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समलैंगिकता के खिलाफ आर्य समाज द्वारा कानून की मांग..आखिर समलेंगिक जोड़े समाज में क्या पैदा करेगे..?

पता नहीं इस विषय पर लिखना जरुरी था भी या नहीं किन्तु ये पता है जब धर्म और समाज की हानि करने के लिए कुछ लोग एकजुट हो जाये तो तब कृष्ण भी अर्जुन से कहते है कि उठो पार्थ अब धनुष साधो. हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के 5 सदस्य संविधान पीठ ने एकमत से भारतीय दंड संहिता की 158 साल पुरानी धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसके तहत परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना अपराध था अदालत ने कहा यह प्रावधान संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार का उल्लंघन करता है. सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के साथ ही भारत 26 वां वह देश बन गया जहाँ अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध स्वीकार किये जायेंगे.

फोटो साभार
असल में समलैंगिकता को अगर साफ शब्दों में कहा जाए तो पुरूष का पुरूष के साथ संबंध बनाना व महिला का महिला के साथ संबंध बनाना समलैंगिकता है. भारत में इसके खिलाफ वर्ष 1861 में अंग्रेजों द्वारा धारा 377 बनाई गयी थी जिसके तहत समलैंगिक अर्थात अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध को अपराध के रूप में देखा जाता था. किन्तु अब इसे न्यायिक स्वीकृति मिल गयी, धीरे-धीरे सामाजिक स्वीकृति भी मिल ही जाएगी.
यह हम सभी जानते हैं कि प्रकृति ने महिला और पुरुष को एक-दूसरे के पूरक के तौर पर बनाया है. दोनों के बीच उत्पन्न हुए शारीरिक संबंध एक नए जीवन, अगली पीढ़ी को जन्म देते हैं. अब समलेंगिक लोग किस चीज को जन्म देंगे आप बखूबी समझ सकते है, देखा जाये तो समलेंगिक संबंधो की मांग करने वाले अधिकांश लोग आज युवा है. अपने मानसिक आनंद की तृप्ति के लिए यह लोग लड़ रहे है. किन्तु कल जब यह लोग बुजुर्ग होंगे तब कहाँ होंगे? कहाँ जायेंगे, कौन इन्हें सम्हालेगा, कौन इनकी देखभाल करेगा समाज पर बोझ बढेगा या सरकार पर?  या फिर इनकी इन अप्राकृतिक आदतों का दंश आने वाले सभ्य समाज के बच्चें झेलेंगे.? तब क्या यह अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा, क्या तब यह अपराध नहीं माना जायेगा? आखिर इन सवालों के उत्तर कौन देगा क्या समलेंगिक समुदाय का कोई मौखिक प्रवक्ता खड़ा दिखाई दे रहा है?
कुछ लोग सोच रहे होंगे कि इससे समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है, हर एक इन्सान अपनी मनोवृति लेकर पैदा होता है. जो लोग ऐसा सोच रहे है उन्हें पता ही नहीं कि यह पूरा घटनाक्रम कोई आधुनिक भारत का न्यायिक किस्सा नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति पर हमले की एक सोची समझी नीति का हिस्सा है. वर्ष 1957 में चेन्नई में जन्मी अंजली गोपालन जो अमेरिका में पली बढ़ी ने 1995 में नाज फाउंडेशन नाम की संस्था की नींव रखी थी. शुरुआत में संस्था का कार्य एचआईवी से ग्रस्त लोगों की देखभाल और उन्हें सहयोग देना था किन्तु अपनी स्थापना के 6 सालों बाद ही नाज फाउंडेशन ने अपना असली रंग दिखाना शुरू किया और समलैंगिक यौन संबंधों का मुद्दा पहली बार 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में उठाया और आखिर आज उसे अपने मूल उदेश्य में सफलता मिल ही गयी.
