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देश और समाज को अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले आदर्श महापुरुष ऋषिभक्त स्वामी श्रद्धानन्द”

महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में जिस प्राचीन वैदिक कालीन गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का विवरण प्रस्तुत किया था उसे साकार रूप देने का स्वप्न उनके प्रमुख अन्यतम शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्वनाम महात्मा मुंशीराम) ने लिया था। उन्होंने इसके लिये अपना सर्वस्व अर्पण किया। इतिहास में शायद ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। उन्होंने अपना पूरा जीवन, समस्त धन दौलत, भौतिक सम्पत्ति सहित अपने दोनों पुत्र भी गुरुकुलीय पद्धति को समर्पित किये थे। गुरुकुल को स्थापित करने के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी ने जो त्याग व बलिदान किया उसका उल्लेख उनके जीवनीकार पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी ने अपनी पुस्तक ‘स्वामी श्रद्धानन्द’ में किया है। हम उसी विवरण को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

गुरुकुल की स्थापना के सम्बन्ध में ‘जो बोले सो कुण्डा खोले’ की कहावत महात्मा मुंशीराम जी पर अक्षरशः चरितार्थ होती है। आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द ने शिक्षा की जिस पुरातन आर्ष पद्धति को पुनर्जीवित करने पर अपने ग्रन्थों में जोर दिया है, इसके लिए महात्मा जी ने हृदय में कुछ ऐसी स्फूर्ति पैदा हुई कि उसके पीछे भिखारी बन गये। गुरुकुल की स्थापना का प्रस्ताव आपने ही आर्य जनता के सम्मुख उपस्थित किया था। उस प्रस्ताव को मूर्त रूप दने के लिए आप को ही गांव-गांव घूम कर गले में भिक्षा की झोली डाल कर चालीस हजार रुपया जमा करना पड़ा (आजकल के हिसाब से यह धनराशि लगभग 15 से 25 करोड़ के बीच हो सकती है -मनमोहन) और घर-बार त्याग कर स्वयं भी गुरुकुल में आकर बसेरा डालना पड़ा। उस के आचार्य और मुख्याधिष्ठाता होकर उसको पालने-पोसने और आदर्श शिक्षणालय बनाने का सब काम भी आप को ही करना पड़ा। हृदय के दो टुकड़े-दोनों पुत्र शुरू में ही गुरुकुल के अर्पण कर दिये गये थे। फलती-फूलती हुई वकालत रूपी हरा पौधा भी गुरुकुल के ही पीछे मुरझा गया था। पहिले ही वर्ष, सन् 1902 में आपने अपना सब पुस्तकालय गुरुकुल को भेंट किया। सम्वत् 1908 में लाहौर आर्यसमाज के तीसवें उत्सव पर सद्धर्म प्रचारक प्रेस भी, जिसकी कीमत आठ हजार से कम नही थी, गुरुकुल के चरणों पर चढ़ा दिया। तीस हजार से अधिक लगा कर खड़ी की गई जालन्धर की केवल एक कोठी बाकी थी। उसको भी सन् 1911 में गुरुकुल के दसवें वार्षिकोत्सव पर गुरुकुल पर न्यौछावर कर दिया। सभा ने उसको बीस हजार में बेच कर यह रकम गुरुकुल के स्थिर कोष में जमा की। यह सब उस हालत में किया गया था जबकि आपके सिर पर हजारों का ऋण था और गुरुकुल से निर्वाहार्थ भी आप कुछ नहीं लेते थे। कोठी दान करते हुए सभा के प्रधान के नाम लिखे एक पत्र में आपने लिखा था ‘‘मुझे इस समय 3600 रुपये ऋण देना है, वह मैं अपने लेख आदि की आय से चुका दूंगा। इस मकान से उस ऋण का कोई सम्बन्ध नहीं है।”

