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महात्मा गाँधी, इस्लाम और आर्यसमाज

मैं जानती हूँ कि मुझे इससे प्रसन्नता भी है कि हमारे चिर-परिचित मुस्लमान मित्रों और विचारशील मुसलमानों ने इस आकस्मिक घटना की निंदा की है। आज मुझे उच्चमना डॉ . अंसारी की उपस्थित का अभाव बहुत खल रहा है, वे यदि होते तो आप लोगों और मेरे पुत्र को सत्परामर्श देते, मगर उनके समान ही और प्रभावशाली तथा उदार मुस्लमान हैं, यद्यपि उनसे मैं  सुपरिचित नहीं हूँ, जोकि मुझे आशा , तुमको उचित सलाह देंगे। मेरे लड़के को सुधारने  की अपेक्षा मैं देखती हूँ कि इस नाम मात्र के धर्म परिवर्तन से उसकी आदतें बद से बदतर हो गई हैं। आपको चाहिए की आप उसको उसकी बुरी आदतों के लिए डाँटे और उसको उल्टे रास्ते से अलग करें। परन्तु मुझे यह बताया गया है कि आप उसे उसी उलटे मार्ग पर चलने के लिए बढ़ावा देते हैं। कुछ लोगों ने मेरे लड़के को ‘मौलवी’ तक कहना शुरू कर दिया है। क्या यह उचित हैं? क्या आपका धर्म एक शराबी को मौलवी कहने का समर्थन करता हैं? मद्रास  में उसके असद आचरण के बाद भी स्टेशन पर कुछ मुस्लमान उसको विदाई देने आये। मुझे नहीं मालूम उसको इस प्रकार का बढ़ावा देने में आप क्या खुशी महसूस करते हैं। यदि वास्तव में आप उसे अपना भाई मानते हैं, तो आप कभी भी ऐसा नहीं करेंगे, जैसाकि कर रहे हैं, वह उसके लिए फायदेमंद नहीं है। पर यदि आप केवल हमारी फजीहत करना चाहते हैं तो मुझे आप लोगो को कुछ  भी नहीं कहना है। आप जितनी भी बुराई करना चाहें कर सकते हैं। लेकिन एक दुखिया और बूढ़ी माता की कमजोर आवाज शायद आप में से कुछ एक की अन्तरात्मा को जगा दे। मेरा यह फर्ज है कि मैं वह बात आप से भी कह दूँ  जो मैं अपने पुत्र से कहती रहती हूँ । वह यह है कि परमात्मा की नजर में तुम कोई भला काम नहीं कर रहे हो। ;कस्तूरबा बा के हीरालाल गाँधी के नाम लिखे गये पत्र को पढ़कर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से इस हीरालाल के मुस्लमान बनने की तीव्र आलोचना की है एवं समझदार मुसलमानों से हीरालाल को समझाने की सलाह दी है। हीरालाल गाँधी  को इस्लाम से धोखा  और आर्यसमाज द्वारा उनकी शुद्धि अब्दुल्लाह बनने के लिए हीरालाल गाँधी को बड़े-बड़े सपने दिखाए गये थे। गाँधीजी ने तो लिखा ही था की जो सबसे बड़ी बोली लगाएगा हीरालाल उसी का धर्म  ग्रहण कर लेगा। हीरालाल के अब्दुल्लाह बनने के समाचार को बड़े जोर-शोर से मुस्लिम समाज द्वारा प्रचारित किया गया। ऐसा लगता था जैसे कोई बड़ा मोर्चा उनके हाथ आ गया हो। हीरालाल की आसानी से रुपया मिलने के कारण उसकी हालत बद से बदतर हो गई।

उनको मुस्लमान बनाने के पीछे यह उद्देश्य  कदापि नहीं था की उनके जीवन में सुधार आये, उनकी गलत आदतों पर अंकुश लग सके परन्तु गाँधीजी को नीचा दिखाना था, हिन्दू समाज को नीचा दिखाना था उन्हें इस्लाम ग्रहण करने के लिए प्रेरित करना था। अपने नये अवतार में हीरालाल ने अनेक स्थानों का दौरा किया एवं अपनी तकरीरों में इस्लाम और पाकिस्तान की वकालत की। उस समय हीरालाल कानपुर में थे। उन्होंने एक सभा में भाषण देते हुए कहा ‘अब मैं हरीलाल नहीं बल्कि अब्दुल्ला हूँ। मैं शराब छोड़ सकता हूँ लेकिन इसी शर्त पर कि बापू और बा दोनों इस्लाम कबूल कर लें। आर्यसमाज द्वारा कस्तूरबा गाँधी की अपील पर हीरालाल को समझाने के कुछ प्रयास आरम्भ में हुए पर नये-नये अब्दुल्लाह बने हीरालाल ने किसी की नहीं सुनी। पर कहते हैं की झूठ के पाँव  नहीं होते, जो विचार सत्य पर आधारित  न हो, जिस विचार के पीछे अनुचित उद्देश्य शामिल हो वह विचार सुदृढ़  एवं प्रभावशाली नहीं होता। ऐसा ही कुछ हीरालाल के साथ हुआ। हीरालाल की रातें या तो नशे में व्यतीत होती अथवा नशा उतरने के बाद उनकी  आँखों  के सामने उनकी बूढ़ी माँ कस्तूरबा का पत्र उन्हें याद आने लगा जिससे उनका मन व्यथित रहने लगा। उस काल में हिन्दू-मुस्लिम दंगे सामान्य बात थी। एक बार कुछ मुस्लमान उन्हें एक हिन्दू मन्दिर तोड़ने के लिए ले गये और उनसे पहली चोट करने को कहा। उन्हें उकसाते हुए कहा गया की या तो सोमनाथ के मंदिर पर मुहम्मद गोरी ने पहली चोट की थी अथवा आज इस मंदिर पर अब्दुल्लाह गाँधी  की पहली चोट होगी। कुछ समय तक चुप रहकर, सोच विचार कर अब्दुल्लाह ने कहा की जंहाँ  तक इस्लाम का मैंने  अध्ययन किया है मैंने  तो इस्लाम की शिक्षाओं में ऐसा कहीं नहीं पढ़ा की किसी धार्मिक स्थल को तोड़ना इस्लाम का पालन करना है और किसी भी मंदिर को तोड़ना देश की किसी ज्वलंत समस्या  का समाधान  भी नहीं है। हीरालाल के ऐसा कहने पर उनके मुस्लिम साथी उनसे नाराज होकर चले गये और उनसे किनारा करना आरंभ कर दिया। श्रीमान् जकारिया साहब जिन्होंने हीरालाल को अब्दुल्लाह बनने के लिए  अनेक वायदे किये थे कि तो बात करने की भाषा ही बदल गई थी। जो मुस्लमान हीरालाल को बहकाकर अब्दुल्लाह बना लाये थे वे अपने मनसूबे पूरे न होते देख उन्हें ही लानते देने लगे। आखिर उन्हें गाँधी जी का वह कथन समझ में आ गया की हीरालाल को अब्दुल्लाह बनाने से इस्लाम का कुछ भी फायदा होने वाला नहीं है। अब्दुल्लाह का मन अब वापिस हीरालाल बनने को कर रहा था परन्तु अभी भी मन में कुछ संशय बचे थे। इतिहास की अनोखी करवट देखिये कि गाँधी जी ने आर्यसमाज के शुद्धि मिशन की जंहाँ खुलेआम आलोचना की थी उन्हीं गाँधी जी के पुत्र हीरालाल को आर्यसमाज की शरण में वापिस हिन्दू धर्म में प्रवेश के लिए, अपनी शुद्धि के लिए आना पड़ा था। आर्यसमाज बम्बई के श्री विजयशंकर भट्ट द्वारा वेदों की इस्लाम पर श्रेष्ठता विषय पर दो व्याख्यान उनके मन में बचे हुए बाकी संशयों की भी निवृति हो गई। जिन हीरालाल को मुसलमानों ने तरह-तरह ले लोभ और वायदे किये थे उन्हीं हीरालाल को बिना किसी लोभ अथवा प्रलोभन के, बिना किसी झूठे वायदे के अब्दुल्लाह से हीरालाल वापिस बनाया गया। बम्बई में खुले मैदान में हजारों की भीड़ के सामने, अपनी माँ  कस्तूरबा और अपने भाइयों के समक्ष आर्य समाज द्वारा अब्दुल्लाह को शुद्धकर  वापिस हीरालाल गाँधी बनाया गया। अपने भाषण में हीरालाल ने उस दिन को अपने जीवन का सबसे स्वर्णिम दिन बताया। उन्होनें  कहा की धर्म  का सत्य अर्थ केवल उसकी मान्यताए भर नहीं अपितु उसके मानने वालों की संस्कृति, शिष्टता और सामाजिक व्यवहार पर उसका प्रभाव भी है। इस्लाम के विषय में अपने अनुभवों से मैंने यह सीखा है कि हिन्दुओं की वैदिक संस्कृति एवं उसको