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महिषासुर शहादत दिवस-एक और पाखंड की शुरुआत

तथाकथित बौद्धिक समाज की राजधानी कहे जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 17 अक्टूबर को महिषासुर शहादत दिवस मनाया गया। यह कार्यक्रम यहाँ पर तीसरी बार आयोजित हुआ है। महिषासुर शहादत दिवस के दिन महिषासुर की तस्वीर रखकर उस पर फूल मालाएँ चढ़ाई गई। आयोजकों का कहना है कि बंग देश के राजा महिषासुर दलितों,पिछड़ों और आदिवासियों के नायक थे लेकिन इतिहास लिखने वालो ने उन्हें खलनायक के रूप में पेश किया है। महिषासुर दस्यु थे और उनका दमन करने वाली दुर्गा आर्य थी। इस विषय में यह मिथ्या प्रवाद जोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है यह सुर और असुर के मध्य संघर्ष था और सुर दरअसल आर्य थे और असुर अनार्य थे। यहाँ के मूलनिवासियों अर्थात् दलित, पिछड़ी आदि जातियों पर विदेशी आक्रमणकारी आर्यों ने अपने देवी-देवताओं को थोपा है और यहाँ के मूल देवताओं को खलनायक के रूप में चित्रित किया है। अब मूलनिवासी जाग्रत हो चुके है, उन्हें विदेशी देवताओं की कोई आवश्यकता नहीं है और वे अपने देवी देवताओं का महिमा मंडन स्वयं कर सकते हैं। इस प्रकार के आयोजन इसी प्रवाद को स्थापित करने के लिए किये जा रहे हैं।
पाठक एक कहावत से परिचित होंगे कि झूठ को हज़ार बार बोलें तो झूठ सच लगने लगता है। पहले तो भारतीय इतिहास के साथ विदेशी इतिहासकारों ने बलात्कार के समान अन्याय किया, फिर उनके मानस सन्तानों ने उनके द्वारा स्थापित झूठी मान्यताओं को इतना प्रचारित प्रसारित कर दिया कि सत्य पक्ष से अपरिचित अपरिपक्व छात्र उनके विषैले प्रचार का शिकार होकर असत्य को सत्य समझने लगते हैं। आर्यों का बाहर से आक्रमण, यहाँ के मूल निवासियों को युद्ध कर हराना, उनकी स्त्रियों से विवाह करना, उनके पुरुषों को गुलाम बनाना, उन्हें उत्तर भारत से हरा कर सुदूर दक्षिण की ओर खदेड़ देना, अपनी वेद आधारित पूजा पद्धति को उन पर थोंपना आदि अनेक भ्रामक, निराधार बातों का प्रचार तथाकथित साम्यवादी लेखकों द्वारा जोर-शोर से किया जाता है। रामविलास शर्मा जैसे वरिष्ठ साम्यवादियों को इस विचार से असहमत होने के कारण ये अपने खेमे ये बहिष्कृत कर चुके हैं।
पाठकों को जानकर प्रसन्नता होगी कि वैदिक वांग्मय और इतिहास के विशेषज्ञ स्वामी दयानंद सरस्वती जी का कथन इस विषय में मार्ग दर्शक है। स्वामीजी के अनुसार किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जंगलियों से लड़कर, जय पाकर, निकालकर इस देश के राजा हुए (सन्दर्भ-सत्यार्थप्रकाश 8 सम्मुलास) , जो आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ, आर्यावर्त देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि इसमें आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं इसकी अवधि उत्तर में हिमालय दक्षिण में विन्ध्याचल पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रहमपुत्र नदी है इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उसको आर्यावर्त कहते और जो इसमें सदा रहते हैं उनको आर्य कहते हैं। (सन्दर्भ-स्वमंतव्यामंतव्यप्रकाश-स्वामी दयानंद)।
135 वर्ष पूर्व स्वामी दयानंद द्वारा आर्यों के भारत पर आक्रमण की मिथक थ्योरी के खंडन में दिए गये तर्क का खंडन अभी तक कोई भी विदेशी अथवा उनका अँधानुसरण करने वाले मार्क्सवादी इतिहासकार नहीं कर पाए हैं। एक कपोल कल्पित,आधार रहित, प्रमाण रहित बात को बार-बार इतना प्रचार करने का उद्देश्य विदेशी इतिहासकारों की ‘बांटो और राज करो’की कुटिल नीति को प्रोत्साहन मात्र देना है। इतिहास में अगर कुछ भी घटा है तो उसका प्रमाण होना उसका इतिहास में वर्णन मिलना उस घटना की पुष्टि करता है। किसी अंग्रेज इतिहासकार ने कुछ भी लिख दिया और आप उसे बिना प्रमाण, बिना उसकी परीक्षा के सत्य मान रहे हैं– इसे मूर्खता कहें या गोरी चमड़ी की मानसिक गुलामी कहें। सर्वप्रथम तो हमें कुछ तथ्यों को समझने की आवश्यकता हैं:-
१. आर्य और अनार्य या दस्यु में क्या भेद हैं?
