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मंदिरों का नहीं है सवाल है अंधविश्वास का?

जब ये खबर सुनी तो मन में अजीब से सवाल उठे कि क्या आस्था का कोई जवाब ही नहीं हैं? बुंदेलखंड क्षेत्र के झांसी जनपद में स्थित रेवन और ककवारा गांवों के बीच लिंक रोड पर कुतिया महारानी मां का एक मंदिर है, जिसमें काली कुतिया की मूर्ति स्थापित है. आस्था के केंद्र इस मंदिर में लोग प्रतिदिन पूजा करते हैं. आसपास के गांवों की महिलाएं प्रतिदिन जल चढ़ाने आती हैं और यहां पूजा-अर्चना कर अपने परिवार की खुशहाली का आशीर्वाद मांगती हैं. वैसे तो आबादी से दूर यह छोटा सा कुतिया महारानी का मंदिर सुनसान सड़क पर बना है, मगर यहां के लोगों की कुतिया महारानी के प्रति अपार श्रद्धा है. ग्रामीणों के मुताबिक, कुतिया का यह मंदिर उनकी आस्था का केंद्र है. इस मंदिर में काली कुतिया की मूर्ति स्थापित है. मूर्ति के बाहर लोहे की जालियां लगाई गई हैं, ताकि कोई इस मूर्ति को नुकसान न पहुंचा सके.

क्या ऐसा हो सकता है कि बीज नीम के, वृक्ष नीम का और फल आम के लग जाये? या फिर इस नीम की पूजा की जाये, आस्था का नाम देकर इसके आसपास भंडारे आदि करके सोचे इससे नीम खुश होकर ही आम दे ही देगा? शायद नहीं! पर लोग इसी तरह की कोशिशों में लगे पड़ें है. भले ही कुछ लोग इसे मुर्खतापूर्ण कार्य कहें लेकिन यह भारत है यहाँ मुर्खता को आसानी से धर्म और आस्था की माला पहना दी जाती है.

मनुष्य का पापी मन आस्था के नाम पर क्या-क्या अविष्कार नहीं कर लेता है? और इन भयभीत लोगों का शोषण करने वाले व्यक्ति तो सदा ही मौजूद हैं. फिर चाहे मंदिर कुतिया का बने या मटके वाले बाबा का. डरे हुए लोगों को और अधिक डराया जाता है. यह सूक्ष्म शोषण बहुत पुराना है. शोषण के अनेक कारण हैं, धार्मिक गुरु हैं, समाज के स्वार्थ हैं, मठ है, मठाधीश हैं. क्या आस्था की स्वतंत्र क्षमता ही नहीं? ताकि इन्सान इन शोषणकारी लोगों से बच सके.

बताया जाता है कि इसी तरह गुजरात में एक वीजा वाले हनुमान जी का मंदिर हैं. अहमदाबाद के इस हनुमान जी के मंदिर में लोग विदेश जाने के लिए भगवान से वीजा दिलाने की प्रार्थना करते हैं. मान्यताओं में आस्था रखने वाले लोग बड़ी संख्या यहां आते हैं और कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, यूरोप जाने के लिए भगवान से वीजा मांगते हैं. जबकी वीजा तो कुछ लोग रिश्वत या जिन्हें दलाल कहा जाता है वह भी आसानी से दिला देते है फिर इतने से काम के लिए मंदिर का स्वांग क्यों? परमात्मा की स्मृति तो एक भावदशा है. अहंकार-शून्यता की भावदशा ही परमात्मा की स्मृति है. उसका वीजा या मन्नत से क्या लेना देना? लेकिन यहाँ भी भीड़ देखकर लगता है कि मुर्खता का चलन आधुनिक तरीके से लोगों के जेहन में कैसे स्मृति बन बस चुका है.

हालाँकि ऐसे उदहारण इस भारत में हर एक 10 किलोमीटर पर मिल जायेंगे लेकिन आज समाज को उदहारण नहीं बल्कि चेतना की आवश्यकता है. महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने कहा परमात्मा अमूर्त है, क्योंकि आलोकिक शक्ति की कोई मूरत हो ही नहीं सकती. वह निराकार है. कारण चेतना का आकार नहीं हो सकता. वह असीम है. सर्व, शक्तिमान की कोई सीमा नहीं हो सकती है. वह अनादि है, अनंत है, क्योंकि जो है उसका आदि-अंत तक नहीं हो सकता.

इस प्रसंग को गहराई से समझने के लिए एक बड़ी प्यारी सी कहानी है कहते है एक गांव में एक साधु रहता था. अकेला एक झोपड़े में, जिसमें कि द्वार भी नहीं थे जब झोपड़ा ही खाली था तो द्वार की जरूरत ही नहीं. खैर एक दिन वहां से गुजरते दो लोग उस झोपड़े में जल मांगने गए. उनमें से एक ने साधु से पूछा ‘आप कैसे साधु हैं? आपके पास भगवान की कोई मूर्ति भी नहीं दिखाई पड़ती है. ‘वह साधु बोला’ यह झोपड़ा देखते हैं कि बहुत छोटा है. इसमें दो के रहने के योग्य स्थान कहां है?’ उसकी यह बात सुन कर वे हंसे और दूसरे दिन भगवान की एक मूर्ति लेकर उसे भेंट करने लगे. पर उस साधु ने कहा ‘मुझे भगवान की मूर्ति की कोई आवश्यकता नहीं” वो तो मेरे ह्रदय में बसता है तुम भी भगवान की मूर्ति मत बनाओ, बस अज्ञानता  की मूर्ति तोड़ दो. उसका अभाव ही भगवान का सदभाव है.

दोनों ने मूर्ति अलग रख दी साधू के पैर पकड लिए परमात्मा का मार्ग पूछा, साधू ने बताया कि एक रात मैं देर तक दीया जलाकर पढ़ता रहा. फिर दीया बुझाया तो हैरान हो गया. बाहर पूरा चांद था. पर मेरे दीये के टिमटिमाते प्रकाश के कारण उसकी चांदनी भीतर नहीं आ पा रही थी. यहां दीया बुझा ही था कि चांद ने अपने अमृत-प्रकाश से मेरे कक्ष को आलोकित कर दिया था. उस दिन जाना था कि ’अज्ञानता’ का दीया जब तक जलता रहता है, तब तक प्रभु-प्रकाश द्वार पर ही प्रतीक्षा करता है. और उसके बुझते ही वह प्रविष्ट हो जाता है. इसी तरह भगवान को पूजा नहीं बल्कि जीना होता है. उसकी मंदिर में नहीं, जीवन में प्रतिष्ठा करनी होती है. वह हृदय में विराजमान हो और साँस-साँस में व्याप्त हो जाए, ऐसी साधना करनी होती है. और इसके लिए जरूरी है कि अज्ञानता  विलीन हो! लेकिन हम कैसे लोग हैं कि उसकी भी मूर्तियां बना लेते हैं? और फिर इन स्व-निर्मित मूर्तियों की पूजा करते हैं. पहले अपनी जैसी सूरत की मूर्ति बनाई, अब पशुओं की बना रहे हैं आगे धर्म के नाम पर क्या-क्या बनेगा अभी महज परिकल्पना हो सकती है लेकिन यह सत्य है कि कुतिया महारानी की पूजा धडल्ले से जारी है. ज्ञान और चेतना की खिड़की बंदकर लोग अन्धविश्वास के फाटक खोले बैठे है…..राजीव चौधरी

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