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हम बंदरों की नहीं ऋषियों की संतान है

कुछ समय पहले महाराष्ट्र के औरंगाबाद में आयोजित ऑल इंडिया वैदिक सम्मेलन में मानव के क्रमिक विकास के चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत को वैज्ञानिक रूप से गलत कहने वाले भाजपा सासंद सत्यपाल सिंह ने फिर से उस थ्योरी पर सवाल उठाया है, जिसमें कहा गया था कि मनुष्य पहले बंदर की तरह दिखते थे। हाल ही में लोकसभा में एक विधेयक पर बहस में हिस्सा लेते हुए बागपत से सांसद सत्यपाल सिंह ने कहा, मानव प्रकृति की खास रचना है। हमारा मानना है कि हम भारतीय ऋषियों की संतान हैं। किन्तु हम उनकी भावना को ठेस भी नहीं पहुंचाना चाहते हैं जिनका कहना है कि वे बंदरों की संतान हैं।

किन्तु इस बार भी इस गंभीर विषय पर शोध के लिए समर्थन मिलने के बजाय राजनीति और विरोध हुआ। टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा, यह बयान डार्विन के सिद्धांत के खिलाफ है। तो वहीं द्रमुक सांसद कनिमोई जी को तो इसमें भी वोटबेंक नजर आया और ये कहते हुए विरोध किया कि मेरे पूर्वज ऋषि नहीं हैं। मेरे पूर्वज बंदर हैं और मेरे माता-पिता शूद्र हैं। कमाल देखिये अपने लाखों साल पहले वैज्ञानिक रूप सिद्ध वैदिक दर्शन के विरोध में यह लोग डार्विन के सिद्धांत के प्रति आस्था जताए बैठे है।

असल में डार्विन ने 1859 में एक सिद्धांत दिया था। जिसके मुताबिक 40 लाख साल पहले इंसान ऑस्ट्रेलोपिथेकस से पैदा हुआ था। जिसके बाद कई चरणों में इंसान का विकास होने लगा। पहले वह बन्दर बना फिर इन्सान। आज विश्व के लगभग सभी पाठ्यक्रमों में इसी सिद्धांत को रटाया जाता है। विरोध का कारण भी यही कि अगर कोई बच्चा अपनी परीक्षा में इस सिद्धांत को नहीं मानेगा तो उसे परीक्षक अंक नहीं देगा। अर्थात विद्यार्थियों को अंक पाने है तो उन्हें बंदरों को ही अपने पूर्वज मानना पड़ेगा। जबकि विज्ञान में कोई खोज या ज्ञान अंतिम नहीं है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां धारणाएं और शोध हमेशा परिवर्तन करते रहते हैं। विज्ञान की एक परिभाषा ये भी है कि जिस ज्ञान को चुनौती दी जा सके, वही विज्ञान है। जब कोई ज्ञान स्थिर हो जाये उसे विज्ञान के क्षेत्र से बाहर मान लेना चाहिए।

हालंकि सत्यपाल सिंह द्वारा यह कोई पहला खंडन नहीं है इससे पहले वर्ष 2008 में विकासवाद के समर्थक जीव-विज्ञानी स्टूअर्ट न्यूमेन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि नए-नए प्रकार के जीव-जंतु अचानक कैसे उत्पन्न हो गए, इसे समझाने के लिए अब विकासवाद के नए सिद्धांत की जरूरत है। जीवन के क्रम-विकास को समझाने के लिए हमें कई सिद्धांतों की जरूरत होगी, जिनमें से एक होगा “डार्विन का सिद्धांत” स्टूअर्ट न्यूमेन ने उदाहरण देते हुए कहा था कि, चमगादड़ों में ध्वनि तरंग और गूँज के सहारे अपना रास्ता ढूँढ़ने की क्षमता होती है। उनकी यह खासियत किसी भी प्राचीन जीव-जंतु में साफ नजर नहीं आती, ऐसे में हम जीवन के क्रम-विकास में किस जानवर को उनका पूर्वज कहेंगे?