संस्था और इससे जुड़े आधुनिक बुद्धिजीवी तर्क दे रहे है कि आदिम युग में जब समाज, सभ्यता जैसी कोई चीज मौजूद नहीं थी तब समलैंगिक संबंध बड़े ही सामान्य समझे जाते थे. आज भी विश्व की बहुत सी आदिवासी जनजातियों में समलिंगीय संबंध बिना किसी रोकटोक के अपनाए जाते हैं. यदि यह तर्क है तो हमें शर्म आनी चाहिए कि क्या हम आज 21 वीं सदी में है या आदिम सभ्यता में, जो इस तरह की चीजें स्वीकार कर रहे है? आखिर हमने कौनसा बोद्धिक विकास किया, क्या ऐसा नहीं है की कुछ लोगों के व्यक्तिगत मानसिक, शारीरिक आनंद ने हमें आज उल्टा आधुनिक से आदिम युग में पहुंचा दिया? आखिर क्यों प्राचीन अशिक्षित सभ्यता की तुलना आज की शिक्षित सभ्यता से की जा रही है.? ये जरुरी है या इनकी मज़बूरी है इस प्रश्न का जवाब कौन बुद्धिजीवी देगा?
आज कुछ लोग भारतीय इतिहास और पौराणिक ग्रंथो के कुछ किस्से लेकर यह समझाने का प्रयास कर रहे है कि यह भारतीय संस्कृति का हिस्सा है जैसे कुछ बुद्धिजीवियों ने महादेव शिव का अर्धनारीश्वर वाला रूप समलेंगिकता से जोड़ा दिया तो किसी ने पौराणिक आख्यान विष्णु का मोहिनी रूप धारण कर शिव को रिझाना अप्राकृतिक संबंधों से जोड़ दिया. कुछ कल्पित किस्से उठाकर यह साबित किया जा रहा कि जैसे भारतीय सभ्यता आदि काल से अप्राकृतिक संबंधो के आस-पास ही जमा रही हो.? यदि ऐसा था तो क्यों ऋषि वात्सायन ने कामसूत्र में यह सब पूरी तरह निषेध माना और स्वास्थ्य के लिए संकट के तौर पर दर्शाया लेकिन वैदिक काल के उदहारण इन पश्चिमी सभ्यता के दत्तक पुत्रों को कडवे लगते है.
जबकि असल मायनों में एक शोध की माने तो करीब 75 प्रतिशत समलैंगिक व्यक्तियों को डिप्रेशन और उदासी का शिकार पाया गया. इन के अलावा आत्महत्या, मादक द्रव्यों के सेवन और रिश्ते की समस्याओं की आशंका भी इनमें बनी होती है, यह एक रोग जिसके लिए उपचार के केंद्र खड़े करने थे वहां इस बीमारी को समाज का हिस्सा बनाया जा रहा है. स्त्री पुरुष के बीच का नैतिक संबंध है विवाह,  जिसे समाज द्वारा जोड़ा जाता है और उसे प्रकृति के नियमों के साथ आगे चलाया जाता है. समाज में शादी का उदेश्य शारीरिक संबंध बनाकर मानव श्रृखंला को चलाना है. यहीं प्रकृति का नियम है. जो सदियों से चलता आ रहा है. लेकिन समलैंगिक शादियां या यौन सम्बन्ध ईश्वर द्वारा बनाये गये इस मानव श्रृंखला के नियम को बाधित करती है. प्राकृतिक शादियों में महिलाएं बच्चे को जन्म देती है. जबकि एक ही लिंग की शादियों में दंपत्ति बच्चा पैदा करने में प्रकृतिक तौर पर असमर्थ होता है.
क्या यह साफ तौर पर मानसिक बीमारी नहीं है, इसे उदाहरण के तौर पर देखें कि अभी हाल ही में हरियाणा के मेवात में कई लोगों ने मिलकर एक बकरी के साथ यौन पिपासा शांत की थी. जिसे सभ्य समाज और कानून ने बर्दास्त से बाहर बताया था. यदि ऐसे लगातार 10 से 20 मामले सामने आये और कोई संस्था इसके पक्ष में खड़ी होकर यह मांग करें की ये तो मनुष्य का अधिकार है यह उसके जीने का ढंग है अत: इसे कानूनी रूप से मान्यता दी जाये. तब क्या होगा.? क्या आधुनिकता के नाम पर समाज और कानून इसे भी स्वीकार कर लेगा? यदि हाँ तो फिर जो धर्म, कानून और समाज जो मनुष्य को मनुष्य बनाने में सहायता करता है उसका क्या कार्य रह जायेगा? अपवाद और अपराध हर समय और काल में होते रहे है पर जरुरी नहीं कि उन्हें अधिकार की श्रेणी में लाया जाये..विनय आर्य (महामंत्री) आर्य समाज

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