Tekken 3: Embark on the Free PC Combat Adventure

Tekken 3 entices with a complimentary PC gaming journey. Delve into legendary clashes, navigate varied modes, and experience the tale that sculpted fighting game lore!

Tekken 3

Categories

Posts

पति-पत्नी सदुपदेश ग्रहण करें

हे दम्‍पती। तुम दोनों (जैसे) भूख से व्‍याकुल साथ रहने वाले दो पशु (फर्ररेषु) घास के मैदान में आश्रय लेते हैं वैसे ही राग, द्वेष, काम-दाह से पीडि़त हुये आध्‍यात्‍मिक भोजन के लिये जंगलों में स्‍थित महात्‍माओं का सत्‍संग करो। जैसे दो घनी मित्र (प्रायोग श्‍वात्र्या इव) व्‍यापार एवं व्‍यवहार में धन या सफलता प्राप्‍त होने पर (शासुरेथ:) किसी सिद्ध महात्‍मा के पास श्रद्धा से आशीर्वाद लेने जाते हैं वैसे ही तुम स्‍त्री-पुरुष सन्‍तान धन की प्राप्‍ति होने पर गृहस्‍थ धर्म के उपदेश करने वाले पुरोहित के पास जाकर मार्गदर्शन लो। (दूतेन हि) जैसे दूत राजा को सन्‍देश पहुँचाकर उसके कृपा पात्र बनते हैं, वैसे ही (यशसा जनेषु स्‍थ:) तुम लोगों में अपनी यश-कीर्ति से प्रिय बनो (महिषा इव) जैसे भैंसे (अव पानात्) पानी के तालाब में जाकर बाहर आना नहीं चाहतीं वैसे ही तुम दोनों ज्ञानामृत के पान से कभी पृथक् मत होवो।

       गृहस्‍थ आश्रम राष्‍ट्र-निर्माण का कारखाना है जहाँ सुयोग्‍य बच्‍चों का निर्माण कर उन्‍हें राष्‍ट्र की सेवा करने के लिये भेज दिया जाता है। जिस कारखाने में अच्‍छी मशीनें और कार्य करने वाले कुशल श्रमिक हों उसका उत्‍पादन सभी लोगों की पसन्‍द होता है। ठीक इसी भाँति मनुस्‍मृति में कहे अनुसार जितेन्‍द्रिय स्‍त्री-पुरुषों को ही अक्षय सुख के लिये गृहस्‍थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिये। श्रीराम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम बनाने के लिये कौशल्‍या जैसी माता, प्रद्युम्र जैसे वीर, पराक्रमी और सुन्‍दर पुत्र को प्राप्‍त करने के लिये देवी रुक्‍मिणी और श्रीकृष्‍ण के समान १२ वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत का पालन और शिवाजी सदृश शूरवीर योद्धा के लिये माता जीजाबाई जैसी वीरांगना होनी चाहिये। सन्‍तान अपने माता-पिता की ही छाया-प्रति होती है जिसे अपने अनुसार ढालने के लिये माता-पिता को स्‍वयं उस सांचे में ढलना होगा।

       योग्‍य सन्‍तान के अतिरिक्‍त पुरुषार्थ चतुष्‍ट्य-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्‍ति के लिये गृहस्‍थाश्रम की मर्यादा में पति-पत्‍नी बंधते है। इसलिये इस आश्रम में भी संयमित जीवनचर्या से ही इस उद्देश्‍य की प्राप्‍ति हो सकती है। वेद इन मर्यादाओं का पालन करने के लिये दम्‍पती को उपदेश और दिशा निर्देश दे रहा है। हे दम्‍पती। तुम दोनों जैसे भूख-प्‍यास से व्‍याकुल दो पशु घास के मैदान में जाकर अपनी बुभुक्षा को शान्‍त करते हैं वैसे ही तुम उष्‍टारेव फर्वरेषु श्रयेथे जो तुम्हारी ज्ञान-पिपासा को शान्‍त कर सके अथवा वासनाओं से पीड़ित होने पर शान्‍ति प्राप्‍ति के लिये जंगलों में स्‍थित सन्‍तजनों के चरणारविन्‍द में जाकर मन की सुख-शान्‍ति प्राप्‍त करो। पहले लोग तीर्थों में साधु-महात्‍माओं के दर्शनार्थ जाते थे, उसक पीछे भी यही प्रयोजन था। यद्यपि आज इन तीर्थों का रूप विकृत हो गया है।

       प्रायोगेव श्‍वात्र्या शासुरेथ: जैसे दो व्‍यापारी किसी व्‍यापार या अन्‍य कार्य में धन लगाते हैं और उसमें सफलता प्राप्‍त कर लेने के पश्‍चात् किसी सिद्ध पुरुष के पास श्रद्धान्‍वित हो आशीर्वाद लेने के लिये जाते हैं इसी भाँति तुम दोनों जब भी पुत्रधन की प्राप्‍ति अथवा अन्‍य शुभ अवसर पर गृहस्‍थ धर्म का उपदेश करने वाले अपने कुलगुरु या पुरोहित के पास अवश्‍य जाओं और सन्‍तान का पालन-पोषण के से करें तथा उसे किस प्रकार सुशिक्षित एवं चरित्रावान् बनाये, इस विषय में मार्गदर्शन प्राप्‍त करो। सन्‍तान को उत्‍पन्‍न करना सरल है परन्‍तु उत्‍पन्‍न हो जाने के पश्‍चात् उसे सुशिक्षा, सत्‍संग, सदाचार, संयम की दिनचार्य में चलाना और विद्वान् बनाना इतना सरल नहीं है। माता-पिता की इच्‍छा तो रहती है कि हमारे पुत्र-पुत्रियां सदाचारी और पुरुषार्थी बने परन्‍तु इसके लिये पहले उन्‍हें अपने जीवन में झांकना होगा। बालक कच्‍चा घड़ा होता है। कच्‍चे घड़े को तोड़कर जिस आकृति कुम्‍भकार के चक्र पर साकार हो उठती है। घड़े को पका देने क पश्‍चात् बह टूट जायेगा परन्‍तु मनोनुकूल वातावरण में ढलने का साहस नहीं कर पायेगा।

       दूतेव ष्‍ठो यशसा जनेषु जिस भाँति राजा के दूत दूर-दूर के गोपनीय समाचार राजा तक पहुँचा कर प्रशंसा और पुरस्‍कार प्राप्‍त करते हैं वैसे ही जिस समाज में तुम रहते हो, उनके प्रिय बनों। दूसरों का प्रिय बनने का उपाय यही है कि उनसे मधुर सम्‍भाषण, उनके दु:खों में हाथ बटाना और आपत्तिकाल में उनकी सहायता बिना किसी स्‍वार्थ के करना, उनकी सुविधाओं का का मान ही धन है। कीर्तिर्यस्‍य स जीवति जिसके गुणों का गौरव-गान लोग करते हैं उसी का जीवन सफल है। नि:स्‍वार्थ प्रेम सबके अपना बना लेता है।

       मापस्‍थातं महिषेवावपानात्-जैसे भैंसे पानी में प्रविष्‍ट होकर वहीं जुगाली करती रहती हैं, बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेती वैसे ही हे स्‍त्रीपुरुषो। आप ज्ञानामृत के सरोवर में डुबकी लगाने के लिये सिद्ध पुरुषों एवं आध्‍यात्‍मिक प्रवचन जहाँ होते हैं, वहाँ अवश्‍य ही जाओं। सत्‍संगति की महिमा सभी ने गायी हैं।

       जाड्यं धियों हरति सिंचति वाचि सत्‍यं मानोन्‍नतिं दिशति पापमपा करोति। चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति सत्‍संगति: कथप किं न करोति पुंसाम्।।

      सत्‍संगति से बुद्धि की जड़ता दूर होती है। पाप-पंक धुल जाता है। वाणी में सत्‍य का व्‍यवहार होने लगता है। मान-सम्‍मान की प्राप्‍ति और पाप-भाव दूर होता है। सत्‍संगति में जाने से चित्त प्रसन्‍न रहता है और सभी लोग प्रशंसा करते हैं। सत्‍संगति पुरुषों के लिये क्‍या नहीं करती अर्थात् सभी सद्गणों को देन वाली है। मलयाचल में स्‍थित चन्‍दन-वन में कुकाष्‍ठ भी चन्‍दन-गन्‍ध अपने तन में बसा लेते हैं। कांच स्‍वर्णाभूषणों में जड़ा हुआ मरकतमणि के समान सुशोभित होता है। इसी भाँति सत्‍संग से मूर्ख भी विद्वान् बन जाता है।   

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *