Tekken 3: Embark on the Free PC Combat Adventure

Tekken 3 entices with a complimentary PC gaming journey. Delve into legendary clashes, navigate varied modes, and experience the tale that sculpted fighting game lore!

Tekken 3

Categories

Posts

नशे में हिंदी सिनेमा या समाज..?

साल 1961 में एक फिल्मफ रिलीज हुई “हम दोनों” देवानंद अभिनीत इस फिल्म एक गाना बड़ा मशहूर हुआ था। मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुँएं में उड़ाता चला गया। आज भी यह गाना नई पीढ़ी के मुंह से खूब सुना जा सकता है। इसके बाद साल 1984 में आयी प्रकाश मेहरा की फिल्म “शराबी” में अमिताभ बच्चन को शराब पीते रहते ही दिखाया गया है। यह दोनों फिल्में हमने 90 के दशक में टीवी पर कई बार देखी। उस समय यह लगने लगा था सिगार या शराब बुरी चीज नहीं है अगर बुरी चीज होती तो फिल्मी दुनिया के इतने बड़े सितारें क्यों पीते?

अब यह सवाल एक बार फिर उभरकर सामने आया है। अभी हाल ही में अकाली दल के विधायक मनजिंदर सिंह सिरसा ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट की जिसमें हिंदी सिनेमा कई सितारे दीपिका पादुकोण, शाहिद कपूर, विक्की कौशल, रणबीर कपूर, अर्जुन कपूर, और मलाइका अरोड़ा कारण जौहर के घर पर थे और नशा कर रहे थे। इस वीडियो को जवाब देते हुए उनकी ओर से कहा गया कि बॉलीवुड में अगर आप कोकीन नहीं लेते तो आप आधुनिक और मस्त नहीं हैं। हालाँकि बॉलीवुड में यह सब चलता रहता है नशा और हिंदी से जुड़े का बहुत पुराना संबंध है। फिल्मकार नायक नायिकाओं के कह देते है कि ये रहे नशे के उत्पाद इन्हें इस्तेमाल करें और रोल करें। परन्तु यह सब अभी तक छिपा हुआ था लेकिन आज यह तेजी से अधिक बाहर आता दिख रहा है मानो यह उनकी लगभग एक आवश्यकता बन गई है।

पिछले कुछ दशकों से देखा जाये सिनेमा मनोरंजन का एक बहुत प्रभावी माध्यम बना हुआ है, यही नहीं समय के साथ सिनेमा जगत ने सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवहार पर भी काफी असर डाला है। अगर आधुनिकता से फैशन तक के विस्तार में फिल्मों की सकारात्मक भूमिका मानी जा सकती है, तो फिर हिंसा, अपराध, नशाखोरी जैसी बुराइयों को प्रोत्साहित करने में उसके योगदान को कैसे खारिज किया जा सकता है? सभी जानते हैं कि सिगरेट पीना स्वास्थ के लिए हानिकारक है, बावजूद इसके हिंदी सिनेमा के पर्दे पर धुएं का छल्लास खूब उड़ता है। किसी को शौक, किसी को तनाव तो कोई गम और खुशी में पीता है।

पिछले कुछ सालों में मनोचिकित्सक भी इस बात को मानते आये कि फिल्माए गये नशे के दृश्यों का असर युवाओं और किशोरों पर होता है। अक्सर देखने में आया कि फिल्मों में दृश्यों में नायक तनाव होता है या प्रेम विच्छेद तो उसे शराब या सिगरेट का सहारा लेते हुए दिखाया जाता है, जैसे इस हादसे कि सिर्फ यही सर्वोत्तम जड़ी बूटी हो। इसके अलावा भी फिल्मी दृश्यों में गंभीर मामलों में जैसे किसी केस की जाँच वगेरह में पुलिस के बड़े अधिकारीयों को सिगरेट के कश लगाते हुए दिखाया जाता है। यानि धूम्रपान करने वाले चरित्रों को अक्सर महान व्यक्तित्व या विशेष रूप से सबसे प्रमुख व्यक्ति के तौर पर दिखाया जाता है। ऐसे दृश्यों के होने की जरूरत कहानी के हिसाब से हो सकती है, लेकिन सिनेमा में ऐसा चलन है कि उत्पादों को दिखाकर परोक्ष रूप से उनका विज्ञापन किया जाता है। ऐसे में व्यावसायिक कारणों से दृश्यों को कहानी के भीतर रखा भी जा सकता है। बरसों तक सिनेमा में शराब का सांकेतिक प्रयोग भी होता रहा है। किन्तु हाल के बरसों में शराब को मादकता के साथ आइटम नाच-गानों में परोसने तथा सामान्य रूप से शराब पीते दिखाने का चलन बढ़ा है।

