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संस्कृत भाषा की महता

डॉ विवेक आर्य

असम सरकार ने राज्य के सभी स्कूलों में 8वीं क्लास तक संस्कृत को अनिवार्य बनाने का फैसला किया है। हमारे देश में एक विशेष समूह है जो हमारी सभी प्राचीन मान्यताओं का हरसंभव विरोध करना अपना कर्त्तव्य समझता है। इन्हें हम साम्यवादी, कम्युनिस्ट, एक्टिविस्ट, पुरस्कार वापसी, JNU के अधेड़ आदि नामों से जानते है। अपनी पुरानी आदत के चलते इन्होंने अनेक कुतर्क देने आरम्भ किये। नवभारत टाइम्स अख़बार में 6 मार्च को दिल्ली संस्करण में “संस्कृत का मोह” शीर्षक से संपादकीय प्रकाशित हुआ। इस संपादकीय में दिए गए कुतर्कों कि हम समीक्षा करेंगे।

कुतर्क नंबर 1. आज जब दुनिया भर के शिक्षाविद और मनोवैज्ञानिक बच्चों के बस्ते का बोझ कम करने के उपाय खोजने में जुटे हैं, तब असम सरकार उन पर एक और विषय का भार लाद रही है।

समाधान- बच्चों के बस्ते का बोझ तो केवल बहाना है। शिक्षा के मूल उद्देश्य से परिचित होते तो कभी ऐसा कुतर्क नहीं देते। वैदिक विचारधारा में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को समाज का एक ऐसा आदर्श नागरिक बनाना है जो समाज और राष्ट्र को अपने योगदान द्वारा समृद्ध करे एवं उन्नति करे। पाश्चात्य शिक्षा का उद्देश्य केवल एक पैसा कमाऊ मशीन बनाना है जो अपने भोगवाद की अधिक से अधिक पूर्ति के लिए येन-केन प्रकारेण धन कमाए। आप स्वयं देखे अनेक पढ़े लिखे युवक आज अपनी महिला मित्र को प्रसन्न करने के लिए या सैर सपाटे के लिए चोरी करते है। क्योंकि उनकी शिक्षा में उन्हें नैतिक मूल्यों, सामाजिक कर्त्तव्य, राष्ट्र उन्नति के लिए योगदान देने, महान एवं प्रेरणादायक प्राचीन इतिहास आदि के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं बताया जाता।  यह कार्य संस्कृत शिक्षा के माध्यम से भली प्रकार से हो सकता है। यही प्राचीन गुरुकुलीय संस्कृत शिक्षा पद्यति का उद्देश्य था।

कुतर्क नंबर 2- अंग्रेजी-हिंदी के अतिरिक्त तीसरी भाषा के रूप में तमिल, तेलुगू, कन्नड़ या असमिया आदि जीवित स्थानीय भाषा सिखाई जाये। संस्कृत तो मृत भाषा है।

समाधान-  मृत और जीवित भाषा की कल्पना केवल मात्र कल्पना है। भारत में कुछ लोग लैटिन, हिब्रू, ग्रीक, अरबी, फारसी आदि भाषाओं को प्रोत्साहित करते है।  आप कभी इन भाषाओं को मृत नहीं बताते। क्यों? क्योंकि यह दोहरी मानसिकता है।  उसके ठीक उलट आप इन भाषाओँ के संरक्षण के लिए सरकार से सहयोग की अपेक्षा करते है। कोई भी व्यक्ति जो संस्कृत भाषा कि महता से अनभिज्ञ है इसी प्रकार की बात करेगा परन्तु जो संस्कृत भाषा सीखने के लाभ जानता है उसकी राय निश्चित रूप से संस्कृत के पक्ष में होगी। संस्कृत भाषा को जानने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि हमारे धर्म ग्रन्थ जैसे वेद, दर्शन, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता इत्यादि में वर्णित नैतिक मूल्यों, सदाचार,चरित्रता, देश भक्ति, बौद्धिकता शुद्ध आचरण आदि गुणों को संस्कृत की सहायता से जाना जा सकता हैं। जो जीवन में हर समय आपका मार्गर्दर्शन करने में परम सहायक है। कल्पना कीजिये जिस समाज में कोई चोर न हो, कोई व्यभिचारी न हो, कोई पापकर्म न करता हो।  वह समाज कितना आदर्श समाज होगा। वैदिक शिक्षा प्रणाली में इसी प्रकार के आदर्श समाज की परिकल्पना है। इसी समाज को महात्मा गाँधी आदर्श समाज के रूप में रामराज्य के रूप में मानते थे। अगर संस्कृत भाषा को अंग्रेजी के समान प्रोत्साहन दिया जाता तो आप इसे कभी मृत भाषा  कहते अपितु इसके लाभ से भी परिचित होते।

कुतर्क नंबर 3 – अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को सीखने से रोजगार के नवीन अवसर मिलने की अधिक सम्भावना है जबकि संस्कृत सीखने का कोई लाभ नहीं है। दुनिया के साथ हमकदम होकर चलने, आधुनिक ज्ञान और प्रौद्योगिकी की जानकारी हासिल करने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य है। इससे आगे चलकर तकनीकी क्षेत्रों और शोध में भी मदद मिलती है।

समाधान- लगता है आप अपनी छोटी सी दुनिया तक सीमित है। विश्व में अनेक देश अपनी राष्ट्रभाषा को प्रोत्साहन देकर विकसित देशों की सूची में शामिल हुए है। जैसे रूस वाले रुसी भाषा, चीन वाले चीनी भाषा, जापान वाले जापानी भाषा, फ्रांस वाले फ्रांसीसी भाषा, इटली वाले इटालियन भाषा सीख कर ही संसार में अपना सिक्का ज़माने में सफल हुए है। अंग्रेजी भाषा मुख्य रूप से उन देशों में अधिक प्रचलित है जिन देशों पर अंग्रेजों ने राज किया था।  स्वतंत्र होने के पश्चात भी उन देशों के लोग गुलामी की मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए है। वे अब भी अपने देश के श्रेष्ठ मान्यताओं को निकृष्ठ एवं अंग्रेजों की निम्नस्तरीय मान्यताओं को श्रेष्ठ समझते हैं। यही नियम आप पर भी लागु होता है। आप भूल गए कि संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर द्वारा अंग्रेजी के स्थान पर संस्कृत को मातृभाषा बनाने का प्रस्ताव दिया गया था।  जिसे अंग्रेजी समर्थक लोगों ने लागु नहीं होने दिया। जब अन्य देश अपनी मातृभाषा में शोध और आधुनिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। तो फिर भारत संस्कृत के माध्यम से क्यों नहीं कर सकता?

कुतर्क नंबर 4- संस्कृत भाषा में रोज़गार की सम्भावना न के बराबर है। संस्कृत जानने वालों का भविष्य उन्नत नहीं है।

समाधान- लगता है आप व्यावहारिक एवं सामाजिक यथार्थ से अनभिज्ञ है। हमारे शिक्षा पद्यति में अनेक पाठ्क्रम विद्यमान है जैसे विज्ञान, वाणिज्य, ललित कलाएं आदि। इनमें से उतीर्ण होने वाले क्या सभी बालक क्या अपनी शिक्षा को रोजगार में प्रयोग कर पाते है? नहीं। बहुत सारे छात्र अपने पारिवारिक व्यवसाय को चुनते है, बहुत सारे अन्य कार्य करते है।  इसलिए यह कहना कि संस्कृत शिक्षा प्राप्त भूखे मरेगे केवल अपनी अव्यवहारिक कल्पना हैं। हमने अनेक संस्कृत शिक्षा प्राप्त छात्रों को IAS, IPS तक बनते देखा है।  दूसरी ओर पढ़े लिखे बेरोजगार भी देश में बहुत है।

आपको एक अन्य उदहारण भी देते है। JNU दिल्ली में राजनीती करने वाले अधेड़ छात्रों के शोध विषय देखिये। कोई बुद्धित स्टडीज से पीएचडी कर रहा है। कोई अफ्रीकन स्टडीज से पीएचडी कर रहा है। कोई पाली भाषा में शोध कर रहा है। कोई ग़ालिब की गजलों पर शोध कर रहा है।  इन सभी को उचित रोजगार मिलने कि क्या गारंटी हैं? अगर भूले भटके कोई शिक्षक लग गया तब तो ठीक है।  अन्यथा नारे लगाने के अलावा किसी काम का नहीं है। निश्चित रूप से अगर देश में संस्कृत भाषा में शोध होने लगे तो निश्चित रूप से संस्कृत भाषा के माध्यम से भी रोज़गार के अवसर पैदा होंगे। इसलिए भूखे मारने का कुतर्क अपने पास रखे।

कुतर्क नंबर 5- विदेशी भाषा को जानने से व्यापार आदि की संभावनाएं प्रबल होगी। इसलिए संस्कृत पर समय लगाना व्यर्थ है।

 

समाधान- संसार की सभी विदेशी भाषाओँ का ज्ञान किसी एक व्यक्ति को नहीं हो सकता। कामचलाऊ ज्ञान एक-दो भाषाओँ का हो सकता हैं। मगर इस कामचलाऊ ज्ञान के लिए संस्कृत जैसे महान भाषा की अनदेखी करना मूर्खता है। एक उदहारण से इस विषय को समझने का प्रयास करते है। एक सेठ की तीन पुत्र थे। वृद्ध होने पर उसने उन तीनों को आजीविका कमाने के लिए कहा और एक वर्ष पश्चात उनकी परीक्षा लेने का वचन दिया और कहा जो सबसे श्रेष्ठ होगा उसे ही संपत्ति मिलेगी। तीनों अलग अलग दिशा में चल दिए। सबसे बड़ा क्रोधी और दुष्ट स्वाभाव का था। उसने सोचा की मैं जितना शीघ्र धनी बन जाऊंगा उतना पिताजी मेरा मान करेंगे। उसने चोरी करना, डाके डालना जैसे कार्य आरम्भ कर दिए एवं एक वर्ष में बहुत धन एकत्र कर लिया। दूसरे पुत्र ने जंगल से लकड़ी काट कर, भूखे पेट रह कर धन जोड़ा मगर उससे उसका स्वास्थ्य बहुत क्षीण हो गया।  तीसरे पुत्र ने कपड़े का व्यापार आरम्भ किया एवं ईमानदारी से कार्य करते हुए अपने आपको सफल व्यापारी के रूप में स्थापित किया। एक वर्ष के पश्चात पिता की तीनों से भेंट हुई।  पहले पुत्र को बोले तुम्हारा चरित्र और मान दोनों गया मगर धन रह गया इसलिए तुम्हारा सब कुछ गया क्यूंकि मान की भरपाई करना असंभव हैं, दूसरे पुत्र को बोले तुम्हारा तन गया मगर धन रह गया इसलिए तुम्हारा कुछ कुछ गया और जो स्वास्थ्य की तुम्हें हानि हुई है उसकी भरपाई संभव हैं, तीसरे पुत्र को बोले तुम्हारा मान और धन दोनों बना रहा इसलिए तुम्हारा सब कुछ बना रहा। ध्यान रखो मान-सम्मान तन और धन में सबसे कीमती है।

यह मान सम्मान, यह नैतिकता, यह विचारों की पवित्रता, यह श्रेष्ठ आचरण, यह चरित्रवान होना यह सब उस शिक्षा से ही मिलना संभव हैं जिसका आधार वैदिक शिक्षा प्रणाली है।  जिस शिक्षा का उद्देश्य केवल जीविकोपार्जन हैं उससे इन गुणों की अपेक्षा रखना असंभव है। यह केवल उसी शिक्षा से संभव है जो मनुष्य का निर्माण करती है। मनुष्य निर्माण करने और सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान से प्रभावित करने की अपार क्षमता केवल हमारे वेदादि धर्म शास्त्रों में हैं और इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता है। जीवन यापन के लिए क्या क्या करना चाहिए यह आधुनिक शिक्षा से सीखा जा सकता हैं मगर जीवन जीने का क्या उद्देश्य हैं यह धार्मिक शिक्षा ही सिखाती हैं। समाज में शिक्षित वर्ग का समाज के अन्य वर्ग पर पर्याप्त प्रभाव होता हैं। अगर शिक्षित वर्ग सदाचारी एवं गुणवान होगा तो सम्पूर्ण समाज का नेतृत्व करेगा। अगर शिक्षित वर्ग मार्गदर्शक के स्थान पर पथभ्रष्टक होगा तो समाज को अन्धकार की और ले जायेगा। संस्कृत भाषा में उपस्थित वांग्मय मनुष्य को मनुष्यत्व सिखाने की योग्यता रखता हैं।  हमारे देश की अगली पीढ़ी को संस्कृत भाषा का पर्याप्त ज्ञान हो और उससे उन्हें जीवन में दिशानिर्देश मिले। यही संस्कृत की महत्ता है।

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