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सरना धर्म के नाम पर राजनीती का खेल

राजीव चौधरी

क्या कभी आपने सुना कि बेलों ने अपना अलग धर्म बना लिया, या कुछ कबूतर धर्मान्तरित होकर कौए बन गये या फिर कुछ शेर मत परिवर्तन करके गीदड़ बन गये हो ? लेकिन इंसानों के मामले में ऐसा कुछ नहीं है यहाँ तो कोई मत परिवर्तन कर बैठा है तो कोई मत परिवर्तन के लिए आन्दोलन चला रहा है.. कुछ का धर्म ईसाई और मुस्लिम मिशनरी कर रही है तो कुछ का सीधे नेता ही बदल दे रहे है एक दो का नही करोड़ो का एक साथ.. यानि हिन्दू एक ऐसी फसल हो गया जिसे कोई काट ले जाता है.

हाल ही मैं झारखंड विधानसभा ने सरना आदिवासी धर्म कोड बिल को सर्वसम्मति से पास कर दिया है. इसमें आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रस्ताव है. झारखंड सरकार ने कहा है कि ऐसा करके आदिवासियों की संस्कृति और धार्मिक आजादी की रक्षा की जा सकेगी. अब केंद्र सरकार को यह तय करना है कि वह इस माँग को लेकर क्या रुख रखती है.

ठीक ऐसा ही कुछ दो साल पहले कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने भाजपा का सबसे बड़ा वोट बैंक माने जाने वाले लिंगायत समुदाय को अलग धर्म की मान्यता की मंजूरी दे दी थी और अनुमोदन के लिए गेंद केंद्र के पाले में डाल दी थी हालाँकि गेंद अभी वहीं पड़ी है लेकिन झारखण्ड में इसे राजनीति के शास्त्र से समझे तो षड्यंत्र शास्त्र भी कहा जा सकता है.

जिस राज्य के सीएम् खुद एक क्रिप्टो-क्रिश्चियन हो और इस बिल को पास करने के बाद मु स्वयं डांस कर रहा हो और कह रहा हो कि उन्हें काफी दिनों बाद चैन की नींद नसीब हुई है. मसलन सनातन धर्म का एक और टुकड़ा करके सीएम साहब को चैन की नींद आई.

असल में साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में आदिवासियों की संख्या दस करोड़ से कुछ अधिक है. इनमें करीब 2 करोड़ भील, 1.60 करोड़ गोंड, 80 लाख संथाल, 50 लाख मीणा, 42 लाख उरांव, 27 लाख मुंडा और 19 लाख बोडो आदिवासी हैं. इसके अलावा देश में आदिवासियों की 750 से भी अधिक जातियां हैं. जिनमें बड़े स्तर पर ईसाई मिशनरीज अपना खेल दिखा रही है.

हालाँकि इसका बीज अंग्रेजो में बहुत पहले बो दिया था साल 1871 से लेकर आजादी के बाद 1951 तक आदिवासियों के लिए अंग्रेजो ने अलग धर्म कोड की व्यवस्था कर रखी थी ताकि आसानी से धर्मांतरण किया जा सके. लेकिन आजादी के बाद भी इस तत्कालीन सरकारों ने इसमें कोई सुधार नहीं किया ना कोई हिन्दू संत बाबा आश्रम से जुड़े धार्मिक लोग इन लोगों के बीच पहुंचे, बस हरिद्वार और बनारस में हलवा पूरी खाई और पीछे लेट गये. आसाराम बापू ने थोड़ी बहुत कोशिस की थी लेकिन उसे जेल हो गयी.

जबकि 1951 की जनगणना के बाद देश के आदिवासियों को अन्य  कॉलम में डाल दिया गया. लेकिन आदिवासी समुदाय फिर भी खुद को हिंदू कॉलम में दर्ज करने लगे. किन्तु आजादी के बाद भी इन्हें एसटी कहा गया. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि साल 2011 की जनगणना में झारखंड में बड़ी संख्या में आदिवासी होने के बावजूद भी सिर्फ 40 लाख संख्या में खुद को सरना के रूप में दर्ज किया. लेकिन पिछले कुछ समय वामपंथियों ने इस खेल को जोर दिया और सरना धर्म कोड की मांग को लेकर जगह-जगह आंदोलन, प्रदर्शन, मानव श्रृंखलाएं आदि बनाए गए.