फिल्मी गानों में उच्च वर्ग के मॉडल और साथियों की उपस्थिति भी धूम्रपान का प्रोत्साहन बिना किसी रोक-टोक के जारी है। चूंकि किशोर इन लोगों से अधिक प्रभावित होते हैं, इसलिए माता पिता, स्कूल और स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा उन्हें सिगरेट से बचाने की कोशिशें अक्सर असफल सिद्ध होती जा रही हैं। इसके देखा देखी आज समाज में युवा और किशोर ही नहीं बल्कि कम उम्र की लड़कियों में भी बियर और सिगरेट पीने का चलन खूब बढ़ रहा है। पिछले कुछ दिनों में मुझे बहुत से ऐसे परिवार मिले जो यह कहते दिखे कि हमने तो अपने बच्चों को इन सब चीजों से बचाने के लिए घर में टेलीविजन नहीं लिया बच्चों को कंप्यूटर दिला दिया। अब हो सकता है उन्होंने यह सही कदम उठाया हो किन्तु सिनेमा देखने-दिखाने के चैनल अब इंटरनेट पर भी हैं, जहां सरकार की कोई गाइड लाइन काम ही नहीं करती।

आज समाज को तीन चीजें आगे लेकर बढ़ रही है साहित्य, धर्म और सिनेमा इंडस्ट्री। देखा जाये तीनों ही अपना गैर जिम्मेदाराना व्यवहार अपना रहे है। धर्म से जुड़े आर्य समाज जैसे कुछ संगठनों को छोड़ दिया जाये तो आप हरिद्वार जाओं या प्रयागराज अखाड़ों के बाबाओं के हाथ में चिलम दिखाई देती है। साहित्य भी आज दिन पर दिन विषेला होता जा रहा है। इसके बाद सिनेमा के उदहारण तो सभी लोग जानते है कि एक दौर ऐसा था, जब शराब और उत्तेजक दृश्यों के सहारे दर्शकों को लुभाने की कोशिश होती थी, यहां तक कि बलात्कार को भी इसके लिए कहानी में डाला जाता था। हालाँकि आज बलात्कार के दृश्यों की कमी आई है। ऐसा शराब और नशे के साथ भी हो सकता है।

अब प्रश्न यह है कि रास्ता क्या हो सकता है। पहली बात तो यह कि अपने बच्चों को फिल्मी नायक-नायिकाओं की निजी जिन्दगी के बारे बताना चाहिए कि कितने लोग नशे आदि के कारण अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी तबाह किये बैठे है। उनकी जिन्दगी की ये हिस्से, हमें पर्दे पर नहीं दिखते हैं। इन फिल्मी सितारों की निजी जिन्दगी देखने के बाद पता चलता है कि फिल्मी दुनिया, उतनी भी रंगीन और खुश नहीं है, जितना ये दिखाई देती है। दूसरा फिल्मकारों को समझना होगा नशा एकमात्र तबाही है और सिनेमा को इसे बढ़ावा नहीं देना चाहिए। नशे के दृश्य न डाले जाएं और गीतों में इसे महिमंडित करने से बचें ताकि आने वाली पीढ़ी इस महामारी से बच सकें।

लेख-राजीव चौधरी 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *