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नवसंवत्सर-हमारी विरासत का पर्व-2076

वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार भारतीय नव वर्ष विक्रम संवत् का शुभारम्भ चैत्र प्रतिपदा के प्रथम दिन से माना जाता है। इस बार 6 अपै्रल 2019 को नवसंवत्सर 2076 का आरम्भ होगा। चैत्र सुदि प्रतिपदा को नवसंवत्सर मानने के अनेक वैज्ञानिक तथ्य उपलब्ध होते हैं। हमारे प्राचीन प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ भी इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं। ‘ब्रह्म पुराण’ में कहा गया है कि – सृष्टि का प्रथम सूर्योदय चैत्र सुदि प्रतिपदा व मेष संक्रान्ति और काल के विभाग, वर्ष, ऋतु, आयन, मास, पक्ष, दिन, मुहूर्त, लग्न और पल एक साथ आरम्भ हुए-

                                चैत्र मासि जगद् ब्रह्म सरार्ज प्रथमे ऽ हनि।

                                शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।।

ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘हिमाद्रि’ के अनुसार चैत्र मास में शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा में जगत की रचना की थी। आचार्य भास्कर ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ में लिखा है कि- चैत्र मास शुक्ल पक्ष के आरम्भ में दिन, मास, वर्ष, युग एक साथ आरम्भ हुए। इसी कारण भारतवर्ष में कई संवत् चैत्र प्रतिपदा से आरम्भ किए गए।

                सप्तर्षि संवत्, कलियुग संवत्, बुद्ध निर्वाण संवत्, वीर निर्वाण संवत्, मौर्य निर्वाण संवत् आदि अनेक ऐसे संवत् प्रचलन में रहे हैं जिनका सम्बन्ध भारतीयों के सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन से गहरे से जुड़ा रहा है। ‘सप्तर्षि सवंत्’ की मान्यता कश्मीर क्षेत्र में प्रमुख रूप से रही है। ज्योति विज्ञान की कल्पना के अनुसार आकाश में स्थित सप्तर्षि तारकापुंज की अपनी गति विद्यमान रहती है। समस्त नक्षत्र मण्डल का भ्रमण करने में उन्हें 2700 साल लगते हैं। इस कालावधि को ‘सप्तर्षि चक्र’ कहते हैं। सप्तर्षि काल एंव शक का निर्देश पौराणिक साहित्य में प्राप्त होता है। इस शक को ‘शक काल’ एवं ‘लौकिक काल’ नामांतर भी प्राप्त थे। कश्मीर के ज्योतिर्विदों के अनुसार कलिवर्ष 27 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन इस ‘शक’ का आरम्भ हुआ था। कश्मीरी इस दिन को ‘नवरह’ के रूप में मनाते हैं। इसके अतिरिक्त कलियुग संवत् भी विभिन्न संवतों की कड़ी में रहा है। इस संवत् को भारतीय युद्ध संवत् अथवा युधिष्ठर संवत् भी कहा गया है। इस संवत् का आरम्भ ई.पू. 3102 से माना है। स्कन्दपुराण में यह प्रयुक्त हुआ है किन्तु अब यह व्यावहारिक नहीं है। इसी तरह जैन ग्रन्थों में तीर्थकर महावीर स्वामी वीर निर्वाण संवत् तथा बौद्ध ग्रन्थों में बुद्ध निर्वाण पर आधारित बुद्ध निर्वाण संवत् के उल्लेख प्राप्त होते हैं। यद्यपि अनेक संवत् अस्तित्व में आए किन्तु विक्रम संवत् ही सर्वमान्य रहा है। यह संवत् किसी सम्प्रदाय विशेष का न होकर सम्पूर्ण भारत की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को अपने भीतर समाहित करता है। मातृभूमि को विदेशियों की कुचक्रता से मुक्त कराने वाले वीर पराक्रमी राजा विक्रमादित्य के नाम से प्रचालित यह सम्वत् पूरे भारत में विभिन्न समुदायों द्वारा अपने-अपने ढंग से मनाया जाता है। सिन्धी समुदाय चैत्र शुक्ल द्वितीया पर ‘चैटी चंड महोत्सव’ का आयोजन श्रद्धा-भक्ति पूर्वक करता है क्योंकि विक्रम संवत् में इसी दिन उनके इष्टदेव श्री झूलेलाल जी का जन्मदिवस भी है। चेटी चंड के दिन ही ‘वरुण पूजा’ का भी विधान है। सिन्धी लोग श्री झूले लाल जी को वरुण की शक्ति का भी प्रतीक मानते हैं। इस दिन श्री झूले लाल जी की जयन्ती मनाई जाती है। श्री झूलेलाल जी का जन्म विक्रम संवत् 1007 में चैत्र शुक्ल द्वितीया को शुक्रवार के दिन हुआ था। सिन्धी लोगों के इष्टदेव श्री झूलेलाल जी की स्मृति में चेटी चण्ड महोत्सव भारत की प्राचीन सिन्धु घाटी की सभ्यता का स्मरण कराता है जहां सब के लिए सुख शान्ति की मंगलकामना की जाती थी।

