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धार्मिक सजाओं का खेल संविधान का अपमान

अपराध ये था कि एक 19 वर्ष की लड़की ऋचा पटेल ने सोशल मीडिया पर मजहब विशेष को लेकर टिप्पणी की थी। टिप्पणी भी कोई बड़ी नहीं बस सवाल पूछा था कि तरबेज अंसारी की हत्या पर आक्रोशित होकर कुछ मुस्लिम लड़के टिकटोक एप्प पर आतंकी बनने की धमकी दे रहे है। यदि एक दो घटना पर मुस्लिम आतंकी बन सकते है तो कश्मीर से लाखों हिन्दू निकाले गये, लेकिन हिन्दुओं ने आतंकी बनने की धमकी नही दी? इस अपराध में उसे आधी रात को उसे गिरफ्तार किया जाता है, वो भी लड़की को। जहां तक महिलाओं की गिरफ्तारी का संबंध है तो सीआरपीसी की धारा 46(4) कहती है कि किसी भी महिला को सूरज डूबने के बाद और सूरज निकलने से पहले गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। लेकिन गिरफ्तारी हुई और लड़की को जेल भेजा गया।

इसके बाद कानून द्वारा जमानत सात-सात हजार के दो निजी मुचलके समेत इस शर्त पर जमानत मिली कि अब लड़की को पांच कुरान सरकारी स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय में अपने हाथों से बाँटने होंगे। हालाँकि अब ये आदेश वापिस ले लिया है। किन्तु अपराध की यह सजा किसी शरियत अदालत किसी काजी या अरब के शेख ने नहीं दी बल्कि यह सजा भारत के धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले संविधान का पालन करने की शपथ लेने वाले न्यायिक दंडाधिकारी मनीष कुमार सिंह की अदालत ने सुनाई थी।

खबर पढ़ते ही मैं अदालत और संविधान भूल गया। मैं भूल गया में 21 वीं सदी के स्वतन्त्र भारत में रहता हूँ। मुझे लगा मैं 300 वर्ष पहले का वो फरमान सुन रहा हूँ जब हकीकत राय का अपने मुसलमान सहपाठियों के साथ झगड़ा हो गया था। उन्होंने माता दुर्गा के प्रति अपशब्द कहे,जिसका हकीकत ने विरोध करते हुए कहा,”क्या यह आप को अच्छा लगेगा यदि यही शब्द मै आपकी बीबी फातिमा के सम्बन्ध में कहुँ? बस इस्लाम की तोहीन के आरोप में हकीकत को मारना पीटना शुरू कर दिया, मुस्लिम लोग उसे मृत्यु-दण्ड की मांग करने लगे। हकीकत राय के माता पिता ने भी दया की याचना की। तब हाकिम (जज) आदिल बेग ने कहा,”मै मजबूर हूँ. परन्तु यदि हकीकत राय इस्लाम कबूल कर ले तो उसकी जान बख्श दी जायेगी।

यानि इन तीन सौ वर्षों में हम सिर्फ यहाँ तक पहुंचे कि मजहब विशेष पर यदि मुंह खोला तो संविधान उसका प्रचार करने का आदेश जारी करेगा। क्या यह साफ समझा जाये कि देश की मूल्य प्रणाली के अनुकूल संविधान एवं न्यायविधान में बदलाव हो चूका है। क्या यह उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि सरकार किस दिशा में बढ़ रही है। और हम कानून के शाशन में नहीं धार्मिक अदालतों के राज में जीवन जी रहे है। कोई भी महीना नहीं गुजरता जब हम मजहब विशेष के लोगों के द्वारा हिन्दू धर्म के खिलाफ भाषण देने, हिन्दुओं के महापुरुषों को अपशब्द कहने से रूबरू न होते हों। जरा याद कीजिए अकबरुद्दीन ओवैसी का खुले मंच से वो भाषण जब वह श्रीरामचन्द्र जी से लेकर माता कौशल्या तक को अपशब्द कहे थे तब कोई जज यह फैसला सुनाने की हिम्मत नहीं करता कि जाओं अब गीता या वेद बाँट कर आओ।

बचपन से हम यह सुनते आये है कि संविधान की आत्मा स्पष्ट है लेकिन आज जजों को स्पष्टता की जरूरत है। उन्हें संविधान के मुताबिक, उसकी आत्मा के मुताबिक काम करने होंगे। भारतीय गणराज्य मुस्लिमों, ईसाइयों और हिंदुओ को एक समुदाय के तौर पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर देखने के लिए अधिकृत है। इसका मतलब है। अगर आपने अपराध किया है तो सजा आपका धर्म देखकर नहीं दी जा सकती। किन्तु ऋचा पटेल के मामले में न्यायिक दंडाधिकारी मनीष कुमार सिंह की अदालत ने जो सजा सुनाई है वह संविधान के ऊपर कालिख है।

आज मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड क्या कर रहा है, वह कैसी सजा या फरमान सुना रहा है संविधान का कितना उल्लंघन कर रहा हैं यह उनका सामुदायिक मामला हो सकता है। किन्तु भारतीय संविधान के मुताबिक किसी भी व्यक्ति पर कोई समुदाय अपना हक नहीं जमा सकता है। ऋचा पटेल का अपराध कितना बड़ा है या कितना छोटा यह न्यायालय धार्मिक भावनाओं का सेलाब देखकर तय नहीं करेगा। जो लोग आज यह कह रहे है कि फैसला मुस्लिम वर्ग को संतुष्ट करने के लिए लिया गया। अब अगर इक्कीसवीं सदी न्यायालय भी संविधान को नजरअंदाज कर लोगों की सामूहिक अंतरात्मा को संतुष्ट करने में रुचि ले रही हैं तो फिर मध्यकाल में इस्लाम के नाम जिरगा पंचायतों ने जो फैसले लेकर हिंसा का तांडव मचाया उन्हें क्या बोलें, वह पंचायतें  भी अपने लोगों की  सामूहिक अंतरात्मा ही संतुष्ट कर रही होगी? यदि ऐसा है तो न्यायिक दंडाधिकारी मनीष कुमार सिंह को स्पष्ट करना चाहिए कि वह संविधान का पालन कर रहा है या धार्मिक पुस्तकों का..?

 राजीव चौधरी

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