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युवा मनीषी-पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी

पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी एक युवक दार्शनिक विद्वान् थे जिन्होंने चौबीस वर्ष (24) की अल्पायु में ही संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी, वैदिक साहित्य, अष्टाध्यायी, भाषा विज्ञान, पदार्थ विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, शरीर विद्या, आयुर्वेद, दर्शन शास्त्र, इतिहास, गणित आदि का जो समयक ज्ञान प्राप्त कर लिया था , उसे देख कर बड़े-बड़े विद्वान चकित रह जाते थे।उनके ज्ञान का अनुमान लगाना पर्वत को तोलना था।

गुरुदत्त जी का एक वर्ष(सन् 1888) का कार्य और उपलब्धियां :

— स्वर विज्ञान का अध्ययन
— वेद मन्त्रों के शुद्ध तथा सस्वर पाठ की विधि का प्रचलन
— दिग्गज साधुओं को आर्यसमाजी बनाया
— कई व्याख्यान किये तथा कई लेख और ग्रन्थ लिखे
— पाश्चात्य लेखकों के द्वारा आर्यधर्म पर किये गये पक्षपातपूर्ण आक्षेपों के उत्तर दिए
— शिक्षित वर्ग इस विद्यावारिधि के पास शंका समाधान के लिए आता रहा

पंडित जी गूढ़ से गूढ़ प्रश्न का उत्तर सरलता से देते थे। दार्शनिक गुत्थी उनके समक्ष गुत्थी ही न रहती।
इस नवयुवक के एक वर्ष के कार्य एवं उपलब्धियाँ महापुरुषों में उच्च स्थान दिलवाने के लिए पर्याप्त हैं।

सन्दर्भ : डॉ राम प्रकाश जी की पुस्तक -“पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ”

● वेद और योग का दीवाना – पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी ●
– स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

किसी एक धुन के सिवा मनुष्य कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। धुन भी इतनी कि दुनिया उसे पागल कहे। पं. गुरुदत्त के अन्दर पागलपन तक पहुँची हुई धुन विद्यमान थी। उसे योग और वेद की धुन थी। जब गुरुदत्तजी स्कूल की आठवीं जमात में पढ़ते थे, तभी से उन्हें शौक था कि जिसके बारे में योगी होने की चर्चा सुनी, उसके पास जा पहुँचे। प्राणायाम का अभ्यास आपने बचपन से ही आरम्भ कर दिया था। इसी उम्र में एक बार बालक को एक नासारन्ध्र को बन्द करके साँस उतारते-चढ़ाते देखकर माता बहुत नाराज़ हुई थी। उसे स्वभावसिद्ध मातृस्नेह ने बतला दिया कि अगर लड़का इसी रास्ते पर चलता गया तो फ़क़ीर बनकर रहेगा।

अजमेर में योगी [महर्षि दयानन्द] की मृत्यु को देखकर योग सीखने की इच्छा और भी अधिक भड़क उठी। लाहौर पहुँचकर पण्डितजी ने योगदर्शन का स्वाध्याय आरम्भ कर दिया। आप अपने जीवन घटनाओं को लेखबद्ध करने और निरन्तर उन्नति करने के लिए डायरी लिखा करते थे। उस डायरी के बहुत-से भाग कई सज्जनों के पास विद्यमान थे। उनके पृष्ठों से चलता है पता चलता है कि ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, पण्डितजी की योगसाधना की इच्छा प्रबल होती गई। आप प्रतिदिन थोड़ा-बहुत प्राणायाम करने लगे। आपकी योग की धुन इतनी प्रबल हो गई कि कुछ समय तक गवर्नमैण्ट कॉलेज में साइन्स के सीनियर प्रोफेसर रहकर आपने वह नौकरी छोड़ दी। आपके मित्रों ने बहुत आग्रह किया कि आप नौकरी न छोड़िए। केवल दो घण्टे पढ़ाना पड़ता है, उससे कोई हानि नहीं। आपने उत्तर दिया कि प्रात:काल के समय में योगाभ्यास करना चाहता हूँ, उस समय को मैं कॉलेज के अर्पण नहीं कर सकता। यह पहला ही अवसर था कि पंजाब का एक हिन्दुस्तानी ग्रेजुएट गवर्नमेंट कॉलेज में साइन्स का प्रोफेसर हुआ था। कॉलेज के अधिकारियों और हितैषियों ने बहुत समझाया, परन्तु योग के दीवाने ने एक न सुनी, एक न मानी।

