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हिन्दू समाज की दुर्दशा

डॉ विवेक आर्य

आज शनिवार है। सुबह सुबह हिन्दू समाज के सदस्यों को मैंने आज शनि भगवान के मंदिर में जाते हुए देखा। मन में उत्सुकता हुई की यह शनि भगवान कौन है और ये लोग शनि मंदिर क्यूँ जा रहे है?

पूछने पर मुझे एक भले मानस से उत्तर मिला कि शनि भगवान के क्रोध से बचने के लिए, उनके प्रकोप से बचने के लिए वे व्यक्ति शनि मंदिर जा रहे थे।

मैंने उनसे पूछा की शनि मंदिर में जाकर आप क्या करते है?

वे बोले की भक्तगन शनि भगवान की मूर्ति पर तेल चढ़ाते हैं और पैसे चढ़ाते हैं। इससे शनि भगवान का क्रोध शांत हो जाता है और हम उनके प्रकोप से बच जाते हैं।

मैंने उनसे पूछा अच्छा एक बात तो बताये कि क्या भगवान क्रोध करते है और अगर करते भी है तो क्यूँ करते है?

वे सज्जन कुछ पल के लिए चुप से हो गए और अटकते हुए बोले की हम जो भी गलत कार्य करते है , भगवान् उसका हमें दंड देते है।

उस दंड से बचने के लिए हम भगवान् की भक्ति करते है। भक्ति तो किसी भी रूप में हो सकती है। हम तेल से उनकी भक्ति करते है।

मैंने उनसे पूछा कि यह कैसे भगवान है जो थोड़े से तेल और कुछ पैसो में ही भक्तों के पाप क्षमा कर देते है?

बड़ा बढ़िया तरीका है पूरे सप्ताह जमकर पाप करो और शनिवार को कुछ ग्राम तेल शनि मंदिर में आकर अर्पित कर दो। काम बन जायेगा।

वे सज्जन नमस्ते कर आगे बढ़ गए।

मैं अपने मन में ईश्वर के गुण, कर्म और स्वाभाव पर विचार करता रहा कि वेदों में ईश्वर को दयालु एवं न्यायकारी कहा गया है।

ईश्वर दयालु इसलिए है क्यूंकि वो हर उस व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए पाप कर्म का दंड अवश्य देते है। जिससे वह व्यक्ति आगे उस पाप कर्म को न करे। इसे दयालुता ही तो कहेगे नहीं तो अगर पापी व्यक्ति को दंड ना मिले तो दिन प्रतिदिन बड़े से बड़ा पाप करने में वह सलंग्न रहेगा, जिससे की सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। और न्यायकारी इसलिए कहा गया है क्यूंकि किसी को भी उतना ही दंड मिलता है जितने उसने पाप किया है। न कम न ज्यादा।

आज कुछ अज्ञानियों ने ईश्वर की न्याय व्यवस्था को न समझ कर शनि की मूर्ति पर तेल चढ़ाने से पापों का क्षमा होना प्रचारित कर दिया है।

यह न केवल ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था का अपमान है अपितु अपने आपको भी मुर्खता के घोर अंधकार में रखने के समान है।

तेल चढ़ाने से न तो कोई पाप कर्म क्षमा होता है और न ही पापों में सलिप्त होने से मनुष्य बच पाता है।

इसे हिन्दू समाज की दुर्दशा ही तो कहना चाहिए की वेदों की पवित्र शिक्षा को त्यागकर हिन्दू लोग इधर उधर धक्के खा रहे हैं।

पाठक अपनी तर्क शील बुद्धि का प्रयोग कर स्वयं निर्णय करे की वे सत्य का वरण करना चाहेंगे अथवा असत्य का वरण करना चाहेंगे।

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