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मुस्लिम महिला क्यों नहीं कर सकती दूसरी शादी?

अगर कोई पूछे भारत संविधान से चल रहा है या इस्लामिक शरियत कानून से तो सब एक सुर में कहेंगे कि संविधान से। लेकिन सब जगह ऐसा नहीं है हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने साफ कर दिया कि एक मुस्लिम व्यक्ति अपनी पहली पत्नी को तलाक दिए बिना कई शादी कर सकता है, लेकिन एक मुस्लिम महिला पर यह नियम लागू नहीं होगा। अगर किसी मुस्लिम महिला को भी दूसरी शादी करनी हो तो उसे शरीयत कानून के अनुसार पहले पति को तलाक लेना होगा।

हाई कोर्ट की जस्टिस अलका सरीन ने यह फैसला मेवात के एक मुस्लिम प्रेमी जोड़े की सुरक्षा की मांग की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुनाया। प्रेमी जोड़े ने हाई कोर्ट को बताया कि वे दोनों पूर्व में विवाहित हैं। मुस्लिम महिला का आरोप था कि उसकी शादी उसकी इच्छा के खिलाफ की गई थी, इसलिए अब वह अपने प्रेमी से शादी कर रह रही है। लेकिन कोर्ट ने उसे कहा पहले तलाक ले जबकि मुस्लिम प्रेमी को कुछ नहीं कहा क्योंकि शरीयत कानून जो लिखा है हाई कोर्ट ने उसका अनुपालन किया।

हमारा संविधान कहता है शादी के समय वर या वधु पहले से शादीशुदा नहीं होने चाहिए। कोई भी महिला और पुरुष दूसरी शादी तभी कर सकते हैं जब उनकी पहली शादी या तो रद्द हो चुकी हो, या पहले पार्टनर की मौत हो चुकी हो, या फिर उनके बीच तलाक हो चुका हो। परन्तु आसमानी किताब सिर्फ पुरुषों को कहती है कि जितनी चाहो बेशुमार बेसहारा औरतो को बीबी ही बना कर रख लो, शरीर में दम हो, पैसे की ताकत हो तो ऊपर वाले को इसमें आपति नहीं है। और यदि कमजोरी हो, तो भी दो-दो, तीन-तीन, चार-चार औरतें शौक के लिए रख लो, यानि “चार की ही अंतिम सीमा नहीं है, ज्यादा भी कर सकते हो।  समर्थ मुसलमानों को व्यभिचार के लिए बेशुमार औरतें रखने की छुट है और गरीबो के लिए कुछ नहीं है। विडम्बना यह है कि पूरी आसमानी किताब में यह खुलासा कही भी नहीं किया की मर्दों की तरह एक औरत कितने मर्दों को अपने शौक के लिए पाल सकती है? मर्दों को मरने के बाद 72 हूर मिलना बताया गया है लेकिन महिलायों को कितने फरिस्ते मिलेंगे शायद इसका हिसाब किताब नहीं दिया गया।

असल में ये कोई व्यंग या सिर्फ उदहारण नहीं बल्कि मानवाधिकार आयोग भी कई बार कह चूका है कि जहाँ जहाँ शरीयत लागु है वहां वहां महिलाओं का अपना खुद का कोई अस्तित्व ही नहीं है। अगस्त 2005 की बात है सउदी अदालत के एक फैसले ने दुनिया को सोचने पर मजबूर कर दिया था हुआ यूँ था कि 34 साल की एक महिला फातिमा मंसूर का उसके पति से तलाक का आदेश दिया। जबकि दोनों अपने दो बच्चों के संग खुशी से रह रहे थे। फातिमा का निकाह भी उसके पिता की मर्जी से हुआ था। लेकिन पिता की मौत के बाद फातिमा के चचेरे भाई ने पुरुष अभिभावक बनकर इस विवाह का विरोध किया। अदालत ने उसका विरोध स्वीकार किया और फातिमा को उसके चचेरे भाई के साथ रहने का हुक्म सुना दिया। जब फातिमा ने इस फैसले का विरोध किया तो उसे कोड़े मारने के अलावा 4 साल जेल की सजा सुनाई गयी।

ऐसे ही 2007 में एक पिता ने अपना कर्ज माफ कराने के लिए अपनी 7 वर्षीय बेटी का विवाह एक 47 साल के अधेड़ से कर दिया। बालिका ने अदालत में विवाह को निरस्त करने की माँग की, लेकिन सऊदी न्यायालय ने ऐसा निर्णय देने से इंकार कर दिया। ऐसे ही उसी वर्ष एक 75  साल की बुजुर्ग महिला खमिसा मोहम्मद सावादी को 40 और कैद की सजा दी गई, क्योंकि उसने एक व्यक्ति को ब्रेड देने के लिए घर के अंदर आने दिया था।