२. सुर और असुर में क्या भेद हैं?
३. क्या शुद्र और दस्यु शब्द का एक ही अर्थ हैं?
१. आर्य और अनार्य या दस्यु में क्या भेद हैं?
प्रथम तो ‘आर्य’ शब्द जातिसूचक नहीं अपितु गुणवाचक हैं अर्थात आर्य शब्द किसी विशेष जाति,समूह अथवा कबीले आदि का नाम नहीं हैं अपितु अपने आचरण, वाणी और कर्म में वैदिक सिद्धांतों का पालन करने वाले, शिष्ट, स्नेही, कभी पाप कार्य न करनेवाले, सत्य की उन्नति और प्रचार करनेवाले, आतंरिक और बाह्य शुचिता इत्यादि गुणों को सदैव धारण करनेवाले आर्य कहलाते हैं। आर्य का प्रयोग वेदों में श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए (ऋक १/१०३/३, ऋक १/१३०/८ ,ऋक १०/४९/३) विशेषण रूप में प्रयोग हुआ हैं।
अनार्य अथवा दस्यु किसे कहा गया हैं
अनार्य अथवा दस्यु के लिए ‘अयज्व’ विशेषण वेदों में(ऋग्वेद १|३३|४) आया है अर्थात् जो शुभ कर्मों और संकल्पों से रहित हो और ऐसा व्यक्ति पाप कर्म करने वाला अपराधी ही होता है। अतः यहां राजा को प्रजा की रक्षा के लिए ऐसे लोगों का वध करने के लिए कहा गया है। सायण ने इस में दस्यु का अर्थ चोर किया है। दस्यु का मूल ‘दस’ धातु है जिसका अर्थ होता है ‘उपक्क्षया’ अर्थात जो नाश करे। अतः दस्यु कोई अलग जाति अथवा समूह नहीं है, बल्कि दस्यु का अर्थ विनाशकारी और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से है। इस सिद्ध होता हैं की दस्यु गुणों से रहित मनुष्य के लिए प्रयोग किया गया संबोधन हैं नाकि जातिसूचक शब्द हैं।
इसी प्रकार से ऋग्वेद १|३३|५ में दस्यु (दुष्ट जन ) शुभ कर्मों से रहित और शुभ करने वालों के साथ द्वेष रखने वाले को कहा गया हैं। इसी प्रकार से ऋग्वेद १|३३|७ में जो शुभ कर्मों से युक्त तथा ईश्वर का गुण गाने वाले मनुष्य हैं उनकी रक्षा करने का आदेश राजा को दिया गया हैं इसके विपरीत अशुभ कर्म करने वाले अर्थात दस्युओं का संहार करने का आदेश हैं। इसी प्रकार से दस्यु या दास शब्द का प्रयोग अनार्य (ऋक १०/२२/८ ), अज्ञानी, अकर्मा, मानवीय व्यवहार शुन्य (ऋक १०,२२,८), भृत्य (ऋक ), बल रहित शत्रु (ऋक १०/८३/१) आदि के लिए हुआ हैं न की किसी विशेष जाति अथवा स्थान के लोगों के लिए वेदों में आया हैं।
सुर और असुर में क्या भेद हैं?
