Categories

Posts

नास्तिकों के तर्कों की समीक्षा

प्रश्न 1. जब संसार बिना बनाये वाले के बन जाता है (बिना ईश्वर के) तो कुम्हार के बिना घड़ा और चित्रकार के बिना चित्र भी बन जाना चाहिए ?

प्रश्न 2. जब ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं तो जड़ प्रकृति कैसे गतिशील होगी? हमने देखा है कि जो भी प्रकृति से बनी अर्थात् भौतिक वस्तुएँ हैं, उनको अगर मनुष्य गति न दे तो वे एक जगह ही स्थिर रहती हैं। नास्तिकों के अनुसार जब प्रकृति चेतनवत् कार्य करती है (क्योंकि नास्तिकों की दृष्टि में ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं और प्रकृति ही चेतनवत् कार्य करती है) तो प्रकृति से बनी भौतिक वस्तुओं को भी चेतनवत् कार्य करना चाहिए। अर्थात् कुर्सी को अपने आप चलकर बैठनेवाले के पास जाना चाहिए, भरी हुई या खाली बाल्टी को स्वयं चलकर यथास्थान जाना चाहिए। नल से अपने आप पानी निकलना चाहिए, साइकिल को अपने आप बिना मनुष्य के चलाये चलना चाहिए; लेकिन हम देखते हैं कि बिना मनुष्य के गति दिये कोई भी भौतिक पदार्थ स्वयं गति नहीं करता। फिर प्रकृति चेतन कैसे हुई?
प्रश्न 3. जब ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं तो फिर कर्मों का भी कोई महत्त्व नहीं रह जाता, चाहे कोई अच्छे कर्म करे या बुरे, उसको कोई फल नहीं मिलेगा, वह आजाद है। क्योंकि ईश्वर कर्मफल प्रदाता है लेकिन नास्तिकों के अनुसार ईश्वर है ही नहीं तो फिर जड़ प्रकृति में इतनी सामर्थ्य नहीं कि किसी व्यक्ति को उसके कर्मों का अच्छा या बुरा फल दे सके। इस पर नास्तिक कहते हैं कि जो व्यक्ति दुःख या सुख भोग रहे हैं, वे स्वभाव से भोग रहे हैं। लेकिन यह बात तर्कसंगत नहीं क्योंकि यदि स्वभाव से दुःख, सुख भोगते तो या तो केवल दुःख ही भोगते या सुख; दोनों नहीं क्योंकि स्वभाव बदलता नहीं। और दूसरी बात यह है कि फिर कर्मों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। फिर व्यक्ति चाहे अच्छे कर्म करे या बुरे; उनका कोई फल नहीं मिलेगा क्योंकि सुख-दुःख स्वभाव से हैं।
प्रश्न 4. जब नास्तिकों की दृष्टि में ईश्वर नहीं है तो फिर उनको कर्मों के फल का भी कोई डर नहीं रहेगा, चाहे कोई कितने ही पाप करें, कितनी ही दुष्टता करें; किसी का डर ही नहीं। क्योंकि जिसका डर था उसी को वे मानते नहीं और प्रकृति कर्मों के फल दे नहीं सकती।
प्रश्न 5. जब व्यक्ति पाप-कर्म (चोरी, जारी आदि) करता है तो उसके अन्तःकरण में भय, शङ्का, लज्जा आदि उत्पन्न होते हैं, ये ईश्वर की प्रेरणा से उत्पन्न होते हैं; इससे भी ईश्वर की सिद्धि होती है। क्योंकि प्रकृति जड़त्व के कारण इन विचारों को मनुष्य के अन्तःकरण में करने में असमर्थ है। क्योंकि ये भाव मनुष्य के अन्दर तभी उजागर होते हैं, जब वह पाप-कर्म करना आरम्भ करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा ही उसके अन्दर ये भाव उजागर करता है। जिससे मनुष्य पाप-कर्म करने से बच जाये। फिर नास्तिक ईश्वर की मान्यता कैसे स्वीकार नहीं करते?