मानने वालों की शिष्टता और सामाजिक व्यवहार इस्लाम अथवा किसी भी अन्य धर्म  से कही ज्यादा श्रेष्ठ है। इतना ही नहीं इस्लाम में पाई जाने वाली सत्यता हिन्दू संस्कृति की ही देन हैं। जिन मुसलमानों के मैं संसर्ग में आया वे इस्लाम की मान्यताओं से ठीक विपरीत व्यवहार करते हैं। इसलिए अब में इस्लाम को इससे अधिक  नहीं मान सकताa। और मैं अब वहीं आ गया हूँ जहाँ  से  मैंने शुरुआत की थी। अगर मेरे इस निश्चय से मेरे माता-पिता, मेरे भाइयों, मेरे  सम्बन्धियों  को प्रसन्नता हुई है तो मैं उनका आशीर्वाद चाहुँगा । अंत में मैं उनसे क्षमा माँगता  हूँ  और उन्हें मेरा  सहयोग करने की विनती करता हूँ । हीरालाल वैदिक धर्म का अभिन्न अंग बनकर भारतीय श्रद्धानन्द  शुद्धिसभा के सदस्य बन गये और आर्यसमाज के शुद्धिकार्य में लग गये। दिसम्बर १९३६  के सार्वदेशिक अखबार के सम्पादकीय में महात्मा नारायण स्वामी लिखते हैं- अब्दुल्ला  से हीरालाल महात्मा गाँधी के ज्येष्ठ पुत्र हीरा लाल गाँधी अब अब्दुल्लाह नहीं हैं। आर्य समाज मुंबई में वे शुह् करके प्राचीनतम आर्य धर्म में वापिस ले लिए गये हैं। हिन्दू धर्म का परित्याग करने में उन्होंने जो भूल की थी, उसे अनुभव करके और प्रकाश रूप में उसे स्वीकार करके उन्होंने अच्छा ही किया है। उनका उदहारण भाषा वेश में परिवर्तन करने वालो के लिए एक अच्छा उदहारण है। हीरालाल को हिन्दू धर्म के प्रति जो उन्होंने अपराध  किया हैं उसका प्रायश्चित करना बाकी रह जाता है। उन्हें चाहिए की वे वैदिक धर्म  के सुसंस्कृत रूप का अध्ययन करें  और अपने जीवन को उसके सांचे में ढालें। यही उस अपराध का उत्तम प्रयाश्चित है। जो मुस्लमान हीरालाल को इस्लाम के दायरे में बहुमूल्य वृद्धि समझे बैठे थे और जो उनमें सुधार  की चेष्टा के बजाय उन्हें इस्लाम के प्रोपेगंडा का साधन  बनाए हुए थे वे गलती पर थे और इस्लाम की असेवा कर रहे थे, वह बात यह घटना स्पष्ट करती हैं और धर्म परिवर्तन करने वाली अन्य संस्थाओं को भी अच्छी शिक्षा प्रदान रती हैं। महात्मा गाँधी  अपने पुत्र को वापिस पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए थे और सार्वजानिक रूप से चाहे उन्होंने स्वामी दयानंद को शुद्धि की प्राचीन व्यवस्था को फिर से पुनर्जीवित करने का श्रेय भले ही न दिया हो परन्तु उनकी मनोवृति से यह भली प्रकार से स्पष्ट हो जाता हैं की आर्यसमाज के आलोचक होते हुए भी उन्हें सहारा तो स्वामी दयानंद के सिद्धांतों  का ही लेना पड़ा था।

के नाम से मुशीरुल हसन नामक लेखक की नई पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें लेखक ने इस्लाम के सम्बन्ध  में महात्मा गाँधी के विचार प्रकट किये हैं। इस पुस्तक के प्रकाश में आने से महात्मा गाँधी जी के आर्यसमाज से जुड़े हुए पुराने प्रसंग मस्तिष्क में पुनः स्मरण हो उठे। स्वामी श्रद्धानंद  जी की कभी मुक्तकंठ से प्रशंसा करने वाले महात्मा गाँधीजी का स्वामी जी से कांग्रेस द्वारा दलित समाज का उद्धार, इस्लाम, उद्धार और हिन्दू संगठन विषय की लेकर मतभेद था। महात्मा गाँधी ने आर्यसमाज, स्वामी दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और स्वामी श्रद्धानंद जी के विरुद्ध