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सुखों की वर्षा करने वाले

वृषा यज्ञो वृषणः सन्तु यज्ञिया वृषणो देवा वृषणो हविष्कृतः। वृषणा धावापृथिवी

ऋतावरी वृषा पर्जन्यो वृषणो वृषस्तुभः।। ऋग्वेद 10/66/6

 

अर्थ-(यज्ञः वृशा) यज्ञरूप परमात्मा सुख वर्शक हो (यज्ञिया वृशणः सन्तु) उसके उपासक सुखदायी होवे (वृशणः देवाः) विद्वान् सुखप्रद उपदेष करें (हविश्कृत वृशणः) दानी लोग सुख देने वाले हो। (ऋतावरी द्यावापूथिवी वृशणा) जलों वाली द्यु और पृथिवी सुखों की वर्शा करने वाली हो। (पर्जन्य वृशा) पर्जन्य के समान पुत्र सुख देने वाला और (वृशस्तुभः वृशणः) सब सुखों क देने वाले परमात्मा की स्तुति करने वाले भी सुख देने वाले होंवें।

सुख की इच्छा सभी करते हैं। जो इन्द्रियों को हितकर है उसे सुख और जिससे आहत हो प्राणी उससे बचना चाहता है वह दुःख है। मनुश्य जिस पर्यावरण और समाज में रहता है, वह यदि उसके अनुकूल है तो सर्वत्र सुख का वातावरण बन जाता है अन्यथा न चाहते हुये भी प्रतिकुल परिस्थितियों में रहना मरने के कश्ट से भी अधिक दुःखदायी सिद्ध होता है।
बाह्य वातावरण के अतिरिक्त व्यक्ति के अपने विचार, दिनचर्या और आर्थिक स्थिति भी उसे प्रभावित करती है। सुख-दःख का यह चक्र चलता ही रहता है।
न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम्। सुखदुःखे मनुश्याणां चक्रवत् परिवर्ततः।। महा. षा. 174.19-20।।
किसी को सदा सु,ा या दुःख प्राप्त नहीं होता। मनुश्यों के सुख-दुःख चक्र के समान घूमते रहते है। जो सुखी रहना चाहे वह इन उपयों को करे-
सर्वसाम्यमनायासः सत्यवाक्यं च भारत। निर्वेदष्चाविधित्सा च यस्य स्यात् स सुखी नरः।।महा.षा.177.2।।
सब में समता का भाव, व्यर्थ परिश्रम न करना, सत्यभाशण, संसार से वैराग्य और कर्मों में अनासक्ति ये पांचों जिसमें होते है, वह मनुश्य सुखी रहता है। लोक में कहावत है -‘सन्तोशी सदा सुखी’।
मन्त्र में कामना की गई है कि निम्र पदार्थ हमारे लिये सुखों की वर्शा करें। इनका सम्बन्ध पर्यावरण से है।
1. वृश यज्ञः यज्ञ हमारे लिये सुखों की वर्शा करने वाला हो। ‘षतपथ ब्रह्मण’ में कहा है-स्वर्गकामो यजेत स्वर्ग अर्थात् सुख की विषेश इच्छा करने वाला यज्ञ करे। यज्ञ की अग्नि से धूम और उससे बादल बन कर वृश्टि होती है। यज्ञ से वायु एवं जल की षुद्धि होती है। षुद्ध जल, वायु से षुद्ध अन्न और षुद्ध अन्न के सेवन से षुद्ध मन का निर्माण हो व्यक्ति षुभ कर्मों को करता है, जिसका फल है सुख की प्राप्ति। इसलिये ऋशियों का यह कहना युक्तियुक्त ही है। गीता कहती है-
सहयज्ञा प्रजाः सृश्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविश्यध्वमेध वोऽस्त्विश्टकामधुक्।। गीता 3.10।।
प्रजापति ब्रह्म ने सृश्टि के आदि में यज्ञादि करने का ज्ञान वेद के माध्यम से देते हुए कहा कि हे मनुश्यो! तुम इन वेदोक्त यज्ञों द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। ये यज्ञ तुम्हारी कामनाओं की पूर्ति करने वाले होंवे। यज्ञों द्वारा तृप्त हुये देव तुम्हें इश्ट भोगों को देने वाले होंगे। इन देवों को बिना दिये खो जाता है वह चोर ही है।