पं. गुरुदत्तजी को दूसरी धुन थी वेदों का अर्थ समझने की। वेदों पर आपको असीम श्रद्धा थी। वेदभाष्य का आप निरन्तर अनुशीलन करते थे। जब अर्थ समझने में कठिनता प्रतीत होने लगी तब अष्टाध्यायी और निरुक्त का अध्ययन आरम्भ हुआ। धीरे-धीरे अष्टाध्यायी का स्वाध्याय पण्डितजी के लिए सबसे प्रथम कर्तव्य बन गया, क्योंकि आप उसे वेद तक पहुँचने का द्वार समझते थे। आपका शौक उस नौजवान-समूह में भी प्रतिबिम्बित होने लगा, जो आपके पास रहा करता था। सुनते हैं कि मा. दुर्गादासजी, ला. जीवनदासजी, मा. आत्मारामजी पं. रामभजदत्तजी और लाला मुन्शीरामजी की बगल में उन दिनों अष्टाध्यायी दिखाई देती थी।

अष्टाध्यायी, निरुक्त और वेद का स्वाध्याय निरन्तर चल रहा। यदि उसमें नाग़ा हो जाती तो पण्डितजी को अत्यन्त दु:ख होता। वह दु:ख डायरी के पृष्ठों में प्रतिबिम्बित है। आपकी प्रखर बुद्धि के सामने दुरूह-से-दुरूह विषय सरल हो जाते थे, और बड़े-बड़े पण्डितों को आश्चर्यित कर देते थे। श्री स्वामी अच्युतानन्दजी अद्वैतवादी संन्यासी थे। पं. गुरुदत्तजी आपके पास उपनिषदें पढ़ने आ जाया करते थे। विद्यार्थी की प्रखर बुद्धि का स्वामीजी पर यह प्रभाव पड़ा कि शीघ्र ही शिष्य के अनुयायी हो गये । स्वामीजी पं. गुरुदत्तजी को पढ़ाते-पढ़ाते स्वयं द्वैतवादी बन गये और आर्यसमाज के समर्थकों में शामिल हो गये।देहरादून के स्वामी महानन्दजी प्रसिद्ध दार्शनिक थे। आपको भी पं. गुरुदत्तजी के अध्यापक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सच्छिष्य के प्रभाव से आप भी आर्यसमाजी बन गये।

[स्रोत : विषवृक्ष, पृ. 38-40]

निरभिमानी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी
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27 नवंबर 1887 में आर्यसमाज लाहौर का दशम वार्षिकोत्सव मनाया जा रहा था। पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी के दो अद्भुत प्रभावशाली भाषण वहाँ हुआ।

लाला जीवनदास उस भाषण से इतना प्रभावित हुए की सभास्थल पर ही अनायास उनके मुख्य से निकल पड़ा , ” गुरुदत्त जी ! आज तो आपने ऋषि दयानन्द से भी अधिक योग्यता प्रदर्शित की है। ”

परन्तु निरभिमानी ऋषिभक्त विद्यार्थी ने झटपट उत्तर दिया -“यह सर्वथा असत्य है। पाश्चात्य विज्ञान जहाँ समाप्त होता है , वैदिक विज्ञान वहाँ से प्रारम्भ होता है और ऋषि के मुकाबले मैं तो सौंवां भाग भी विज्ञान नहीं जानता। ”

महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने भी यह भाषण सुना था। वे लिखते है – “मुझे सुधि न रही कि मैं पृथ्वी पर हूँ। ”

पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का संस्कृत से अद्वितीय लगाव [युवाओ के प्रेरणास्रोत]
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एक दिन गुरुदत्त अपने सहपाठी तथा चेतनानंद के घर गया। वहाँ मनुस्मृति रखी थी। उसे पाँव से ठुकराकर बोला ,”चेतनानंद ! किस गली-सड़ी एवं मातृभाषा में लिखी पुस्तक पढ़ते हो? ”

