेदों के पढने और सुनने के अधिकार की बात आएगी, तब-तब वो दयानंद याद आएगा। उस महर्षि दयानंद को ना तो भुलाया जा सकता ना मिटाया जा सकता। क्योंकि इस देश में पग-पग पर वह महर्षि दयानंद याद आएगा। अगर किसी को यह अतिश्योक्ति लगे तो उनके लिए सवाल है और सवाल यह कि स्वतंत्रता के आन्दोलन में कितनी धार्मिक या सामाजिक संस्थाये थी जिससे जुड़े लोग राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए, स्वदेशी और स्वराज्य के लिए सीने पर गोली, गले फांसी और खंजर के वार सह रहे थे?

आर्य सन्देश पत्रिका

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