प्रश्न 6 जब किसी नास्तिक पर बड़ी आपत्ति या दुःख (रोगादि या अन्य) आता है तो हमने देखा है कि बड़े से बड़ा नास्तिक भी ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने को विवश हो जाता है और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखते हुए कहता है कि―”हे ईश्वर! अब तो मेरे दुःख को दूर कर दो, मैंने कौन से बुरे कर्म किये हैं, जिनके कारण मुझे ये दुःख मिला है।” जब नास्तिक ईश्वर को मानता ही नहीं तो दुःख के समय उसे ईश्वर और अपने बुरे कर्म क्यों याद आते हैं। पं० गुरुदत्त विद्यार्थी बड़े नास्तिक थे लेकिन स्वामी दयानन्द की मृत्यु के समय उन्हें भी ईश्वर की याद आई और पक्के आस्तिक बन गये। फिर नास्तिक क्यों ईश्वर को न मानने का ढोल पीटते हैं ? केवल दिखावे के लिए, जबकि परोक्ष रुप से वे ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं।
प्रश्न 7. जब नास्तिकों से प्रश्न किया जाता है कि मृत्यु को क्यों नहीं रोक लेते हो, तो वे कहते हैं कि “टी.वी. क्यों खराब होती है, जैसे टी.वी. यन्त्रों का बना है ऐसे ही शरीर कोशिकाओं का बना है।” ठीक है कौशिकाओं का बना है तो जब टी.वी. के यन्त्र बदलकर उसको सही कर देते हो तो मृत्यु होने पर शरीर के भी यन्त्र बदल दिया करो। जब टी.वी. खराब हुआ चल जाता है तो शरीर भी तो उसके यन्त्र बदलकर चलाया जा सकता है। लेकिन नहीं, बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी मृत्यु के बाद शरीर को चला नहीं सकता। क्यों? क्योंकि यह ईश्वर का कार्य है, जब टी.वी. आदि भौतिक चीजें खराब होने पर उनके यन्त्र, पुर्जे आदि बदलने पर चल जाता है तो शरीर भी उसके कोशिकाओं को बदलने पर चल जाना चाहिए? क्या कोई वैज्ञानिक शरीर के अन्दर की मशीनरी बना सकता है या प्रकृति मृत्यु के समय शरीर को ठीक क्यों नहीं करती, जब प्रकृति से बना शरीर है तो उसको प्रकृति को ठीक कर देना चाहिए (क्योंकि नास्तिकों के अनुसार प्रकृति ही गर्भ के अन्दर शरीर का निर्माण भी करती है, ईश्वर नहीं करता अर्थात् प्रकृति चेतनवत् कार्य करती है), फिर उस शरीर को अग्नि में क्यों जलाया जाता है? न प्रकृति उसको चला सकती, न वैज्ञानिक फिर नास्तिक क्यों प्रकृति और वैज्ञानिकों की रट लगाते हैं? जबकि सत्य यह है कि शरीर की मृत्यु ‘आत्मा और शरीर का वियोग होना’ है। इस सत्यता को नास्तिक क्यों नहीं स्वीकार करते?
प्रश्न 8. नास्तिक कहते हैं कि ज्ञान-विज्ञान वेदों में नहीं है, प्रत्युत् वैज्ञानिकों ने ही समस्त विज्ञान की रचना की है। मैं नास्तिकों से पूछता हूँ कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनि एक से बढ़कर एक आविष्कार करते थे। ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम व लक्ष्मण को ब्रह्मास्त्र जैसे अनेक अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी थी। और उनका अनुसन्धान ऋषि-मुनि करते थे। क्योंकि उनके पास वेदों का ज्ञान-विज्ञान था। नास्तिक वैज्ञानिकों की दुहाई देते हैं, उस समय वैज्ञानिक नहीं थे, उस समय ऋषि-मुनि ही बड़े-बड़े आविष्कार करते थे। ऋषि-मुनि ही उस समय बड़े वैज्ञानिक थे। एक से एक विमान बनाते थे। रावण के पास ऐसा पुष्पक विमान था जो विधवाओं को अपने ऊपर नहीं बिठा सकता था अर्थात् विधवा औरत अगर उस पर विमान पर बैठ जाये तो वह उड़ नहीं सकता था। यह सब विवरण रामायण में ‘त्रिजटा व सीता संवाद’ में है; जिसका उसके स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने वाल्मीकि रामायण के भाष्य में किया है। पूरा विवरण इस प्रकार है―”जब युद्ध हो रहा था तो रावण के पुत्र इन्द्रजित् ने अदृश्य होकर सर्प के समान भीषण बाणों से, शरबन्ध से बाँध दिया और उनको मूर्छित कर दिया और हंसता हुआ अपने राजमहल में आया। रावण ने त्रिजटा-सहित सभी राक्षसियों को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम जाकर सीता से कहो कि इन्द्रजित् ने राम और लक्ष्मण को युद्ध में मार डाला है, फिर उसे पुष्पक विमान में बैठाकर रण भूमि में मरे हुए उन दोनों भाइयों को दिखाओ। जिसके बल के गर्व से गर्वित होकर मुझे कुछ नहीं समझती उसका पति भाई सहित युद्ध में मारा गया। दुष्टात्मा रावण के इन वचनों को सुनकर और “बहुत अच्छा” कहकर वे राक्षसियाँ वहाँ गई जहाँ पुष्पक-विमान रखा था।