इस पर भी छिद्रान्वेषी लोगों के ये आक्षेप थे कि आप अपने पुत्रों के लिए कुछ न छोड़ कर पीछे उन पर कर्ज का भार लाद जायेंगे। मुंशीराम जी ने वह सब ऋण उतार कर और सन्तान को गुरुकुल की सर्वोच्च शिक्षा से अलंकृत करके ऐसे सब लोगों के मुंह बन्द कर दिये थे। इस प्रकार तन, मन, धन सर्वस्व आपने गुरुकुल को अर्पण कर दिया। अध्यापकों एवं कर्मचारियों पर भी इसका इतना असर पड़ा कि प्रायः सबने अपने वेतन में कमी कराई और एक-एक मास का वेतन गुरुकुल को दान में दिया। अन्त में आप ने अपना स्वास्थ्य भी गुरुकुल के पीछे मिट्टी कर दिया। सन् 1908 में आप को लाहौर में हर्निया का आपरेशन तक कराना पड़ा। पर, वह सब कष्ट सदा के लिए ही बना रहा। पेटी बांधने पर भी वह कष्ट कभी-कभी उग्र रूप धारण कर लेता था। कई बार पांच-पांच, छः-छः मास के लिए डाक्टर बाधित करके आप को क्वेटा, कसौली आदि पहाड़ी स्थानों पर भेजते थे, पर आपको एक-दो महीने में ही गुरुकुल की चिन्ता वहां से वापिस लौटी लाती थी। गुरुकुल के लिए चन्दा इकट्ठा करने के लिए जो दौरे आपको करने पड़ते थे, उनसे स्वास्थ्य को बहुत धक्का लगता था। सन् 1910, 1911 और 1912 में गुरुकुल से विद्यार्थियों का शुल्क लेना बन्द कर लिया गया था। उन वर्षों में आपको बजट की पूर्ति के लिए जो कठोर परिश्रम करना पड़ा, उसका स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा। सन् 1914 में आपने गुरुकुल के लिए 15 लाख रुपये की स्थिर निधि जमा करने के लिए कठिन परिश्रम शुरू किया ही था कि स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। मानो अपने स्वास्थ्य की आपने उस सर्वमेध यज्ञ में अन्तिम आहुति दी थी, जिसका अलौकिक अनुष्ठान आपने आपने अपने जीवन रूपी यज्ञकुण्ड में किया था। आपने अपने को गुरुकुल के साथ इस प्रकार तन्मय कर दिया था कि आप के व्यक्तित्व और गुरुकुल के अस्तित्व को एक-दूसरे से अलग करने वाली किसी स्पष्ट रेखा का अंकित करना संभव नहीं था। वैसे मुंशीराम जी के हृदय में इस सर्वमेध-यज्ञ के अनुष्ठान की भावना बहुत पहले ही पैदा हो चुकी थी।

सन् 1891 की डायरी के 5 पौष (12 जनवरी) के पृष्ठ मे लिखा हुआ है-‘‘मातृभूमि के पुनरुद्धार के लिए बडे़ तप-युक्त आत्मसमर्पण की आवश्यकता है। बार-रूम में वकील भाइयों के साथ इस पेशे से धर्माधर्म के विषय में बातचीत हुई। मैं बार-बार अपने आत्मा से प्रश्न कर रहा हूं कि वैदिक धर्म की सेवा का व्रत धारण किये हुए क्या मैं वकील रह सकता हूं? मार्ग क्या है? कौन बतलाएगा? अपने स्वामी परमपिता से ही कल्याण-मार्ग पूछना चाहिये। यह संशयात्मक स्थिति ठीक नहीं। अपने देश तथा धर्म की सेवा के लिए पूरा आत्म-समर्पण करना चाहिये। परन्तु परिवार भी एक बड़ी रुकावट है। संदिग्ध अवस्था में हूं। कुछ निश्चय शीघ्र होना चाहिए। कृष्ण भगवान् ने कहा–संशयात्मा विनश्यति। पिता, तुम ही पथ प्रदर्शक हो।” यही नहीं, एक वर्ष पहिले सन् 1890 के 15 माघ की डायरी में भी लिखा हुआ है ‘‘गृहस्थ मुझे अन्तरात्मा की आवाज सुनने से रोकता है, नहीं तो बहुत काम हो सकता था। फिर भी जो कुछ कर सकता हूं, उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद है।” ऐसे उद्धरण और भी दिये जा सकते हैं और उनकी समर्थक कुछ घटनाए भी उद्धृत की जा सकती है, किन्तु इतने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि मुंशीराम जी गृहस्थ और वकालत दोनों के बन्धन काट कर देश और धर्म की वेदी पर पूरे आत्म-समर्पण अथवा सर्वमेध-यज्ञ के अनुष्ठान की तय्यारी बहुत पहिले से ही कर रहे थे। इसीलिए पतिव्रता पत्नी के असामयिक देहावसान के बाद पैंतीस-छत्तीस वर्ष की साधारण आयु, छोटे-छोटे बच्चों के लालन-पालन की विकट समस्या और मित्रों व सम्बन्धियों का सांसारिक प्रलोभनों से भरा हुआ अत्यन्त आग्रह होने पर भी मुंशीराम जी फिर से गृहस्थ में फंसने का विचार तक नहीं कर सकते थे।

निवृत्ति के मार्ग की ओर मुंह किये हुए महात्मा जी के लिए आत्म-समर्पण करने का अवसर उपस्थित होने पर फलती-फूलती वकालत भी रुकावट नहीं बन सकी। राजभवन की मोह-माया और ममता के सब बन्धन एक साथ तोड़ कर घोर तपस्या के लिए जंगल का रास्ता पकड़ने वाले बुद्ध के समान मुंशीराम जी ने भी वेद की इस वाणी को हृदयंगम करते हुए ‘उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धियो विप्रोऽजायत’ की भावना से चण्डी पहाड़ की तराई में हरिद्वार में गंगा के उस पार विकट जंगलों का रास्ता पकड़ा। कहते हैं त्यागी दयानन्द ने भी सन् 1824 के कुम्भ के बाद सर्वत्यागी होकर केवल लंगोटी रख तपस्या को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए इन्हीं जंगलों का रास्ता पकड़ा था। गुरुकुल की वह भूमि, मुंशीराम जी के सर्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान की यज्ञभूमि होने से, प्राचीन ऋषि-मुनियों की दण्डकारण्य की भूमि के समान ही आप के लिए तपोभूमि बन गई। उठती हुई आयु के वैभव-सम्पन्न होने के जीवन के सर्वश्रेष्ठ भाग को उस बीहड़ जंगल में गुरुकुल के रूप में पूर्ण स्वतन्त्र उपनिवेश बसाने में लगा देने के कारण उस भूमि को आपकी कर्मभूमि कहना चाहिए। गंगा की धारा के प्राकृतिक प्रकोप के प्रतिकूल एक नयी सृष्टि की रचना करने वाले महात्मा मुंशीराम जी ही उस भूमि के ब्रह्मा थे। उस भूमि का छोटे से छोटा परिवर्तन भी आपकी आंखों के सामने हुआ था। गुरुकुल की वाटिका में लगाये गये एक-एक पौधे और उसमें बखेरे गये एक-एक बीज को आपका आशीर्वाद प्राप्त था। उस भूमि में खड़े किये गये मकानों की नींव तक में भरी हुई एक-एक रोड़ी और उस रोड़ी पर जमाई गई एक-एक इंर्ट में आपके त्याग की भावना कुछ ऐसी समाई हुई थी, जैसे आपने अपने हाथों से ही उनको चुना हो। घूमने की सड़कें, खेलने के मैदान और आश्रम तथा विद्यालय के दालान, सारांश यह कि गुरुकुल की सबकी सब रचना आपके महान् व्यक्तित्व की जीती जागती निशानी थी। ब्रह्मचारी और कर्मचारी ही नहीं, उस भूमि के पशु, पक्षी, वनस्पति और जंगम सृष्टि तक में आपके सर्वस्व अर्पण की स्पष्ट छाया दीख पड़ती थी। मुंशीराम जी के लिए यह सर्वत्र-अर्पण अथवा सर्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान एक विस्तृत गृहस्थ का बोझ था। आपके सार्वजनिक जीवन के जिस भाग को इस जीवनी में वानप्रस्थ का नाम दिया जा रहा है, उसके लिए आप कहा करते थे-‘‘मैं अधिकतर गृहस्थ में फंस गया हूं। आपका यही विस्तृत गृहस्थ गुरुकुल कांगड़ी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।”

इन पंक्तियों को पढ़कर हमें स्वामी श्रद्धानन्द जी का सर्वस्व त्यागी स्वरूप प्रत्यक्ष होता है। उन्होंने जिस गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की वह आजादी व उसके कुछ वर्षों बाद तक फूला फला। वर्तमान स्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द जी व महर्षि दयानन्द के विचारों व भावनाओं के अनुकूल हमें प्रतीत नहीं होता। स्वामी श्रद्धानन्द जी की यह जीवनी “स्वामी श्रद्धानन्द” नाम से ‘हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन सिटी’ द्वारा प्रकाशित की गई है। यदि किसी को आदर्श आर्य के जीवन के दर्शन करने हों तो वह आपको इस जीवनी में स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन को पढ़कर मिलेगा। स्वामी जी का जीवन बहुआयामी था। उन्होंने देश की आजादी व समाज सुधार के अनेक कार्यों को किया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे रैम्जे मैकडोनाल्ड ने उन्हें जीवित ईसामसीह की उपाधि दी थी। स्वामी जी की आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ एक उत्तम आत्मकथा है। आर्य विद्वान डॉ. विनोद चन्द्र विद्यालंकार जी ने ‘एक विलक्षण व्यक्तित्व – स्वामी श्रद्धानन्द’ नाम से स्वामी श्रद्धानन्द जी पर पुस्तक लिखी है। यह पुस्तक भी उत्तम कोटि का ग्रन्थ हैं। आप इन ग्रन्थों को पढ़कर अपने जीवन को श्रेष्ठ जीवन बनाने की प्रेरणा ले सकते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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