ईश्वर की लीला देखिए। थोड़े ही दिनों पश्चात स्वयं गुरुदत्त पर संस्कृत का जादू हो गया। उसके ह्रदय में संस्कृत पढ़ने की लालसा पैदा हो गई। श्रेय गया स्कूल में इतिहास पढ़ाने वाले उस अध्यापक को जो इतिहास पढ़ाते समय अनेक अंग्रेजी शब्दों का मूल संस्कृत में बताया करता था।

उसके पश्चात संस्कृत की ऐसी लगन लगी कि संस्कृताध्यापक भी उनकी शंकाओं का समाधान नहीं कर पाते थे और एक दिन तो गुरुदत्त को झिड़क कर कक्षा से बाहर ही निकाल दिया।

अब जल की धारा अपना मार्ग स्वयं बनाने निकल पड़ी।

सर्वप्रथम डॉo बेलनटाइन कृत “Easy Lessons in Sanskrit Grammar ” पढ़ा।

संयोगवश तभी दयानन्द सरस्वती की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका हाथ लग गई। उसका संस्कृत भाग शब्दकोष की सहायता से पढ़ लिया। फिर क्या था ! संस्कृत पढ़ने की रूचि बढ़ती चली गई ।

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का पारायण कर आर्यसमाज मुलतान के अधिकारियों से जा कहा – “मेरी अष्टाध्यायी तथा वेदभाष्य पढ़ने का प्रबंध कर दो अन्यथा मैं जनता में प्रसिद्ध कर दूंगा कि तुम्हारे एक भी व्यक्ति में संस्कृत पढ़ाने की योग्यता नहीं है। तुम केवल संस्कृत का ढोल पीटते हो। ”  विचित्र बालक है। किस चपलता से संस्कृत अध्ययन का प्रबंध करवा रहा है ?

आर्यसमाजियों में भी खूब उत्साह था। तत्काल पंडित अक्षयानंद को मुलतान बुलाया गया।

भक्त रैमलदास और गुरुदत्त आदि ने संस्कृत पढ़नी आरम्भ कर दी।

गुरुदत्त को अष्टाध्यायी पढ़ने की इतनी रूचि थी कि एक बार पूर्णचन्द्र स्टेशन मास्टर बहावलपुर के निमंत्रण पर पंडित अक्षयानंद वहां चले गए तो वह किराया खर्च कर पढ़ने के लिए बहावलपुर ही पहुँच गया परन्तु इतिहास की फिर पुनरावृत्ति हुई। पंडित अक्षयानंद भी उसे पढ़ाने में असमर्थ सिद्ध हुए।

गुरुदत्त कोई साधारण विद्यार्थी तो था नहीं। उसकी संतुष्टि न हो सकी। डेढ़ माह में डेढ़ अध्याय अष्टाध्यायी का पढ़ने के पश्चात अक्षयानंद से पढ़ना छोड़ दिया।

शेष अष्टाध्यायी सभवतः ऋषि दयानन्द के वेदांगप्रकाश की सहायता से स्वयं पढ़ी। सम्पूर्ण अष्टाध्यायी नौ मास में पढ़ लिया। कॉलेज में प्रविष्ट होने से पूर्व अष्टाध्यायी पर उनका अच्छा अधिकार था।

–सन्दर्भ : डॉ रामप्रकाश जी की पुस्तक -“पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ”

अद्भुत प्रतिभा के धनी पं. गुरुदत्त विद्यार्थी,गुरु को भी बना लिया था शिष्य-

वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने आर्यसमाज में विद्वानों की जरूरत समझी।अतः गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने स्वामी अच्युतानन्द को (जो नवीन वेदांती थे) आर्यसमाजी (आर्य सन्यासी) बनाने के लिए ठान लिया। इसके लिए गुरुदत्त जी उनके शिष्य बनकर उनके पास जाया करते थे।फिर क्या हुआ–समय बदला गुरु शिष्य बन गया और शिष्य गुरु।

स्वामी अच्युतानन्द कहा करते थे,“पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी का सच्चा प्रेम,अथाह योग्यता और अपूर्ण गुण हमें आर्यसमाज में खींच लाया।”

जिस हठीले अच्युतानन्द ने ऋषि दयानन्द से शास्त्रार्थ समर में पराजित होकर भी पराजय नहीं मानी थी,आज वही उसके शिष्य के चरणों में अपने अस्त्र-शास्त्र फेंक चुका है।आज वह उसी ऋषि का भक्त है-उसी के प्रति उसे श्रद्धा हो गयी है।
श्रद्धा भी इतनी कि जब कई वर्ष पीछे पण्डित चमूपति ने उनसे पूछा, “स्वामी जी नवीन वेदान्त विषय पर आपका शास्त्रार्थ महर्षि दयानन्द से हुआ था,इसका कोई वृत्तान्त सुनाइए।”
तो गर्व से बोले-“मैं मण्डली सहित मण्डप में पहुँचा।”
चमूपति जी पूछ बैठे – “और … और मेरा ऋषि?”