2. वृशणः सन्तु यज्ञियाः यज्ञादि उत्तम कर्म करने वाले ऋत्विक् हमारे लिये सुखकारी होवें। जो यज्ञ बिना विधि-विधान वेदमन्त्रों के उच्चारण किये बिना और श्रद्धा भाव के बिना और ऋत्विजों को दक्षिणा दिये बिना किया जाता है। वह निश्फल होता है इसलिये यज्ञ में ऋत्विक् उन्हें बनाया जाये तो सब कर्मकाण्ड के पूर्ण ज्ञाता हो। और जिस कामना के लिये यजमान ने यज्ञ कराया है, वह पूर्ण होने की मन से कामना करें तथा जिनकी उस यज्ञ को करने में श्रद्धा भी हो, ऐसे ऋत्विजांे का चयन किया जाना चाहिये और उन्हें मान-सम्मान, दक्षिणादि से सत्कृत करना चाहिये।
3. वृशणों देवाः- यज्ञ में पधारे विद्वान् हमारा मार्गदर्षन कर सुख के साधन क्या है, इसका उपदेष करें। ब्रह्मा का यह दायित्व बनता है कि वह यज्ञ को ठीक पद्धति से कराये और जिस कर्मकाण्ड का अनुश्ठान किया जाता है, उसका रहस्य क्या है और इसका जीवन से क्या सम्बन्ध है, इत्यादि बातों को सरल पद्धति से यजमान एवं उपस्थित जनता को समझाये जिससे लोगों में यज्ञ के प्रति आस्था बने।
4. वृशणः हविश्कृतः- यज्ञादि उत्तम, जनहित के कार्यों में दान देने वाले लोग भी परोपकार की भावना से ही दान दें, अपनी प्रसिद्धि या किसी स्वार्थ पूर्ति के लिये दिया गया दान यज्ञिय भावना का विनाषक है। निश्काम भाव से किया गया कर्म ही यज्ञ कहा जाता है। इदं न मम में भी यही भाव है कि जो उत्तम कर्म या आहुति में यज्ञ में दे रहा हूँ वह सभी के लिये हितकारी हो।
5. वृशाणा द्यावापृथिवी ऋतावरी- द्युलोक और भूमि अन्न-जल द्वारा सुखों की वर्शा करे। यज्ञ से सूर्य तत्व की वृद्धि हो उससे बादल बनते और वर्शा होती है। पर्यावरण की षुद्धि होने से भूमि षुद्ध अन्न, औशधि, वनस्पतियों को उत्पन्न करती है। यज्ञ से पर्यावरण भी सन्तुलित बना रहता है।
6. वृशा पर्जन्यः ‘इच्छानुसार बरसे पर्जन्य ताप धोवें’ यह प्रार्थना हम नित्य करते हैं। यज्ञ से निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्शतु समय समय पर बादल इच्छानुसार वृश्टि करते रहें जिससे पषु-पक्षी और मनुश्यादि सभी की पुश्टि होवे। स्मरण रहे- आजकल पर्यावरण के प्रदूशित हो जाने से तेजाबी वर्शा अनेक स्थानों पर हो रही है जिसके कारण औशधि-वनस्पतियों का विनाष हो भूमिगत जल भी प्रदूशित हो रहा है।
7. वृशणः वृशस्तुभः सब सुखों की वर्शा करने वाले परमात्मा की जो स्तुति करते हैं, वे भी हमारे लिये सुखकारी हों। वे हमें सन्मार्ग का उपदेष करें। जिस यज्ञ का अनुश्ठान हम कर रहे हैं उसका आध्यात्मिक रहस्या क्या है यह समझायें। क्योंकि यज्ञ का अन्तिम लक्ष्य यज्ञ के स्वामी परमात्मा को जान लेना ही है। यज्ञ के द्वारा हम यज्ञरूप प्रभु का ही स्तवन कर रहे हैं। यज्ञ में स्वयं यज्ञपति विराजमान हो रहा है इन सदुपदेषों द्वारा हमें सुखी बनायें।

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