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महर्षि दयानन्द का जीवनोत्थान करने वाला एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ व्यवहारभानुः

महर्षि दयानन्द जी समग्र क्रान्ति के प्रणेता थे। वह अद्वितीय समाज सुधारक हुए हैं जिनका प्रभाव न केवल भारत में ही हुआ अपितु संसार के सभी मत-पन्थों व उनके धर्म के ग्रन्थों पर भी हुआ। एक उदाहरण यह है कि ‘रामचरितमानस’ में एक वाक्य मिलता था ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’। आर्यसमाज का प्रभाव यह हुआ कि अब प्रकाशित होने वाले रामचरितमानस के संस्करणों में यह वाक्य प्रकाशित नहीं किया जातौ  इतना ही नहीं, इसकी यदि चर्चा की जाये तो इसके शब्दार्थ के विपरीत प्रसंग बताकर कुछ कुछ समाधान करने का प्रयत्न किया जाता है। यह तो एक छोटी सी बानगी है। कुछ कुछ ऐसा ही प्रभाव भारतीय व विदेशी सभी मतों पर सत्यार्थप्रकाश, आर्यसमाज के विद्वानों की व्याख्याओं व शास्त्रार्थों की दलीलों का हुआ है। स्वामी दयानन्द जी ने एक दर्जन से अधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया। उन्होंने चतुर्वेद भाष्य लेखन का कार्य भी आरम्भ किया था। हमारा व देश का दुर्भाग्य था कि उनकी वह कार्य व योजना उनकी लगभग 59 वर्ष से कुछ न्यून आयु में मृत्यु के कारण पूर्ण न हो सकी। ऐसा होने पर भी उन्होंने सम्पूर्ण यजुर्वेद का संस्कृत व हिन्दी में पूरा भाष्य किया और ऋग्वेद के दस में से लगभग 7 मण्डलों का भाष्य भी वह कर गये हैं। सातवें मण्डल का भाष्य आंशिक सम्पन्न हो सका है परन्तु उनके इस वेद भाष्य के कार्य ने उनके अनुयायी विद्वानों का मार्गदर्शन किया जिससे अनेक भाष्यकार उत्पन्न हुए और उन्होंने चारों वेदों का आर्ष मान्यताओं के अनुकूल यथार्थ भाष्य किया जो आज हमें उपलब्ध है और हमें उसे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह सौभाग्य महाभारत काल के बाद व ऋषि दयानन्द जी के काल तक के देश व विदेश के लोगों को प्राप्त न हो सका। इसके अतिरिक्त यह भी महत्वपूर्ण है कि चार वेद सम्पूर्ण मानवजाति के लिए ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। हमारे पौराणिक सनातनी बन्धु भी वेदों की महत्ता को स्वीकार करते हैं परन्तु किन्हीं कारणों से उन्होंने वेदों की उपेक्षा की है और इसके स्थान पर 18 पुराणों व रामचरितमानस एवं श्रीमद्भगदगीता को अधिक प्रचारित किया है। उनके प्रमुख प्रकाशन संस्थान गीताप्रेम गोरखपुर से वेदों का सम्भवतः कभी भी प्रकाशन नहीं किया गया। उनके पास किसी विद्वान का प्रामाणिक भाष्य है भी नहीं। वेदों का सर्वोत्तम भाष्य करने का श्रेय व यश तो ईश्वर ने ऋषि दयानन्द को प्रदान किया है। मध्याकालीन आचार्य सायण व महीधर आदि के जो भाष्य हैं वह वेदों का यथार्थ अर्थ व भाष्य को प्रस्तुत न कर वेदों के मिथ्या व भ्रामक अर्थ प्रस्तुत करते हैं जिससे वेदों की महिमा वृद्धि को प्राप्त होने के स्थान पर घटती है। स्वामी दयानन्द जी ने समाज सुधार व शिक्षा के क्षेत्र में भी अनेक कार्य किये हैं। यह भी कह सकते हैं कि समाज सुधार का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस पर उन्होंने ध्यान न दिया हो और विकृतियों का सुधार न किया हो। उन्हीं की देन है कि आज न केवल जन्मना ब्राह्मण अपितु क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र सहित स्त्री जाति एवं मानवमात्र को वेदों के अध्ययन का अधिकार प्राप्त है।

हम इस लेख में ऋषि दयानन्द के लघु ग्रन्थ ‘व्यवहारभानुः’ की चर्चा कर रहे हैं। इसका परिचय स्वयं ऋषि दयानन्द जी ने ग्रन्थ की भूमिका में दिया है। हम वहीं से उनके मुख्य शब्दों को प्रस्तुत करते हैं। वह लिखते हैं कि ‘मैंने परीक्षा करके निश्चय किया है कि जो धर्मयुक्त व्यवहार में ठीक-ठीक वर्त्तता है उसको सर्वत्र सुखलाभ और जो विपरीत वर्त्तता है वह सदा दुःखी होकर अपनी हानि कर लेता है। देखिए, जब कोई सभ्य मनुष्य विद्वानों की सभा में वा किसी के पास जाकर अपनी योग्यता के अनुसार नमस्ते आदि करके बैठके दूसरे की बात ध्यान दे, सुन, उसका सिद्धान्त जान-निरभिमानी होकर युक्त प्रत्युत्तर करता है, तब सज्जन लोग प्रसन्न होकर उसका सत्कार और जो अण्ड-बण्ड बकता है, उसका तिरस्कार करते हैं।’ वह आगे लिखते हैं कि जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान्य शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता है तब उसका विश्वास और मान्य मित्र भी नहीं करते। इससे जो थोड़ी विद्यावाला भी मनुष्य श्रेष्ठ शिक्षा पाकर सुशील होता है उसका कोई भी कार्य नहीं बिगड़ता। ऋषि कहते हैं कि ‘इसलिए मैं मनुष्यों की उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादिशास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीतियुक्त इस व्यवहारभानु ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करता हूं कि जिसको देख-दिखा, पढ़-पढ़ाकर मनुष्य अपने और अपने-अपने सन्तान तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें।’ इस ग्रन्थ को लिखने का ऋषि दयानन्द जी का मुख्य प्रयोजन यह है कि लोग इसे पढ़कर अपने स्वभाव को सुधार करके सब उत्तम व्यवहारों को सिद्ध करें। यह भूमिका व ग्रन्थ ऋषि ने फरवरी, सन् 1883 में लिखा था।

