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म्यांमार क्या रोहिंग्या वापिस आयेंगे ?

ताकत नहीं बल्कि डर लोगों को भ्रष्ट करता है। ताकत खोने का डर उन लोगों को भ्रष्ट कर देता है जो इसे चलाने की कोशिश करते हैं और ताक़त के अभिशाप का डर उनको भ्रष्ट कर देता है जो इसके अधीन होते हैं। ये शब्द म्यांमार की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची के है जो उसने नोबल पुरुस्कार लेते वक्त कहे थे।

लोकतंत्र ख़तरे में है। ये जुमला आप अक्सर सुनते होंगे विपक्षी नेताओं की जुबान से। कभी बराक ओबामा को लोकतंत्र की फिक्र होती है। तो, कभी टेरीजा मे और एंजेला मर्केल लोकतंत्र बचाने की गुहार लगाती हैं। पूरी दुनिया में हंगामा सा है। लोकतंत्र ख़तरे में है। जम्हूरियत को बचाओ। आख़िर लोकतंत्र क्यों ख़तरे में है? उसे किससे ख़तरा है? सीरिया में बशर अल असद की सरकार, जब अपने ही लोगों पर जुल्म करती है, तो लोकतंत्र को ख़तरा नहीं होता। चीन की सरकार जब हॉंगकॉंग जैसे स्वायत्त इलाक़े में दखल देती है, तो लोकतंत्र पर ख़तरा दिखाई नहीं देता। ईरान, इराक़ और रूस में जब साफ-सुथरे चुनाव नहीं होते, तो भी लोकतंत्र को नुकसान नहीं होता, जब अमरीका की जनता डोनाल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति चुनती है, फिर डेमोक्रेसी को खतरा हो जाता है। जब ब्रिटेन के लोग यूरोपीय यूनियन से अलग होने यानी ब्रेक्जिट के हक़ में वोट देते हैं, तो उसे भी लोकतंत्र के लिए ख़तरा क्यों बताया जाता है?  लेकिन भारत अमेरिका ब्रिटेन फ्रांस जैसे सेकुलर देशों में अक्सर लोकतंत्र को खतरा हो जाता है। 

हाल ही में भारत के एक पडोसी देश म्यांमार सेना ने देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची समेत कई नेताओं को गिरफ्तार करने के बाद सत्ता अपने हाथ में ले ली है। अब देश में एक साल तक आपातकाल रहेगा। फिलहाल म्यांमार की राजधानी नेपीटाव और मुख्य शहर यंगून में सड़कों पर सैनिक मौजूद हैं. यानि म्यांमार में लोकतंत्र समाप्त हुआ सैनिक तानाशाही शुरू हो गयी।

यानि पूरी दुनिया में करीब 195 देशों पूरी तरह से लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देशों की तादाद में अभी तक 19 देश थे जो अब घटकर 18 रह गये है। आईईयू की रिपोर्ट के मुताबिक़ सिर्फ दुनिया की कुल आबादी का 4.5 फीसद हिस्सा ही सही मायनों में लोकतांत्रिक माहौल में रह रहा है। अब सवाल है ये कि 177 देशों में किनकी सरकारे है और वहां लोकतंत्र कहो या वहां की जनता को खतरा क्यों नहीं होता? इसमें कुल मिलाकर देखा जाये तो 57 देशों में मुस्लिम है जहाँ लोकतंत्र के बजाय इस्लाम का राज्य है। लेकिन दुनिया का कोई वामपंथी कभी ये सवाल नहीं उठाता कि इन देशों में लोकतंत्र क्यों नहीं है और ये देश सेकुलर क्यों नहीं है?

दूसरा इसके बाद 38 देशों में लोकतंत्र के लिए थोड़े हालात बेहतर हुए हैं। बाकि अधिकांश देशों जहाँ जहाँ कम्युनिस्ट सरकारे है या कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित सरकारें है वहां वहां भी लोकतंत्र नहीं है। सिर्फ तानशाही है। लेकिन कोई आवाज सुनाई नहीं देती कि इन देशों में लोकतंत्र क्यों नहीं है? अब जैसे ही म्यांमार में तख्ता पलट हुआ है कोई कम्युनिस्ट वहां के लोकतंत्र के लिए नहीं बोलेगा क्योंकि म्यंमार की सेना में भी कम्युनिज्म का प्रभाव है न आज विश्व भर किसी वामपंथी की आवाज सूची के पक्ष में सुनाई देगी।

आंग सान सू ची म्यांमार की आजादी के नायक रहे जनरल आंग सान की बेटी हैं।, यूँ तो सूची का जन्म 19 जून 1945 को बर्मा के रंगून शहर में जब महज सिर्फ दो वर्ष की थीं तभी उनके पिता की विपक्षी समूह ने हत्या कर दी थी।

जब सूची 15 वर्ष की थी 1960 में उनकी मां को भारत का बर्मा राजदूत नियुक्त किया गया तब सू ची भी अपनी मां के साथ भारत आ गईं। बताया जाता यहाँ आकर सू ची संजय गाँधी और राजीव गाँधी के साथ खेली और बड़ी हुई यही से उसने नई दिल्ली के लेडी श्री राम महाविद्यालय से 1964 में स्नातक की पढ़ाई की इसके बाद वे अपनी आगे की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय चली गई।

28 साल की सू ची ने भूटान के विदेशी मंत्रालय में रिसर्च ऑफिसर के रूप में काम किया  उसी साल सूची डॉ. माइकल ऐरिस के साथ विवाह बंधन में बंध गईं। लेकिन एक शर्त पर कि एक दिन बर्मा के लोगों को मेरी जरुरत होगी और उस दिन मुझे वापिस जाना होगा। देश के प्रति कर्तव्य की भावना मैंने अपने पिता से सीखी और माफ कर देने की भावना अपनी मां से। ये साल था 1988 सू ची की माँ बीमार हो गयी और मां की देखभाल करने के लिए रंगून वापिस लौट आईं। और इसी साल सूची ने लोकतंत्र के समर्थन में कई भाषण दिए। नतीजा उसे घर पर ही नजरबंद कर दिया गया। इसके बाद कई बार नजर बंदी हटाई गयी लगाई गयी लेकिन एक बड़ा त्याग और देशभक्ति की भावना सूची ने तब दिखाई जब 1999 में उनके पति माइकल ऐरिस इंग्लैंड में थे और सूची से मिलना चाहते थे लेकिन सूची ने साफ मना कर दिया क्योंकि अगर वे चली गईं तब उनको वापिस म्यांमार में आने नहीं दिया जाएगा। और उनका लोकतान्त्रिक बर्मा का सपना अधुरा रह जायेगा. खैर 2010 में नजरबंदी से उनकी रिहाई हुई। 

अब बात रोहिंग्या और सूची के कनेक्शन की 2015 के नवंबर महीने में सू ची के नेतृत्व में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी ने एकतरफा चुनाव जीत लिया। ये म्यांमार के इतिहास में 25 सालों में हुआ पहला चुनाव था जिसमें लोगों ने खुलकर हिस्सा लिया। जैसे ही सूची वहां मजबूत हुई साल इसके अगले साल म्यांमार से रोहिंग्या खदेड़े जाने लगे। पूरी दुनिया में उसकी काफी आलोचना हुई लेकिन सूची मौन रही और रोहिंग्या म्यन्मार से बाहर फेंक दिए गये। बहुसंख्यक बौद्ध आबादी में वह काफी लोकप्रिय बन गयी।

बस इसी के बाद चाइना को छोड़कर बाकि कम्युनिस्ट कहो या वामपंथी सूची को एक विलेन की नजर से देखने लगे। 2017 में भारत और म्यांमार के बीच 11 अहम समझौतों पर हस्ताक्षर हुए यानि चाइना के खास मित्र को सूची के सहयोग से भारत काफी अपनी और करने में सफल रहा ये बात चाइना को नागवार गुजर रही थी इस कारण सूची अब चाइना की भी कहीं ना कहीं दुश्मन बन रही थी।

नतीजा आज सबके सामने है कि म्यांमार में लोकतंत्र समाप्त हुआ सैनिक तानाशाही शुरू हो गयी। अब इसके जवाब में दुनिया का कोई वामपंथी अपनी जुबान नहीं खोलेगा और म्यन्मार को फिर उसी दिशा में ले जायेंगे जहाँ से सूची उसे निकालकर लाई थी क्योंकि लोकतंत्र को खतरा सिर्फ भारत ब्रिटेन अमेरिका और फ्रांस में होता हैमें नहीं।

राजीव चौधरी

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