जैसे आर्य और अनार्य हैं उसी प्रकार से सुर और असुर में भेद हैं। दोनों एक दुसरे के लिए प्रयुक्त हुए विशेषण के समान हैं। यजुर्वेद ४०/३ में देव(सुर) और असुर को विद्वान और मुर्ख के रूप में बताया गया हैं और इन दोनों के परस्पर विरोध को देवासुर संग्राम कहते हैं। यहाँ पर भी सुर और असुर में भेद गुनातात्मक हैं नाकि जातिसूचक हैं।
क्या शुद्र और दस्यु शब्द का एक ही अर्थ हैं?
आर्य लोगों में वर्ण अर्थात गुण, कर्म और स्वाभाव के अनुसार चार भेद ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र कहलाते हैं। शुद्र शब्द दस्युओं के लिए अपितु गुणों से रहित व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं। जैसे एक शिक्षित व्यक्ति राष्ट्र विरोधी कार्य करे तो उसे दस्यु कहा जायेगा और एक अशिक्षित व्यक्ति को जो की देश के प्रति ईमानदार हो उसे शुद्र कहा जायेगा। शुद्र शब्द नीचे होने का बोधक नहीं हैं अपितु गुण रहित होने का बोधक हैं। यजुर्वेद ३०/ ५ में कहा हैं- तपसे शुद्रम अर्थात शुद्र वह हैं जो परिश्रमी, साहसी तथा तपस्वी हैं।
वेदों में अनेक मन्त्रों में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी हैं और वेदों का ज्ञान ईश्वर द्वारा ब्राह्मण से लेकर शुद्र तक सभी के लिए बताया गया हैं।
यजुर्वेद २६.२ के अनुसार हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो।
अथर्ववेद १९.६२.१ में प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें।
यजुर्वेद १८.४८ में प्रार्थना हैं की हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये।
अथर्ववेद १९.३२.८ हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, और वैश्य के लिए और शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय कर।
मनुस्मृति १०/४५ में कहा गया हैं की ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शुद्र इन दोनों से जो भिन्न हैं वह दस्यु हैं।
इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की शुद्र और दस्यु एक नहीं हैं अपितु इन दोनों में भेद हैं।
क्या कोई भी कागज़ी बुद्धिजीवी यह बतायेगे की उनके द्वारा बताया गया महिषासुर का इतिहास किस इतिहास की पुस्तक में वर्णित हैं? इसका उत्तर वेद नहीं हैं क्यूंकि वेद न तो इतिहास की पुस्तक हैं, न ही वेदों के अनुसार आर्य, दस्यु, शुद्र आदि शब्द जातिवादी हैं फिर यह व्यर्थ का पाखंड क्यूँ किया जा रहा हैं। दुर्गा द्वारा महिषासुर का अंत अच्छाई की बुराई पर जीत का प्रतीकात्मक वर्णन हैं। इसे आर्य बनाम अनार्य, ब्राह्मण बनाम शुद्र की संज्ञा देना विकृत मानसिकता का परिचायक हैं। विडंबना यह हैं की यहाँ तो राई भी नहीं हैं जिसका पहाड़ बनाया जा सके यहाँ तो बस हित घटिया मानसिकता हैं जो बाटों और राज करो की कुटिल मानसिकता का अनुसरण करता हैं और हिन्दू समाज की संगठन क्षमता को कमजोर करना उसे विधर्मी ताकतों के सामने कमजोर बनाता हैं।

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