लेख २१ मई १९२४  को हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य, उसका कारण और उसकी चिकित्सा के नाम से लिखा था। इस लेख में भारत भर में हो रहे हिन्दू- मुस्लिम दंगो का कारण आर्य समाज को बताया गया था। इस लेख का सबसे अधिक दुष्प्रभाव इस्लाम को मानने वालों की सोच पर पड़ा था क्योंकि महात्मा गाँधी का समर्थन मिलने से उन्हें लगने लगा था कि जो भी नैतिक अथवा अनैतिक कार्य वे इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए कर रहे हैं, वे उचित हैं एवं उनके अनैतिक कार्यों का विरुद्ध करने वाला आर्यसमाज असत्य मार्ग पर है इसीलिए महात्मा गाँधी भी आर्यसमाज और  उनकी मान्यताओं का वरोध कर रहे हैं। सब पाठकगण शायद जानते ही होंगे कि महात्मा गाँधी द्वारा रंगीला रसूल के विरुद्ध लेख लिखने के बाद ही मुस्लिम समाज के कुछ कट्टरपंथी तत्व महाशय राजपाल की जान के प्यासे हो गये थे जिसका परिणाम उनकी शहादत और इलमदीन की फाँसी  के रूप में निकला था। महात्मा गाँधी के आर्यसमाज के विरुद्ध  लिखे गए लेख का प्रतिउत्तर आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने दिया जैसे लाला लाजपत राय, मिस्टर केलकर, मिस्टर सी.एस.रंगा अय्यर, महात्मा टी. एल. वासवानी, स्वामी सत्यदेव जी एवं पंडित चमूपति जी आदि।

आर्य समाज की और से एक डेलीगेशन के रूप में पंडित आर्यमुनिजी, पंडित रामचंद्र देहलवी जी, पंडित इंद्र जी विद्यावाचस्पति जी स्वयं गाँधी जी से उनके लेख के विषय में मिले परन्तु गाँधी जी ने उत्तर  देने के स्थान पर टाल-मटोल कर मौन धारण कर लिया था। कालांतर में सार्वदेशिक सभा दिल्ली के सदस्य श्री ज्ञानचंद आर्य जी ने अत्यंत रोचक पुस्तक उर्दू में ‘इजहारे हकीकत’ के नाम से लिखी जिसका हिन्दी अनुवाद ‘सत्य निर्णय’ के नाम से १९३३ में  छापा गया था। इस पुस्तक में लेखक ने महात्मा गाँधी द्वारा जो आरोप लगाये गये थे न केवल उनका यथोचित समाधान  किया है अपितु गाँधी जी की हिन्दू धर्म  के विषय में जो भी मान्यता थी उनका उचित विशलेषण किया है। आर्यसमाज के प्रकाण्ड विद्वान पंडित धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड द्वारा आर्यसमाज और महात्मा गाँधी के शीर्षक से एक और महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी गई थी जिसका पुनः प्रकाशन घूड़मल ट्रस्ट हिंडौन सिटी राजस्थान ने हाल ही में किया है। गाँधीजी के शुद्धि विषयक विचार आर्यसमाज की विचारधारा  के प्रतिकूल थे। गाँधीजी एक ओर शुद्धि से हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य को बढ़ावा देना मानते थे दूसरी ओर मुसलमानों द्वारा गैर मुसलमानों की तब्लोग करने पर चुप्पी धारण कर लेते थे। १९२१ के मालाबार के हिन्दू मुस्लिम दंगों के समय तो आर्यसमाज खिलाफत आन्दोलन के लिए मुसलमानों का साथ दे रहा था, फिर शुद्धि को हिन्दू मुस्लिम दंगों का कारण बताना असत्य नहीं तो और क्या था? मुल्तान में हुए भयंकर दंगों का कारण ताजिये के ऊपर बंधी डंडी का टेलीफोन की तार से उलझ कर टूट जाना था जिससे आक्रोशित  होकर मुस्लिम दंगाइयों ने निरीह हिन्दू जनता पर भयंकर अत्याचार किये थे। कोहाट के दंगों का कारण एक हिन्दू लड़की को कुछ हिन्दू एक मुस्लिम की गिरफ्त से छुड़वा लाये थे जिससे चिढ़ कर मुसलमानों ने हथियार सहित हिन्दू बस्तियों पर हमला बोल दिया जिससे हिन्दू जनता को कोहाट से भागकर अपने प्राण बचाने पड़े थे। एक प्रकार के अन्य दंगों का कारण खिलाफत आन्दोलन के कारण बदली हुई मुस्लिम मनोवृति, अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति, हिन्दू संगठन का न होना एवं तत्कालीन कांग्रेस द्वारा नर्म प्रतिक्रिया दिया जाना था नाकि सत्यार्थ प्रकाश का २१ वां  समुल्लास, आर्यसमाज द्वारा चलाया गया शुद्धि आन्दोलन, शास्त्रार्थ एवं लेखन कार्य था। विस्तार भय से हम गाँधी जी के विचारों को इस लेख में केवल शुद्धि विषय तक ही सीमित कर रहे हैं क्योंकि जहाँ  एक ओर गाँधी जी ने आर्यसमाज के शुद्धि मिशन की भरपूर आलोचना की थी कालांतर में उन्हीं के सबसे बड़े सुपुत्र हीरालाल गाँधी के मुस्लमान बन जाने पर आर्यसमाज द्वारा ही शुद्धि द्वारा वापिस हिन्दू धर्म में दोबारा से शामिल किया गया था। हीरालाल के धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन जाने पर महात्मा गाँधी जी का वक्तव्य सन्दर्भ-सार्वदेशिक पत्रिका जुलाई अंक १९३६ महात्मा गाँधी के सबसे बड़े पुत्र हीरालाल गाँधी तारीख २७ मई को नागपुर में गुप्त रीति से मुसलमान बनाये गये हैं और नाम अब्दुल्लाह गाँधी रखा गया हैं तथा २९  मई को बम्बई की जुम्मा मस्जिद में उनके मुसलमान बनने की घोषणा की गई। कुछ दिन हुए यह खबर थी कि वे ईसाई होने वाले हैं पर बाद में हीरालाल गाँधी ने स्वय ईसाई न होने की घोषणा की थी। उन्होंने कहा कि वे अपने पिता महात्मा गाँधी से मतभेद होने के कारण वे मुस्लमान हो गये हैं। महात्मा गाँधी जी का वक्तव्य बंगलौर २ जून। अपने बडे़ लड़के हीरालाल गाँधी के धर्म परिवर्तन के सिलसिले में महात्मा गाँधी ने मुस्लमान मित्रों के नाम एक अपील प्रकाशित की हैं। अपील का आशय निम्न हैं ‘पत्रों में समाचार प्रकाशित हुआ है कि मेरे पुत्र हीरालाल के धर्म परिवर्तन की घोषणा पर जुम्मा मस्जिद में मुस्लिम जनता ने अत्यंत हर्ष प्रकट किया है। यदि उसने ह्रदय  से और बिना किसी सांसारिक लोभ के इस्लाम धर्म को स्वीकार किया होता तो मुझे कोई आपत्ति  नहीं थी। क्योंकि मैं इस्लाम को अपने धर्म के समान ही सच्चा समझता हूँ किन्तु मुझे संदेह हैं कि वह धर्म परिवर्तन ह्रदय से तथा बगैर किसी सांसारिक लाभ के किया गया है। शराब का व्यसन जो भी मेरे पुत्र हीरालाल से परिचित हैं वे जानते हैं कि उसे शराब और व्यभिचार की लत पड़ी है। कुछ समय तक वह अपने मित्रों की सहायता पर गुजारा करता रहा। उसने कुछ पठानों से भी भारी सूद पर कर्ज लिया था। अभी कुछ दिनों की बात हैं कि बम्बई में पठान लेनदारों के कारण उसको जीवन के लाले पड़े हुए थे। अब वह उसी शहर में सूरमा बना हुआ हैं। उसकी पत्नी अत्यंत पतिव्रता थी। वह हमेशा हीरालाल के पापों को क्षमा करती रही। उसके ३ संतान हैं, २ लड़की और एक लड़का, जिनके लालन-पालन का भार उसने बहुत पहले ही छोड़ रखा हैं। धर्म की नीलामी कुछ सप्ताह पूर्व ही उसने हिन्दुओं के हिन्दुत्व के विरुद्ध शिकायत करके ईसाई बनने की धमकी  दी थी। पत्र की भाषा से प्रतीत होता था हैं कि वह उसी धर्म में