हाँ कुछ समय पहले सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा 2021 की जनगणना में आदिवासियों को हिंदू के रूप में हिंदू कॉलम में दर्ज करने की मुहिम चलाने की घोषणा करने और लगातार सरना-सनातन को एक बताने की परम्परा को जन्म देने की कोशिश की थी. इसी बात को लेकर भी कई राजनितिक दल आतंकित थे कि अगर इन्हें हिन्दू मान लिया गया तो उनकी राजनीती की दुकान पर ताला लग जायेगा..इतनी बड़ी संख्या का आज के समय धर्मांतरण मुश्किल है तो सीधा क्यों ना इनका सनातन से सम्बन्ध खतम किया जाये.

इसमें एक शामिल नही है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने झारखंड में आदिवासियों का वोट ‘सरना धर्म कोड’ के कार्ड पर ही हासिल किया था, लेकिन चुनाव जीतने के बाद सरना धर्म कोड पर बातचीत करने वाले प्रतिनिधि मंडल दल से मिलने से इनकार कर दिया था.

अब दा वायर जैसे वामपंथी पोर्टल इस खबर पर जश्न मना रहे है और वामपंथी इतिहासकार आरसी दत्त की किसी किताब का हवाला देकर लिख रहे है कि आर्य जब बंगाल आए तो उनका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करना था और बहुत से आदिवासी हिंदू धर्म में आ गए लेकिन वे निम्न जातियों के रूप में ही जीते रहे. बंगाल में विजेता आर्यों ने सारे प्रदेशों में व्यापक रूप से धर्म का प्रसार किया. लेकिन वे आदिवासी खेतिहरों को समाप्त नहीं कर सके. बहादुर और उग्र आदिवासी बंगाल के सुरक्षित जंगलों में चले गए वहीं कमजोर और दुर्बल लोगों ने विजेताओं का धर्म स्वीकार कर लिया….ये इनका लिखा इतिहास है लेकिन अब इनके खेल को समझिये वामपंथियों की लीला देखिये जो लोग मुस्लिम आक्रान्ताओं के कारण अपना सनातन धर्म बचाने के लिए वनों में गये, उन्हें इन लोगों के द्वारा आर्य आक्रमण से जोड़ दिया गया..भला इनसे कोई पूछे कि इतिहास में ऐसा कौनसा आर्य राजा था जिसनें बंगाल पर आक्रमण किया हो? और धर्मांतरण चलाया हो और उससे पहले इनका धर्म बताने का भी कष्ट करें लेकिन कोई जवाब नही आएगा..

यानि असली मामले को छिपाने के लिए दा वायर नकली खबर प्रसारित कर रहा है दरअसल पिछले दिनों राजधानी रांची से करीब 25 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल गांव गढ़खटंगा में आदिवासियों की जमीन पर बने चर्च के ऊपर लगे क्रॉस को तोड़कर अपना पारम्परिक झंडा लगा दिया था गाँव वालों का दावा था कि गलत तरीके से गाँव की जमीन को हथियाकर चर्च बनाये जा रहे है. यह टकराव नया नहीं था आदिवासियों और ईसाई मिशनरियों में सांस्कृतिक और धार्मिक टकराव साल 2013 में उस समय भी देखनें को मिला था जब रांची के सिंहपुर गांव के कैथलिक चर्च में मदर मेरी की ऐसी मूर्ति का अनावरण किया था जिसमें मदर को आदिवासी महिलाओं के पारंपरिक और सांस्कृतिक परिधान, लाल किनारे वाली सफेद साड़ी में दिखाया गया था. तब भी विरोध में रांची के मोराबादी मैदान में करीब 20,000 आदिवासियों ने जमा होकर विरोध किया था. मूर्ति में मदर मेरी ने जिस तरीके से बालक यीशु को पीले कपड़े से बांधकर गोद में ले रखा था, वह भी बिल्कुल वैसा ही था जैसे आदिवासी महिलाएं अपने बच्चों को रखती हैं. दिन पर दिन टकराव बढ़ रहा था अब ये नया धर्म भी इसी कारण खड़ा किया गया क्योंकि सरना आदिवासी प्रकृति का पूजन करता है वह पेड, खेत खलिहान सहित सम्पूर्ण प्राकृतिक प्रतीकों की पूजन करता है या फिर राम और कृष्ण की आज गाँव में आदिवासी महिलाओं की टोलियाँ जा जाकर मिशनरीज के खिलाफ जागरूक कर रही है तो राज्य के क्रिप्टो-क्रिश्चियन मुख्यमंत्री ने ये दांव खेल दिया कि कल इनके पास देवी देवता होंगे नहीं तो आसानी से मदर मेरी को आदिवासी बनाकर इनका धर्मांतरण किया जा सकता है इसी कारण आदिवासी समाज के बीच हिन्दू विरोध की आग वामपंथी कई वर्षों से सुलगा रहे थे..

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