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अब क्रिकेट का मजहबवाद

एक मुस्लिम लेखक गुस्ताख मंटो ने कहा है कि इस दुनिया में जितनी भी लानतें है और पाखंड उन सब की अम्मा है, आज का मुसलमान। ये अपने आप में हिप्पोक्रेसी की एक आला मिसाल है। इनके माथों पर जो सजदे के निशान हैं वो इसकी अक़ीदत यानि श्रद्धा आस्था की तरह बनावटी हैं। ये हराम की कमाई जेब में भर हलाल गोश्त की दुहाई दिया करता है। ये शब्द पढने में थोड़े विचलित कर सकते है लेकिन पिछले दिनों उत्तराखंड में जो हुआ वह भी कम विचलित करने वाला नही है।

श्रीलंका में कुछ समय पहले पाकिस्तानी क्रिकेटर अहमद शहजाद ने वनडे मैच खत्म होने के बाद श्रीलंका के ‌क्रिकेटर दिलशान तिलकरत्ने को धर्म परिवर्तन करने इस्लाम अपनाने की सलाह दी थी। तब यह मामला विश्व स्तर पर बड़ा गूंजा था, लोगों ने पूछा था पाकिस्तान की क्रिकेट टीम के दिमाग में क्रिकेट है या इस्लाम? अब ऐसा ही मामला भारत में सुर्खियाँ बना है. यहाँ भी एक क्रिकेट कोच के दिमाग में क्रिकेट नहीं ऐसा ही कुछ निकलना बताया जा रहा है। दरअसल भारतीय क्रिकेटर वसीम जाफर का नाम सबने सुना होगा। सन्यास लेने के जाफर साहब को उत्तराखंड क्रिकेट संघ का कोच बनाया था। इसके लिए जाफर को एक सत्र के लिए 45 लाख रुपये की भारी-भरकम राशि भी दी गयी। अब जाफर ने उत्तराखंड क्रिकेट संघ के सचिव महिम वर्मा पर तमाम आरोप लगाकर मुख्य कोच के पद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन जब सामने आकर महिम वर्मा ने पूरा किस्सा सुनाया तो क्रिकेट की धर्मनिरपेक्ष छवि को खराब करने के उनके मनसूबे पर सवाल उठ गये।

पूर्व बीसीसीआइ उपाध्यक्ष महिम ने आरोप लगाया कि जाफर उत्तराखंड क्रिकेट संघ के अधिकारियों से लड़ने के अलावा मजहबी गतिविधियों से टीम को तोड़ने का प्रयास कर रहे थे। वह गेस्ट प्लेयर के तौर पर इकबाल अब्दुल्ला, समद सल्ला, जय बिस्टा को लेकर आए। जाफर ने कुणाल चंदेला की जगह जबरदस्ती इकबाल को कप्तान बनाया। शुरुआत में हमने उनके सारे फैसलों को माना लेकिन टीम मुश्ताक अली ट्रॉफी के पांच में से चार मैच हार गई।

विजय हजारे ट्रॉफी के लिए हमने सोमवार को टीम घोषित की और चंदेला को कप्तान बनाया तो अगले ही दिन जाफर ने इस्तीफा भेज दिया। मामला इतना ही नहीं इससे आगे जाफर ने हद ही कर दी महिम ने कहा कि टीम का सहयोगी स्टाफ बताता था कि वह कैंप के दौरान मौलवी बुलाते थे। मुश्ताक अली ट्रॉफी के दौरान टीम के मैनेजर रहे नवनीत मिश्रा ने यहाँ तक कहा कि कैंप के दौरान आयोजन स्थल पर तीन मौलवी आए थे। जब नवनीत मिश्रा ने इसका कारण पूछा तो जाफर ने नवनीत मिश्रा से कहा था कि वे तीनों उन्हें जुम्मे की नमाज अदा कराने आए हैं। जबकि कैंप के दौरान दो बार ऐसा हुआ। यही नहीं उत्तराखंड टीम पिछले साल से ही ‘राम भक्त हनुमान की जय’ स्लोगन का इस्तेमाल कर रही थी। लेकिन इससे जाफर के मजहब को खतरा हो गया और मैदान पर मौलवी बुलाने वाले जाफर ने इसे भी बदलवा दिया।