तत्पश्चात् त्रिजटा-सहित सीता को पुष्पक विमान में बैठा वे राक्षसी सीता को राम-लक्ष्मण का दर्शन कराने के लिए ले चलीं।
उन दोनों वीर भाइयों को शरशय्या पर बेहोश पड़े देखकर सीता अत्यन्त दु:खी हो, उच्च स्वर से बहुत देर तक विलाप करती रही।तब विलाप करती हुई सीता से त्रिजटा राक्षसी ने कहा―तुम दु:खी मत होओ। तुम्हारे पति मरे नहीं, जीवित हैं। हे देवी ! मैं अपने कथन के समर्थन में तुम्हें स्पष्ट और पूर्व-अनुभूत कारण बतलाती हूँ जिससे तुम्हें निश्चय हो जायेगा कि राम-लक्ष्मण जीवित हैं।―
इदं विमानं वैदेहि पुष्पकं नाम नामत: ।
दिव्यं त्वां धारयेन्नैवं यद्येतौ गतजीवितौ ।।
―(वा० रा०,युद्ध का०,सर्ग २८)
भावार्थ―हे वैदेहि ! यदि ये दोनों भाई मर गये होते तो यह दिव्य पुष्पक-विमान तुम्हें बैठाकर नहीं उड़ाता (क्योंकि यह विधवाओं को अपने ऊपर नहीं चढ़ाता।)
नोट―बीसवीं शताब्दी को विज्ञान का युग बताया जाता है, परन्तु वैज्ञानिक अब तक ऐसा विमान नहीं बना पाएँ हैं।
(स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती)”
उस समय ऋषि-मुनियों के काल में ऐसे-ऐसे आविष्कार थे जिनकी नास्तिक कल्पना भी नहीं कर सकते। क्या आजकल वैज्ञानिक पुष्पक विमान जैसा आविष्कार कर लेंगे। कदापि नहीं। फिर नास्तिक क्यों वैज्ञानिकों की दुहाई देते हैं और ये क्यों नहीं मानते कि समस्त ज्ञान-विज्ञान के स्रोत वेद हैं। (इस विषय में एक लेख है मेरे पास―”प्राचीन भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा” वह अवश्य पढ़ें) ।
प्रश्न 9. अष्टाङ्ग योग द्वारा लाखों योगियों ने उस सृष्टिकर्त्ता का साक्षात्कार किया है। ऋषि ब्रह्मा से लेकर जैमिनी तक अनेकों ऋषि-मुनि तथा राजा-महाराजा भी ईश्वर-उपासना किया करते थे और आज भी अनेकों लोगों की उस परम चेतन सत्ता में श्रद्धा है। वेद-शास्त्रों में भी मनुष्य का प्रथम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति ही है। प्राचीनकाल में सभी ऋषि-मुनि, योगी, महापुरुष और सन्त लोग ईश्वर में अटूट श्रद्धा रखते थे तथा बिना सन्ध्योपासना किये भोजन भी नहीं करते थे। एक से बढ़कर ब्रह्मज्ञानी थे। उन लोगों वेद-शास्त्रों के अध्ययन से यही निचोड़ निकाला कि बिना ईश्वर-भक्ति के हमारा कल्याण नहीं हो सकता। और घण्टों तक समाधि लगाकर उस ईश्वर का साक्षात्कार किया करते थे और उस परमसत्ता की भक्ति से मिलनेवाले आनन्द में लीन रहते थे। वाकई जो ईश्वर-उपासना से आनन्द मिलता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तो जब करोड़ों, अरबों लोगों (ईश्वर-भक्तों ) की उस परम चेतनसत्ता में श्रद्धा है तो कुछ तथाकथित नास्तिक कैसे ईश्वर की सत्ता को नकार सकते हैं या उनके न मानने से ईश्वर की सत्ता नहीं होगी ? क्या ये करोड़ों-अरबों (ईश्वर-उपासक) लोग ईश्वर-उपासना में व्यर्थ का परिश्रम कर रहे हैं/रहे थे? इसका भी नास्तिक जवाब दें।
प्रश्न 10 नास्तिक कहते हैं कि ईश्वर के बिना ब्रह्माण्ड अपने आप ही बन गया। इसका उत्तर यह है कि बिना ईश्वर के ब्रह्माण्ड अपने आप नहीं बन सकता। क्योंकि प्रकृति जड़ है और ईश्वर चेतन है। बिना चेतन सत्ता के गति दिये जड़ पदार्थ कभी भी अपने आप गति नहीं कर सकता। इसी को न्यूटन ने अपने गति के पहले नियम में कहा है―( Every thing persists in the state of rest or of uniform motion, until and unless it is compelled by some external force to change that state ―Newton’s First Law Of Motion ) तो ये चेतन का अभिप्राय ही यहाँ External Force है ।
इस बात पर नास्तिक कहते हैं― “External Force का अर्थ तो बाहरी बल है तो यहाँ पर आप चेतना का अर्थ कैसे ले सकते हो ?” इसका उत्तर यह है―”क्योंकि “बाहरी बल” किसी बल वाले के लगाए बिना संभव नहीं । तो निश्चय ही वो बल लगाने वाला मूल में चेतन ही होता है । आप एक भी उदाहरण ऐसा नहीं दे सकते जहाँ किसी जड़ पदार्थ द्वारा ही बल दिया गया हो और कोई दूसरा पदार्थ चल पड़ा हो ।
भूपेश आर्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *