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सच्ची आध्यात्मिकता के उन्नायक व पुरस्कर्ता ऋषि दयानन्द

ऋषि दयानन्द (1825-1883) को सारा संसार जानता है। सभी मत-मतान्तरों के आचार्य भी उन्हें व उनके बनाये सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को जानते हैं। उन्होंने धार्मिक जगत में ऐसी क्रान्ति की जिसने सभी मत-मतान्तरों की अविद्या की पोल खोल दी। उनके आने से पूर्व सभी मत-मतान्तरों में अविद्या, अन्धविश्वास व कुरीतियां विद्यमान थी परन्तु किसी को इसका ज्ञान नहीं था। सभी मतों के लोग अपने अपने अविद्या से युक्त मत, धर्म व सम्प्रदाय का प्रचार करते थे और दूसरे उसे सत्य स्वीकार कर लेते थे। इसका कारण यह था कि न तो मत पन्थों के आचार्यों और न ही सामान्य मनुष्यों में सत्य व असत्य की परीक्षा करने की सामर्थ्य व विवेक था। आज भी सत्यासत्य का विवेक बहुत कम लोगों में है। इसी कारण अनेक लोग दूसरे मतों के बहकाने, फुसलाने व स्वार्थ आदि के कारण दूसरे मतों को स्वीकार कर लेते हैं। ऋषि दयानन्द ने सभी मतों की अविद्या को संक्षेप में अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किया है जिससे मनुष्यों को सत्य व असत्य का विवेक हो सकता है। अपेक्षा यही होती है कि उस मनुष्य को सामान्य हिन्दी पढ़ने का ज्ञान हो व वह समय निकाल कर सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़े। जिन लोगों ने इस ग्रन्थ को पढ़ा और जो स्वच्छ व शुद्ध मन व विचारों के लोग थे उन पर सत्यार्थप्रकाश के जादू ने काम किया और वे वैदिक धर्म की शरण में आ गये व ऋषि दयानन्द के भक्त बन गये। यदि उदाहरण देना हो तो हम स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी व स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी का उल्लेख करेंगे।

ऋषि दयानन्द वेदों व वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। वह सच्चे योगी थे जिन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया हुआ था। योग की सिद्धि ही इस बात में होती है कि योगी ईश्वर का साक्षात्कार कर ले। यहां यह भी बता दें कि ईश्वर का साक्षात्कार केवल योगियों को ही होता है। जिस योगी को ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है वह मृत्यु के पश्चात जन्म मरण से मुक्ति पा जाता है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। चारों ऋषियों को एक एक वेद का ज्ञान दिया गया था। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। वेदों का मुख्य विषय ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान कराना अथवा मनुष्य के कर्तव्य कर्मों का उल्लेख कर उसे अधर्म से हटा कर धर्म में प्रवृत्त करना ही हैं। वेदों में सभी सत्य विद्यायें बीज रूप में विद्यमान हैं। जिन बन्धुओं को वेद के विषय में अधिक जानने की इच्छा हो उन्हें ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना चाहिये। हमारी यह सृष्टि ईश्वर द्वारा संसार में विद्यमान अनादि, अमर, अल्पज्ञ जीवात्माओं के लिए बनाई गई है जिससे वह अपने पूर्व जन्म के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगते रहें। इस सृष्टि की रचना से पूर्व प्रलय थी और उस प्रलय से पूर्व भी सृष्टि थी। उस पूर्व सृष्टि में जीवात्माओं के कर्मों के अनुसार ही वर्तमान सृष्टि में जीवात्माओं को जन्म व मनुष्यादि योनियां प्राप्त हुई थी। यह क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है और अनादि काल तक चलता रहेगा। कभी भी यह क्रम रूकेगा व समाप्त नहीं होगा।

वेदों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का स्वरूप आर्यसमाज के नियमों, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला व अपने प्रायः सभी ग्रन्थों को प्रस्तुत किया है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ऋषि दयानन्द ने कहा है ‘ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ ईश्वर का यह स्वरूप अति संक्षिप्त वर्णित है। ऋषि के वेदभाष्य सहित उनका समस्त साहित्य पढ़ने पर ईश्वर के सत्य स्वरूप का कुछ अधिक विस्तार से ज्ञान होता है। ऋषि दयानन्द अपने ग्रन्थों में ईश्वर के मनुष्यादि प्राणियों पर उपकारों का वर्णन भी करते हैं। वह कहते हैं कि हम कितना भी कर लें ईश्वर के ऋणों से उऋण नहीं हो सकते। कृतज्ञता रूप में हमें ईश्वर की स्तुति करनी चाहिये। इसी से मनुष्य ईश्वर के उपकारों से किंचित उऋण हो सकता है। ईश्वर की स्तुति करने के साथ उसकी प्रार्थना व उपासना भी सभी मनुष्यों को करनी चाहिये। प्रार्थना से मनुष्य निरभिमानी बनता है और उपासना से मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव का सुधार होता है और वह ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के कुछ कुछ अनुरूप व उस जैसे बनते हैं। ईश्वरोपासना से मनुष्य के बुरे कर्मों की प्रवृत्ति व कुसंस्कार दग्ध होते जाते हैं और मनुष्य एक प्रकार से महात्मा के समान बन जाता है। ईश्वरोपासना पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने से मनुष्य महात्मा, भक्त व उपासक बन जाता है जिससे मनुष्य का इहलौकिक व पारलौकिक जन्म व जीवन भी सुधरता है। ऋषि दयानन्द ने उपासना के लिए सन्ध्योपासना की विधि भी लिखी है जो वेदों पर आधारित है और संसार में उपासना की सर्वाधिक सटीक व उत्तम लाभ प्राप्त कराने वाली विधि है। सन्ध्या का पूरा लाभ हो इसके लिए ईश्वरोपासक को वेद व वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि आदि सभी ग्रन्थों का अध्ययन व स्वाध्याय करना चाहिये। स्वाध्याय करने से किसी भी विषय का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि हम जिस विषय का अध्ययन व स्वाध्याय करें वह उस विषय के मर्मज्ञ व सत्य वक्ता द्वारा लिखा गया हो। अविद्यायुक्त व भ्रान्त लोगों के ग्रन्थों से वह ज्ञान प्राप्त नहीं होता जो ऋषियों व वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों से होता है। यहां यह भी बता दें कि सभी मनुष्य व अन्य योनियों के प्राणी भी ईश्वर के पुत्र व पुत्रियां हैं। ईश्वर के सच्चे सन्देशवाहक वेदों के ज्ञानी ऋषि,योगी व विद्वान ही हैं। हमें अधिकांश ग्रन्थों का अध्ययन करने पर सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ प्रमुख व उत्तम ग्रन्थ लगें हैं। हम पाठकों को परामर्श देंगे कि वह कम से कम इन दो ग्रन्थों का तो पूर्ण मनोयोगपूर्वक अवश्य ही अध्ययन करें।

ऋषि दयानन्द ने उपासना के लिए सन्ध्या की जो विधि लिखी है वह जीवन को उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्रदान करने में सर्वाधिक सहायक है। यह विधि योगदर्शन पर आधारित है। ऋषि दयानन्द योगदर्शन के अष्टांग योग के भी समर्थक व प्रचारक थे। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उन्होंने योगदर्शन के अनेक सूत्रों को हिन्दी अर्थों सहित भाषार्थ प्रस्तुत किया है। आध्यात्मिकता का जो अर्थ हम समझे हैं वह यही है कि हम वेदों व वैदिक साहित्य से ईश्वर के यथार्थ व सत्य स्वरूप को अधिक से अधिक जानें व समझें व उसके उस स्वरूप का ध्यान व चिन्तन करते हुए उसमें इस सीमा तक खो जायें कि हम अपनी सुध बुध ही भूल जायें। यह उपासना की उच्च स्थिति कही जाती है। ऐसा अभ्यास करने से ही मनुष्य का ईश्वर का ध्यान परिपक्व होता है व वह समाधि को प्राप्त करता है। समाधि की अवस्था ही वह अवस्था होती है जिसमें ईश्वर का साक्षात्कार होता है और जीवात्मा का चरम लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति को वह पा लेता है जिसके बाद उसका मोक्ष होना प्रायः तय हो जाता है। शर्त यह होती है कि वह बाद के जीवन में भ्रष्ट न हो जाये। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ व साहित्य मनुष्य को ईश्वर का सत्य व यथार्थ ज्ञान कराने के साथ ईश्वर साक्षात्कार तक ले जाते हैं। इसके बाद जन्म व मरण से छुटकारा हो जाता है व मोक्ष की प्राप्ति सम्भव हो जाती है।

ईश्वर के उपासकों का एक कर्तव्य यह भी होता है कि वह प्रतिदिन दैनिक अग्निहोत्र करें। अग्निहोत्र से वायु व जल की शुद्धि होती है। इसके साथ ही अन्न, ओषधि, फल, फूल व पर्यावरण आदि सभी शुद्ध व पवित्र होते है।। यज्ञ से परिवार में सुख व शान्ति आती है व सुखों की वृद्धि होती है। परिवार निरोग, स्वस्थ व बलशाली होने के साथ समृद्ध होता है। यज्ञ करने वाला निर्धन नहीं होता। यज्ञ का एक नाम विष्णु है। यज्ञ करने वाले को विष्णु जी के समान धन वैभव व लक्ष्मी प्राप्त होती है। उसकी निर्धनता दूर हो जाती है। परिवार व बच्चे संस्कारित होते हैं। विद्या की उन्नति भी यज्ञ करने व उसमें विद्वानों को आमंत्रित कर उनके अनुभव व विचारों को सुनने आदि कार्यो से होती है। यज्ञ करने से अविद्या का भी नाश होता है। जब वैदिक विद्वान व पुरोहित समय समय पर यज्ञकर्ता के निवास पर आया करेंगे व यज्ञकर्ता आर्यसमाज जाया करेंगे तो इससे ब्राह्मण से आरम्भ कर पिछड़े व दलित सभी बन्धुओं की अविद्या पूर्णतः दूर हो सकती है। हम जो थोड़ा सा धर्म विषयक ज्ञान रखते हैं वह भी सत्यार्थप्रकाश व वेदादि साहित्य की देन है। इसमें कुछ अंश विद्वानों के सुने प्रवचन व विद्वानों की संगति भी है। जो भी मनुष्य सन्ध्या व यज्ञ करेगा तथा वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करेगा, उसकी शत प्रतिशत न सही अधिकांश अविद्या अवश्य दूर होगी और ऐसा होने पर उसका अभ्युदय एवं निःश्रेयस प्राप्त करना सम्भव हो सकता है। यदि निःश्रेयस प्राप्त न भी होगा तो भी वह निःश्रेयस के मार्ग पर पीछे हटने के स्थान पर कुछ आगे तो अवश्य ही बढ़ेगा। अतः सभी को वेद मार्ग पर चलना चाहिये जिससे कि मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति सहित भौतिक उन्नति भी प्रापत करे व आचार विचार में वह शुद्ध व पवित्र हो। आज संसार में जो आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा की जा रही है उसका प्रमुख श्रेय ऋषि दयानन्द को है। यदि वह उन्नीसवीं शताब्दी में वेदों का प्रचार न करते तो आज जो धर्म प्रचार की स्थिति है, वह सम्भवतः इतनी सरल व अनुकूल न होती। सच्ची आध्यात्मिकता से परिचय कराने व उसका प्रचार कर उसे जनसामान्य में लोकप्रिय बनाने के लिए ऋषि दयानन्द का कोटिशः अभिनन्दन एवं श्रद्धा सहित धन्यवाद करते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य


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