यह पुस्तक लगभग 50 पृष्ठों की है। इसमें मनुष्यों के उपयोग व हित की अनेक बातें हैं जो अन्यत्र कहीं पढ़ने को नहीं मिलती। महर्षि ने एक प्रश्न यह प्रस्तुत किया है कि कैसे पुरुष पढ़ाने और शिक्षा करनेहारे होने चाहिएं? इस प्रश्न का बहुत ही युक्तियुक्त उत्तर अनेक शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर पुस्तक में दिया है जो आज भी प्रासंगिक है। पुस्तक में एक प्रश्न यह भी है कि कैसे मनुष्य पढ़ाने और उपदेश करनेवाले न होने चाहिएं? इसका उत्तर उन्होंने यह दिया है कि जो किसी विद्या को न पढ़ और किसी विद्वान् का उपदेश न सुनकर बड़ा घमण्डी, दरिद्र होकर बड़े-बड़े कामों की इच्छा करनेहारा और विना परिश्रम के पदार्थों की प्राप्ति में उत्साही होता है, उसी को विद्वान लोग मूर्ख करते हैं। ऋषि ने इसके समर्थन में शेखचिल्ली का स्वनिर्मित दृष्टान्त भी दिया है। यह दृष्टान्त बच्चों में बहुत लोकप्रिय होता है। कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न जिन्हें प्रस्तुत कर उनका उत्तर इस पुस्तक में दिया गया है, उन्हें प्रस्तुत करते हैं:

-कैसे मनुष्य विद्या प्राप्ति कर और करा सकते हैं?

-विद्या पढ़ने और पढ़ानेवालों के विरोधी व्यवहार कौन-कौन हैं?

-शूरवीर किनको कहते हैं?

-शिक्षा किसको कहते हैं?

-विद्या और अविद्या किसको कहते हैं?

-मनुष्यों को विद्या की प्राप्ति और अविद्या के नाश के लिए क्या-क्या कर्म करना चाहिए?

-ब्रह्मचारी किसको कहते हैं?

-आचार्य किसको कहते हैं?

-अपने सन्तानों के लिए माता-पिता और आचार्य क्या-क्या शिक्षा करें?

-विद्या किस-किस प्रकार और किस साधन से होती है?

-आचार्य के साथ विद्यार्थी कैसा-कैसा व्यवहार करें और कैसा-कैसा न करें?

-आचार्य विद्यार्थियों के साथ कैसे वर्तें?

-धर्म और अधर्म किसको कहते हैं?

-जब जब सभा आदि बैठकों व व्यवहारों में जावें, तब-तब कैसे-कैसे व्यवहार करें?

-जड़बुद्धि और तीव्रबुद्धि किसे कहते हैं?

-माता, पिता, आचार्य और अतिथि अधर्म करें और कराने का उपदेश करें तो मानना चाहिए वा नहीं?

-राजा, प्रजा और इष्ट-मित्र आदि के साथ कैसा-कैसा व्यवहार करें?

-न्याय और अन्याय किसको कहते हैं?

-महामूर्ख के लक्षण?

-पुरुषार्थ किसको कहते और उसके कितने भेद हैं?

-विवाह करके स्त्री-पुरुष आपस में कैसे-कैसे वर्तें?

-सब मनुष्यों का विद्वान वा धर्मात्मा होने का सम्भव है वा नहीं?

-राजा और प्रजा किसको कहते हैं?

पुस्तक में अनेक विषयों व प्रश्नों को समझाने के लिए अनेक दृष्टान्त दिये गये हैं जिन्हें बच्चे व बड़े पढ़कर प्रभावित व लाभान्वित होते हैं। पुस्तक के समापन पर ऋषि दयानन्द जी लिखते हैं ‘जो मनुष्य विद्या कम भी जानता हो, परन्तु दुष्ट व्यवहारों को छोड़कर धार्मिक होके खाने-पीने, बोलने-सुनने, बैठने-उठने, लेने-देने आदि व्यवहार सत्य से युक्त यथायोग्य करता है वह कहीं कभी दुःख को प्राप्त नहीं होता और जो सम्पूर्ण विद्या पढ़के (व्यवहारभानु पुस्तक के अनुसार) उत्तम व्यवहारों को छोड़कर दुष्ट कर्मों को करता है वह कहीं, कभी सुख को प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए सब मनुष्यों को उचित है कि अपने लड़के, लड़की, इष्ट-मित्र, अड़ौसी-पड़ौसी और स्वामी-भृत्य आदि को विद्या और सुशिक्षा से युक्त करके सर्वदा आनन्द करते रहें।’……मनमोहन कुमार आर्य

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