                आन्ध्र के निवासी विक्रम संवत् के पहले दिन को ‘उगाड़ि’ उत्सव के रूप में मनाते हैं। आन्ध्र का ‘उगाड़ि’ हमारे पूर्वजों के ‘युगादि’ का रूपान्तरण है। युग का आरम्भ मानने के कारण संवत्सर के पर्व को ‘युगादि’ नाम से आयोजित करते रहे हैं। महाराष्ट्र की जनता में ‘विक्रम सवंत्’ को ‘गुड़ी पड़वा’ त्योहार से मनाने की परम्परा है। इस प्रकार आन्ध्र तथा महाराष्ट्र की जनता इस दिन विभिन्न तरीकों से हर्षोल्लास की अभिव्यक्ति करते हुए विक्रम संवत् का अभिनन्दन करती है और अपनी बहुमूल्य विरासत को सहेजे हुई है।

                इस दिन को नवसंवत्सर के आरम्भ को मानने का भौगोलिक कारण भी है। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्य कभी भूमध्य रेंखा के उत्तर में तो कभी दक्षिण में स्थित होता है किन्तु जिस एक दिन सूर्य ठीक भूमध्य रेखा पर रहता है उसी दिन को हमारे ऋषियों में संवत्सर का आरम्भ माना है और वसन्त ऋतु में पड़ने वाले विषुवद दिन को ही सूर्य भूमध्य रेखा के ऊपर आकर उत्तरी गोला(र् में प्रवेश करता है। छः मास उत्तरी गोलाद्ध को प्रकाशित करता हुआ पुनः विषुवद रेखा पर आकर दक्षिणी गोला(र् में प्रविष्ट होता है। इस प्रकार पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती हुई जब उसे विषुवद रेखा पर ले आती है उस दिन को नववर्ष का आरम्भ माना जाता है।

                भारत की समुभत संस्कृति प्रकृति के साथ गहरे रूप से जुड़ी हुई है। पृथ्वी के वातावरण में शीतोष्ण की विषमता पाई जाती है। इस विषमता के कारण शरीर में वात, पित और कफ की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। आयुर्वेद इन तीन दोषों की समता को ही मानव के स्वास्थ्य का आधारभूत सिद्धान्त मानता है। हमारे पूर्वजों की मान्यता कितनी वैज्ञानिक थी, इसका अनुमान इसी बात से सहज में लग सकता है कि जिस दिन सूर्य भूमध्य रेखा पर आता है उस दिन सृष्टि का वातावरण समशीतोष्ण होता है। प्रतिदिन की विषम सृष्टि पर इस दिन कहीं विषमता नहीं होती। संवत्सर के आरम्भ की मान्यता इस दिन से हट कर भला और किस दिन मानी जा सकती है?।

                विक्रम संवत् की सर्वमान्यता, पवित्रता तथा उत्कृष्टता को देखते हुए युग प्रवर्तक ऋषि दयानन्द ने सन् 1875 के इस दिन मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। )षि दयानन्द सच्चे राष्ट्र निर्माता थे। वह एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जहां अन्धकार, पाखण्ड, आडम्बर, अन्धविश्वास, अनीति अनाचार आदि का नामो निशां भी शेष न रहे। आर्य समाज की स्थापना करते हुए जिन दस नियमों को उन्होंने मान्यता दी वे समाज की अमूल्य धरोहर हैं जिन पर चल कर व्यक्ति अपना और समाज का कल्याण कर सकता है। इस प्रकार एक विशेष लक्ष्य को लेकर आर्यसमाज की स्थापना की गई थी और यह विशेष लक्ष्य एक विशेष दिन को ही निर्धारित किया गया। आर्य समाज की स्थापना के लिए इससे श्रेष्ठदिन भला और कौन सा हो सकता था? आज भी आर्यसमाज से जुड़ा हुआ विश्व का विस्तृत जनसमुदाय बड़ी धूम धाम से विक्रमसंवत् के दिन ‘आर्य समाज स्थापना’ दिवस को बड़े हर्षोल्लास से मनाता है। आर्य समाज का जनसमुदाय यज्ञ-हवन करते हुए सुगन्धित पदार्थो की आहूतियों को देकर पर्यावरण शुद्धि के साथ-साथ मानसिक प्रदूषण को दूर करने के विभिन्न यत्न करती है। आगामी वर्ष की नई योजनाओं को कार्यान्वित करने के संकल्प इसी दिन लेकर ‘आर्यसमाज स्थापना’ दिवस को सार्थक किया जाता है।

                विक्रमसंवत् के पर्व को भारत के अतिरिक्र अन्य देश भी किसी न किसी रूप में मनाते हैं। ब्रबीलोन के निवासी वंसत ऋतु के बाद की अमावस्या को 11 दिन तक मनाते हैं। वे इसे संकल्प दिवस के रूप में मनाते है और अनेक कुरीतियों को त्यागने का व्रत धारण करते हैं। ईराक में जब 21 मार्च के दिन सूर्य भूमध्यरेखा पर आता है तब ‘नौरोज पर्व’ मनाते हैं। वहाँ यह पर्व बारह दिनों तक निरन्तर आयोजित किया जाता है। येरुसलम में ‘पास्का’ नामक त्योहार यहूदी वसन्त की प्रथम पूर्णिमा के दिन मनाते हैं।

                सारांश यह है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के नवसंवत्सर को एक पर्व माना जाता है। वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, पणिनीकृत अष्टाध्यायी, ज्योतिष ग्रन्थ हिमाद्रि, भास्कराचार्य कृत सि(ान्त शिरोमणि, सूर्य सि(ान्त, मनुस्मृति तथा महर्षि दयानन्द कृत वेद भाष्य में इस दिन की महत्ता को स्थापित किया गया है। इन ग्रन्थों में प्रमाण हैं कि परमात्मा ने इसी दिन सृष्टि रचना करके मनुष्य को उपकृत किया। भारतीय मान्यताओं के अनुसार 31 दिसम्बर की रात कुछ ऐसा उल्लेखनीय है क्या जिसका आयोजन किया जाए? पहली जनवरी को नववर्ष के रूप में हम लोग उन्मादित होकर क्यों मनाते हैं? समस्त संचार माध्यम भी इस तथाकथित नववर्ष का अभिनन्दन करने में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगाते हैं और नवसंवत्सर का दिन उनके लिए कुछ विशेष नहीं। यह कितना लज्जाजनक है कि हमारा अपना नवसंवत्सर जो प्रकृति की समरसता और सामंजस्य का भी प्रतीक है, उपेक्षित सा निकल जाता है। भारतीय जनमानस को प्रभावित करने वाले संचार माध्यमों से अपेक्षा की जाती है कि नवसंवत्सर से सम्बन्धित कार्यक्रमों का निर्माण करके भारतीय पर्वो के महत्त्व को स्थापित करें। कोई भी राष्ट्र अपनी जड़ों से जुड़कर ही पोषित और विकसित हो सकता है।

                हमारे पर्व भारतीय सभ्यता और संस्कृति के दर्पण हैं। नवसंवत्सर की वैज्ञानिकता को विश्व में उजगार करना हमारा कर्त्तव्य है। प्राचीनकाल से भारतीयों के ज्ञान को विश्व में मान्यता मिली है। अतः हमें अपनी संस्कृति और परम्परा की ओर लौटना होगा। भारतीय परम्परा के अनुसार चैत्र सुदी प्रतिपदा को नवसंवत्सर का अभिनन्दन करते हुए, नववर्ष की शुभकामनाओं का आदान प्रदान करते हुए इस शुभपर्व को गौरव प्रदान करें।

                आइए, नवसंवत्सर का हार्दिक स्वागत करते हुए सबको शुभकामनाएं प्रेषित करें कि यह नवसंवत्सर सम्पूर्ण विश्व के लिए समरसता और शान्ति का सन्देश लाए।

डॉ. उमा शशि दुर्गा

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