जायेगा जो सबसे ऊँची बोली बोलेगा। उस पत्र का वांछित असर हुआ। एक हिन्दू काउंसिलर के मदद से उसे नागपुर मुन्सीपालिटी में नौकरी मिल गई। इसके बाद उसने एक और वक्तव्य प्रकाशित किया और हिन्दू धर्म के प्रति पूर्ण आस्था प्रकट की। आर्थिक लालसा किन्तु घटनाक्रम  से मालूम पड़ता हैं की उसकी आर्थिक लालसाएं पूरी नहीं हुईं और उसको पूरा करने के लिए उसने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया है। गत अप्रैल जब मैं नागपुर में था वह मुझ से तथा अपनी माता से मिलने आया और उसने मुझे बताया कि किस प्रकार धर्मों  के मिशनरी उसके पीछे पड़े हुए हैं। परमात्मा चमत्कार कर सकता है। उसने पत्थर दिलों को भी बदल दिया है और एक क्षण में पापियों को संत बना दिया है। यदि मैं देखता कि नागपुर की मुलाकात में और हाल की शुक्रवार की घोषणा में हीरालाल में पश्चाताप की भावना का उदय हुआ है और उसके जीवन में परिवर्तन आ गया है, तथा उसने शराब तथा व्यभिचार छोड़ दिया हैं तो मेरे लिए इससे अधिक  प्रसन्नता की और क्या बात होती?  जीवन में कोई परिवर्तन नहीं लेकिन पत्रों की खबरें इसकी कोई गवाही नहीं देती। उसका जीवन अब भी यथापूर्व है। यदि वास्तव में उसके जीवन में कोई परिवर्तन होता तो वह मुझे अवश्य लिखता और मेरे दिल को खुश करता। मेरे सब पुत्रों के पूर्ण विचार स्वतंत्र  हैं। उन्हें सिखाया गया है कि वे सब धर्मों को इज्जत  की दृष्टि से देखें। हीरालाल जानता है यदि उसने मुझे यह बताया होता कि इस्लाम धर्म से मेरे जीवन को शांति मिली है तो मैं उसके रास्ते में कोई बाधा न डालता। किन्तु हममें से किसी को भी, मुझे या उसके २४ वर्षीय पुत्र को जो मेरे साथ रहता है उसकी कोई खबर नहीं हैं। मुसलमानों को इस्लाम के सम्बन्ध में मेरे विचार ज्ञात हैं। कुछ मुसलमानों ने मुझे तार दिया है की अपने लड़के की तरह मैं भी संसार के सबसे सच्चे धर्म इस्लाम को ग्रहण कर लूँ । गाँधी जी को चोट मैं मानता  हूँ  की इन सब बातों से मेरे दिल को चोट पहुँचती हैं। मैं समझता हूँ की जो लोग हीरालाल के धर्म के जिम्मेदार हैं वे एहतियात से काम नहीं ले रहे जैसा कि ऐसी अवस्था में करना चाहिए। इस्लाम को हानि हीरालाल के धर्म परिवर्तन से हिंदू धर्म को कोई क्षति नहीं हुई उसका इस्लाम प्रवेश उस धर्म की कमजोरी सिह् होगा। यदि उसका जीवन पहले की भांति ही बुरा रहा। धर्म परिवर्तन मनुष्य और उसके सृष्टा से सम्बन्ध रखता है। शुद्धि ह्रदय के बिना किया हुआ धर्म परिवर्तन मेरी सम्मति में धर्म और ईश्वर का तिरस्कार हैं। धार्मिक  मनुष्य के लिए विशुद्ध ह्रदय से न किया हुआ धर्म परिवर्तन दुःख की वस्तु है  हर्ष की नहीं। मुसलमानों का कर्तव्य मेरा मुस्लिम मित्रों को इस प्रकार लिखने का यह अभिप्राय है कि वे हीरालाल