बस,एकदम बाँध टूट गया,स्वामी जी की आँखों से आँसू छलक आये।ह्रदय की श्रद्धा आँखों का पानी बनकर बह निकली,गला रूँध गया और भर्राई हुई आवाज में बोले-“ऋषि ! ऋषि ! ! वह ऋषि (दयानंद) तो केवल अपने प्रभु के साथ पधारे थे।” इतना कहते ही बिलख -बिलखकर रोने लगे।ऋषि के प्रति उनमें इतनी श्रद्धा पैदा कर दी थी गुरुदत्त ने।

स्रोत-
पुस्तक-“पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी”
लेखक-डॉ राम प्रकाश

पण्डित गुरुदत्त को योग में काफी रूचि थी। किसी योगी महात्मा के मुलतान आने का पता चला तो अपने चाचा के साथ महात्मा जी की सेवा में पहुँच गये और निम्नलिखित वार्तालाप हुआ उनसे —-

गुरुदत्त – महाराज ! योग सीखने का सर्वोत्तम विधि कौनसी है ? जो महर्षि पतंजलि ने अपनें योग सूत्रों में वर्णन की है , वह या और कोई ?

साधु – पतंजलि की विधि ही ठीक है , अन्य विधियाँ कपोल-कल्पित हैं।

गुरुदत्त – क्या आप स्वामी दयानन्द के विषय में कुछ जानते हैं ?

साधु – हाँ , हम जंगलों में इकट्ठे रहे हैं। एक बार हम एक स्थान पर भागवत पुराण बांचने वाले एक पण्डित के पास कथा सुनने जाते रहे। स्वामी दयानंद जी पुराणों की बातें सुनकर दुखी हो जाया करते थे।

गुरुदत्त –क्या वेद समस्त विद्याओं का भण्डार है ?

साधु – हाँ

गुरुदत्त -क्या सैन्य संचालन और व्यूह रचना के नियम भी वेदों में हैं।

साधु – हाँ , हैं। ये सिद्धांत मैं स्वयं भी जानता हूँ यदि कोई छह मनुष्य मेरे साथ वन में चले तो मैं उन्हें महाभारत तथा रामायण के समय की शैली पर शिक्षा दे सकता हूँ।

गुरुदत्त ने महात्मा जी से बुद्धि तीव्र बनाने का ढंग पूछा। इस पर साधु ने उसे एक नुस्खा लिखा दिया जिसमें बहुत सी औषधियाँ वे ही थी जो संस्कार्विधि में लिखी थी।

—— डॉ राम प्रकाश द्वारा लिखी पुस्तक -“पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी”

ईंट-पत्थर किसी का स्मारक नहीं बन सकते

पंडित गुरूदत्त विद्यार्थी अपने व्याख्यानों में कहा करते थे कि-

“ईंट-पत्थर पर किसी ऋषि का नाम खुदवा देने से ऋषि का स्मारक नहीं बन सकता। प्रत्युत यदि ऋषि का स्मारक स्थापित करना चाहते हो तो उन सिद्धांतों का प्रचार करके दिखाओ  जिन सिद्धांतों का प्रहार वे ऋषि करते रहे हैं। स्वामी दयानन्द का स्मारक यही है कि वेद के सिद्धांतों का समाज में प्रचार प्रसार हो जाये। ”
सन्दर्भ- पंडित लेखराम आर्यपथिक संगृहीत महर्षि दयानन्द का जीवन चरित्र। पृष्ठ 891,संस्करण 2046

(नोट- इस लेख के लेखन में आर्य विद्वान् श्री भावेश मेरजा एवं भ्राता अनिल विभ्रांत आर्य का मुझे सहयोग प्राप्त हुआ हैं। उनका सहर्ष धन्यवाद- डॉ विवेक आर्य )

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