जाफर ने तर्क दिया कि इस टीम में सभी धर्म के लोग हैं इसलिए इस स्लोगन को बदल लेना चाहिए, जब उनसे कहा गया कि इसकी जगह ‘उत्तराखंड की जय’ कर लेते हैं तो जाफर का मजहब जय से भी खतरें में आ गया और जाफर के कहने पर बाद में गो उत्तराखंड टीम का स्लोगन किया गया। यानि उत्तराखंड की जय का नारा साम्प्रदायिक स्लोगन था और गो उत्तराखंड धर्मनिरपेक्ष हो गया। यही नहीं मजहबी सनक दिमाग में इस तरह सवार हुई कि जैसा कि महिम वर्मा बता रहे है कि वह इकबाल को आगे बढ़ाने के चक्कर में ओपनर चंदेला को नीचे बल्लेबाजी कराने लगे। जब जाफर का विरोध होने लगा उसकी मजहबी सनक सबके सामने आने लगी और कोई जवाब नहीं देते बना तो ये कहकर इस्तीफा दे दिया कि मुख्य कोच के तौर पर ऐसी परिस्थिति में वे काम नहीं कर सकते हैं।

अब पता नहीं जाफर साहब को कैसी परिस्थिति चाहिए थी हो सकता है कुछ ऐसी कि टीम के सभी खिलाडी नमाज पढ़े रोजे रखे, मैदान पर अजान हो, महिला दर्शक बुरका पहन के बैठे, चीयरलीडर्स हिजाब में ठुमके लगाये और बाकि के खिलाडी भी उनकी तरह दाढ़ी रखे सब खिलाडियों के नाम अरबी भाषा के हो?

हो सकता है इसी कारण शायद गुस्ताख मंटो कहता है कि इस हिप्पोक्रेसी के चलते, कई बरस पहले इन मजहब के मुहाफिज़ों ने इस्लाम को एक हसीन महबूबा बना दिया था, इक ऐसी महबूबा जिसकी पाक़ीजगी की दुहाइयां देकर, ये काग़ज के मज़हब परस्त अपनी नापाकियों को अंजाम दिया करते हैं।

गुस्ताख मंटो कहता है आज के मुसलमान के ख्वाब में या तो बाबरी की दीवारों पर हथौड़ा चलाते भगवा दहशतगर्द होते हैं या फिर तीन तलाक, हिजाब और टखनों से ऊपर पैजामे। ये अपनी मुफ़लिसी और मुश्किल हालात को बेहतर करने के बजाए इस ग़म में मुब्तला है कि किसी सलमान रुश्दी ने कोई किताब लिखी है जिससे इस्लाम खतरे में आ गया है।

मंटो यही नहीं रुकता आगे लिखता है इस क़ौम को अपने ज़ाति मामले हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं, ये मज़हब की गिरफ्त में जकड़ी हुई शरिया के तारों से बंधी हुई कौम है, इसे अपनी आने वाली नस्लों की तरक्की, उनके इल्म-ओ-रोजगार की फिक्र ज़र्रे बराबर नहीं है। मजहब और दीन से मुल्ला-मौलवियों का रिश्ता वही ही है जो कच्ची शराब का तस्करों से होता है। इनकी अकीदत मिलावटी होती है और ये नशे के नाम पर ज़हर बेचते हैं मगर बदनाम शराब होती है। अगर हम मौलनाओं और क़ादरियों की शान में क़सीदें पढ़ सकते हैं, उनकी खुदा परस्ती की मिसालें दे सकते हैं तो फिर इन्हीं आलिम-ओ-कालिम हजरात की दरिंदगी पर कोई बात क्यों न करे, क्यों कोई न लिखे? क्यों मैं उस मौलाना की बात न कहूं जिसके दीन और दाढ़ी में ऐसी कितनी कहानियां दफ्न हैं, जहां मदरसों और इदारों में आने वाले मासूम बच्चे इनकी जिन्सी ज़ियादती का शिकार हुए हैं?

खैर चयनकर्ताओं जल्दी अकल आ गयी जो जाफर का बगल में दबा इस्लाम पकड़ा गया। अब टीम की कप्तानी किसी अनुभवी और प्रतिष्ठित खिलाड़ी को दी जानी चाहिए, जो सभी खिलाड़ियों को एकजुट रखकर बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रोत्साहित कर सके।

Rajeev choudhary

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