के अतीत जीवन को ध्यान में रखें और यदि वे अनुभव करें कि उसका धर्म परिवर्तन आत्मिक भावना से रहित है तो वे उसको अपने धर्म से बहिष्कृत कर दें तथा इस बात को देखें  की वह किसी प्रलोभन में न पड़ें और इस प्रकार समाज का धर्म भीरु सदस्य बन जाये। उन्हें यह बात चाहिये कि शराब ने उसका मस्तिष्क खराब कर दिया हैं वह सत्-असत् विवेक की बुद्धि खोखली कर डाली है। वह अब्दुल्ला है या हीरालाल इससे मुझे कोई मतलब नहीं। यदि वह अपना नाम बदलकर ईश्वरभक्त  बन जाता है तो मुझे क्या आपत्ति है क्योंकि अर्थ तो दोनों नामों का वही है। महात्मा गाँधी ने अपने लेख में हीरालाल के इस्लाम ग्रहण करने पर न केवल अप्रसन्नता जाहिर की है अपितु उसे उसकी बुरी आदतों के कारण वापिस हिन्दू बन जाने की सलाह भी दी है। गाँधी जी इस लेख में मुसलमानों द्वारा किये जा रहे तबलीग कार्य की निन्दा करने से बच रहे हैं परन्तु उनकी इस वेदना को उनके भावों द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। माता कस्तूरबा बा का अपने पुत्र के  नाम मार्मिक पत्र -तुम्हारे आचरण से मेरे लिए जीवन भारी हो गया है। मेरे प्रिय पुत्र हीरालाल, मैंने सुना हैं कि तुमको मद्रास में आधी  रात में पुलिस के सिपाही ने शराब के नशे में असभ्य आचरण करते देखा और गिरफ्तार  कर लिया। दूसरे दिन तुमको अदालत में पेश किया गया। निस्संदेह वे भले आदमी थे, जिन्होंने तुम्हारे साथ बड़ी नरमाई का व्यवहार किया। तुमको बहुत साधारण  सजा देते हुए मजिस्ट्रेट  ने भी तुम्हारे पिता के प्रति आदर का भाव जाहिर किया। जबसे मैंने इस घटना का समाचार सुना है मेरा दिल बहुत दुखी है। मुझे नहीं मालूम कि तुम उस रात्रि को अकेले थे या तुम्हारे कुसाथी भी तुम्हारे साथ थे? कुछ भी तुमने जो किया  ठीक नहीं किया। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं तुम्हारे इस बारे में क्या कहूँ ? मैं वर्षों से तुमको समझाती आ रही हूँ कि तुमको अपने पर कुछ काबू रखना चाहिए। पर, तुम दिन पर दिन बिगड़ते ही जाते हो? अब तो मेरे लिए तुम्हारा आचरण इतना असहाय हो गया है कि मुझे अपना जीवन ही भारी मालूम होने लगा है। जरा सोचो तो, तुम इस बुढ़ापे में अपने माता-पिता को कितना कष्ट पहुँचा  रहे हो? तुम्हारे पिता किसी को कुछ भी नहीं कहते, पर मैं जानती हूँ की तुम्हारे आचरण से उनके ह्रदय  पर कैसी चोटें लग रही हैं? उनसे उनका ह्रदय  टुकड़े टुकड़े हो रहा है। तुम हमारी भावनाओं को चोट पहुँचा कर बहुत बड़ा पाप कर रहे हो। हमारे पुत्र होकर भी तुम दुश्मन का सा व्यवहार कर रहे हो। तुमने तो हया-शर्म सबको तिलांजलि दे दी हैं। मैंने सुना है कि इधर  अपनी आवारागर्दी से तुम अपने महान पिता का मजाक भी उड़ाने लग गये हो। तुम जैसे अकलमंद लड़के से यह उम्मीद नहीं थी। तुम महसूस नहीं करते कि अपने पिता की अपकीर्ति करते हुए तुम अपने आप ही जलील होते हो। उनके दिल में तुम्हारे लिए सिवा प्रेम के कुछ नहीं हैं। तुम्हें पता है कि वे चरित्र की शुद्धि पर कितना जोर देते हैं, लेकिन तुमने उनकी सलाह पर कभी ध्यान नहीं दिया। फिर भी उन्होंने तुम्हें अपने पास रखने, पालन पोषण करने और यहा° तक कि तुम्हारी सेवा करने के लिए रजामंदी प्रगट की। लेकिन तुम हमेशा कृतघ्नी बने रहे। उन्हें दुनिया में और भी बहुत से काम हैं। इससे ज्यादा और तुम्हारे लिये वे क्या करे? वे अपने भाग्य को कोस लेते हैं। परमात्मा ने उन्हें असीम इच्छा शक्ति दी हैं और परमात्मा उन्हें यथेच्छ आयु दे कि वे अपने मिशन को पूरा कर सकें। लेकिन मैं तो एक कमजोर बूढ़ी औरत हूँ  और यह मानसिक व्यथा बर्दाश्त नहीं होती। तुम्हारे पिता के पास रोजाना तुम्हारे