बेशक आज सत्यपाल सिंह का विरोध राजनितिक कारणों और एक बनी बनाई धारणा को बचाने के लिए अनेकों लोग खड़ें हो जाये। कहे कि डॉ सत्यपाल सिंह थ्योरी ऑफ नेचुरल सिलेक्शन पर निर्मम प्रहार कर रहे हैं।  बेशक आज सत्यपाल सिंह को अति राष्ट्रवादी कहा जाये।  इसे व्यंगात्मक भी लिया जाये किन्तु यदि किसी में जरा भी वैदिक दर्शन की समझ और वैज्ञानिक चेतना है तो वह कतई नहीं मानेंगे कि डार्विन का सिद्दांत अंतिम सत्य है।  क्योंकि कल अगर दूसरा शोध हुआ तो डार्विन का सिद्धांत विज्ञान के अखाड़े में भी धूल चाटता नजर आ सकता है।

कहा जाता है किसी भी सत्य को समझने के लिए उसके अंत तक जाना होता है।  डार्विन ने जो सिद्धांत दिया वो बाइबल को पढ़कर उसके विरोध में दिया था।  किसी भी इन्सान के दिमाग में प्रश्न खड़े होना लाजिमी है एक समय डार्विन के दिमाग में भी कुछ प्रश्न खड़े हुए कि हम कौन हैं? कहां से आये हैं? सृष्टि में इतनी विविधता कैसे और क्यों उत्पन्न हुई? क्या इस विविधता के पीछे कोई एक सूत्र है? जब ऐसे प्रश्नों ने डार्विन को कुरेदना शुरू किया तो उन्होंने बाइबल में इनका उत्तर खोजने का प्रयास किया।  अब बाइबिल के मुताबिक तो ईश्वर ने एक ही सप्ताह में सृष्टि की रचना कर दी थी जिसमें उसने चाँद, सूरज पेड़-पौधे, जीव-जंतु, पहाड़-नदियां और मनुष्य को अलग-अलग छह दिन में बनाया था।  यह सब पढ़कर डार्विन को घोर निराशा हाथ लगी कि छ: दिन में यह सब नहीं हो सकता सब कुछ धीरे-धीरे हुआ होगा।  इस कारण उन्होंने विकासवाद की स्थापना कर दी। क्योंकि उनके लिखे कई पत्रों और उनकी कई किताबों में ईसाइयत के प्रति उनके विरोधी विचार साफ नजर आते हैं। अपनी जीवनी में डार्विन ने लिखा था जिन चमत्कारों का समर्थन ईसाइयत करती है उन पर यकीन करने के लिए किसी भी समझदार आदमी को प्रमाणों की आवश्यकता जरूर महसूस होगी।

जहाँ पूरी दुनिया को डार्विन का सिद्धांत बाइबल का विरोधी सिद्दांत मानना था उनमें से अनेकों लोग अब डार्विन के सिद्दांत को अंतिम सत्य मानकर बैठ गये। आज अनेकों वैज्ञानिक भी इसे आस्था का सवाल बनाकर बैठ गये। यह जानते हुए कि यह अंतिम थ्योरी नहीं है। नये शोध और विचारों को पढ़ना और अपनी चेतना के मुताबिक सच्चाई के निकट जाने की सुविधा आज विद्यार्थियों को देनी होगी। इसलिए आज हमें अपनी उर्जा सत्यपाल सिंह द्वारा कही गई बात के विरोध में नहीं लगानी चाहिए।  इस विषय पर वैज्ञानिक तरीके से शोध होना चाहिए, क्योंकि डार्विन की जगह दुनिया में जब यह संदेश जायेगा कि क्रमविकास का सिद्धांत भी भारत का ही है, तो भारत का गौरव बढ़ेगा, इसलिए बहस भारत का गौरव बढ़ाने की दिशा में होनी चाहिए। वरना हम हमेशा अंग्रेजो की बनाई शिक्षा व्यवस्था में जीते रहेंगे और मानते रहेंगे कि महान ऋषि मुनियों की संतान के बजाय बंदरों की संतान है।

 लेख-राजीव चौधरी

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