सिर्फ इतना ही नहीं ये जो मौलाना टीवी पर बैठकर हर रोज शरीयत शरियत करते है इनके लिए कुछ और भी उदहारण है जुलाई 2013 में अल बहाह के किंग फहद अस्पताल ने एक बेहद गंभीर रूप से घायल महिला के हाथ की सर्जरी करने से मना कर दिया क्योंकि उसके साथ कोई पुरुष नहीं था। उसके पति की उसी दुर्घटना में मौत हो गई थी महिला दर्द से तड़फती रही लेकिन कोई भी उसकी मदद को सामने नहीं आया।

ऐसे ही फरवरी 2014 की घटना है रियाद के विश्वविद्यालय के कैंपस में एक छात्रा अमना बावजीर को दिल का दौरा पड़ा। कैंपस में महिला डॉक्टर नहीं थी, लेकिन विश्वविद्यालय स्टाफ ने पुरुष डॉक्टर को कैंपस के भीतर जाकर छात्रा के इलाज की अनुमति नहीं दी और छात्रा की मौत हो गई।

सिर्फ यही नहीं सऊदी लड़कियों का व्यस्क होने से पहले ही विवाह करा दिया जाता है और उन्हें हिजाब में रहना पड़ता है। लेकिन इसके बाद भी देश में बलात्कार की घटनाओं में भारी बढ़ोतरी हुई है, जिनमें आधे से ज्यादा मामले सामने ही नहीं आते हैं। इसका कारण है वहां प्रचलित शरिया कानून, जिसके अनुसार किसी महिला का बलात्कार होने पर आरोपी को सजा केवल तभी दी जा सकती है, जब वह आरोपी स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर ले या फिर महिला चार पुरुष गवाह लेकर आये कि इनके सामने मेरा रेप हुआ है। इस कारण वहां महिला चुपचाप सहन कर जाती है। क्योंकि अगर आरोपी उल्टा पीड़ित महिला पर यह आरोप लगा देता है कि बलात्कार करने के लिए उसी ने उकसाया था। तो महिला को व्यभिचार का अपराधी मानकर पूरे समाज के सामने पत्थर मार-मारकर मौत के घाट उतार दिया जाता है। अन्यथा बहुत दया भी की जाए तो 200 कोड़े मारने और 10 साल की जेल की सजा दी जाती है।

जहाँ संविधान महिला और पुरुष को बराबरी का दर्जा देता है वहां आसमानी किताब के अनुसार महिलाओं की बात पर यकीन नही किया जाता उन्हें पुरुष से कम दिमाग समझा जाता है और चार महिलाओं की गवाही को एक पुरुष की गवाही के बराबर माना जाता है। पुरुष कितनी भी महिला से सम्बन्ध बनाये उसे कुछ नहीं कहा जाता, लेकिन महिला को इसके लिए कड़ी सजा का प्रावधान है। ऐसा ही एक मामला सऊदी में 2009 दुनिया के सामने आया था इस मामले में एक 23 साल की अविवाहित युवती सामूहिक का सामूहिक रेप किया गया इसके बाद लड़की गर्भवती हो गई तो उसने अस्पताल में गर्भ को गिराने का असफल प्रयास किया। लड़की को व्यभिचार करने के अपराध में 100  कोड़े मारने और 1 वर्ष की कैद की सजा दी गई। सिर्फ यही साल 2004 में सऊदी की प्रसिद्ध टीवी एंकर रानिया अल-बज को अपने पति से बगैर पूछे रिंग हो रहे उसके फोन उठाने का खामियाजा बुरी तरह मार खाकर घायल होकर भुगतना पड़ा।.

ऐसे एक नहीं हजारों उदहारण शरियत कानून लागु देशों के है और बुर्के में बंद हर एक महिला की यही तश्वीर है क्योंकि बुरका उठाकर रोना भी शरियत कानून का उलंघन है। सवाल सिर्फ शरियत का नहीं है सवाल है हमारे उन जजों से भी है जो संविधान की शपथ लेकर बैठे है और फैसले शरियत के अनुसार सुना रहे है, सवाल विश्व भर की उन नामचीन हस्तियों से भी है जो भारत के किसान आन्दोलन में ज्ञान पेल रहे है, लेकिन ऐसे अत्याचारों पर खामोश बैठे है। सवाल रेयाना ग्रेटा और मियां खलीफा से भी है जो महिला होते हुए भी कभी इस्लामिक देशों महिलायों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों पर एक आवाज नहीं उठाती। जबकि मानवधिकार संगठन मानते है कि यदि महिलाओं के लिए इस धरती पर नरक या दोखज कोई जगह है तो वो वहां है जहाँ ऐसे फैसले लिए जाते है। अगर शरियत इसी के लिए लड़ रहे आतंकवादियों और जेहादियों के मंसूबे कामयाब होते है तो दुनिया का एक बड़ा हिस्सा औरतों के लिए जहन्नुम बन जाएगा लेकिन ऐसे सवालों को साम्प्रदायिक कहकर ढक दिया जाता है।

राजीव चौधरी

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