व्यवहार की शिकायतें आ रही हैं उन्हें वह सब कड़वी घूंट पीनी पड़ती है। लेकिन तुमने मेरे मुँह  छुपाने तक को कहीं भी जगह नहीं छोड़ी हैं। शर्म के मारे में परिचितों या अपरिचितों में उठने-बैठने लायक भी नहीं रही हूँ । तुम्हारे पिता तुम्हें हमेशा क्षमा कर देते हैं लेकिन याद रखो, परमेश्वर तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेंगे। मद्रास  में तुम एक प्रतिष्ठित व्यक्ति  के मेहमान थे। परन्तु तुमने उसके आतिथ्य का नाजायज फायदा उठाया और बड़े बेहूदा व्यवहार किये। इससे तुम्हारे मेजबान को कितना कष्ट हुआ होगा? प्रतिदिन सुबह उठते ही मैं काँप  जाती हूँ कि पता नहीं आज के अखबार में क्या नयी खबर आयेगी? कई बार मैं सोचती हूँ कि तुम कहाँ  रहते हो? कहाँ  सोते हो और क्या खाते हो? शायद तुम निषिद  भोजन भी करते हो। इन सबको सोचते हुए बेचैनी में पलकों पर रातें काट देती हूँ। कई बार मेरी इच्छा तुमको मिलने की होती हैं लेकिन मुझे नहीं सूझता कि मैं तुम्हें  कहाँ मिलूँ ? तुम मेरे सबसे बड़े लड़के हो और अब पचासवें  पर पहुँच  रहे हो। मुझे यह भी डर लगता रहता है कि कहीं तुम मिलने पर मेरी बेइज्जती न कर दो। मुझे मालूम नहीं कि तुमने अपने पूर्वजों के धर्म  को क्यों  छोड़ दिया है , लेकिन सुना हैं तुम दूसरे भोले-भाले आदमियों को अपना अनुसरण करने के लिए बहकाते फिरते हो? क्या तुम्हें अपनी कमियाँ  नहीं मालूम? तुम ‘धर्म’ के विषय में जानते ही क्या हो? तुम अपनी इस मानसिक अवस्था में विवेक बुद्धि नहीं रख सकते? लोगों को इस कारण धोखा हो जाता है क्यूंकि तुम एक महान पिता के पुत्र हो। तुम्हें धर्म उपदेश का आधिकार  ही नहीं क्यूंकि तुम तो अर्थदास हो। जो तुम्हें पैसा देता रहे तुम उसीके रहते हो। तुम इस पैसे से शराब पीते हो और फिर प्लेटफार्म पर चढ़कर लेक्चर फटकारते हो। तुम अपने को और अपनी आत्मा को तबाह कर रहे हो। भविष्य में यदि तुम्हारी यही करतूतें रहीं तो तुम्हें कोई कोडि़यों के भाव भी नहीं पूछेगा। इससे मैं तुम्हें कहती हूँ  कि जरा डरो, विचार करो और अपनी बेवकूफी से बाज आओ। मुझे तुम्हारा धर्म परिवर्तन बिलकुल पसंद नहीं है। लेकिन जब मैंने पत्रों में पढ़ा कि तुम अपना सुधार  करना चाहते हो तो मेरा अंतःकरण इस बात से आह्लादित हो गया कि अब तुम ठीक जिंदगी बसर करोगे लेकिन तुमने तो उन सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। अभी बम्बई में तुम्हारे कुछ पुराने मित्रों और शुभ चाहने वालों ने तुम्हें पहले से भी बदतर हालत में देखा है। तुम्हें यह भी मालूम है कि तुम्हारी इन कारस्तानियों से तुम्हारे पुत्र को कितना कष्ट पहु°च रहा है। तुम्हारी लड़कियाँ  और तुम्हारा दामाद सभी इस दुःख भार को सहने में असमर्थ हो रहे हैं, जो तुम्हारी करतूतों से उन्हें होता है। जिन मुसलमानों ने हीरालाल के मुस्लमान बनने और उसकी बाद की हरकतों में रूचि दिखाई है, उनको सम्बोधन  करते हुए श्रीमती गाँधी लिखती हैं- ‘आप लोगों के व्यवहार को मैं समझ नहीं सकी। मुझे तो सिर्फ उन लोगों से कहना है, जो इन दिनों मेरे पुत्र की वर्तमान गतिविधयों  में तत्परता दिखा रहे हैं।’

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