कुछ समय पहले युगधर्म पुस्तक में पढ़ा एक सन 1942 का एक किस्सा याद आया कि सदर बाजार के बारह टूटी चौक पर एक कुआँ था| यह कुआँ कमेटी ने बनवाया था| बिना वर्ण व्यवस्था के इस कुएँ पर सबका अधिकार था किन्तु यदि कोई गरीब, दलित वहां पानी लेने जाता तो उसे यह कह कर भगा दिया जाता कि यह कुआँ हिन्दुओं और मुस्लिमों का है| दलितों का इस पर कोई हक नहीं| गजब यह था, कि यह बात कुएँ पर खड़े होकर हिन्दू कहते थे| मसलन एक मुस्लिम जाति से “सक्का” अपना चमड़े का डोल लटकाकर पानी भर सकता था किन्तु एक दलित महिला या पुरुष अपनी धुली साफ बाल्टी नहीं भर सकती थी| और हाँ इसमें सबसे बड़ी बात यह थी, कि जो दलित मुस्लिम बन जाता था वो कुएँ पर पानी भर सकता था! व्यवस्था आज भी ज्यों कि त्यों खड़ी है| आज बापुराव का ईश्वर पर विश्वास था कुआँ खोद लिया यदि कोई अन्य होता तो सोचो क्या करता? अब इस जातिगत व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह उठाते समय सोचना कि हमारे सर्वनाश में असली अपराधी कौन, धर्म या जातिवाद?
“आत्मवत् सर्वभूतेषु” सभी प्राणियों को अपनी आत्मा जैसा ही मानो शायद यह उपदेश उस समय किताबों में सिमट जाते है जब महाराष्ट्र में संगीता को दलित होने के कारण ऊँची जात वालें छुआछूत के कारण अपने कुएँ से पानी नहीं भरने दिया जाता | बिहार के दशरथमांझी या उनकेअकेले पहाड़काटकर रास्ताबना देने कीकहानी सबने सुनी होगी। ऐसी ही एक और कहानी सुर्खियोंमें है। सूखा पीडि़त महाराष्ट्र की धरती का सीना चीरकर महज 40 दिनों में पानीनिकाल देने वाले बापुराव ताजणे की भी दसरथ से कम नहीं है। बापुराव ताजणे महाराष्ट्र स्थितवाशिम जिले के कलांबेश्वर गांव मेंमजदूरी कर अपना व परिवार का पेटपालते हैं। दलित होने के कारण बापुरावकी पत्नी को ऊंची जाति केपड़ोसियों ने जब अपने कुएं से पानी नहींलेने दिया तो बापुराव ताजणे को बेहदतकलीफ हुई। दिल ही दिल में यह बातउन्हें चुभने लगी। उस रात उन्हें नींद नहींआई मानो दिल में कोई टीस चुभ रहीथी। सुबह-सवेरे उठकर वह बाहर निकले औरखुद ही कुआं खोदना शुरू कर दिया। अचानक यह सब देख सभी सकते में पड़ गए।पड़ोसी ही नहीं,परिजन भी उनकामजाक उड़ाने लगे। लोगों को उनका यहजुनून पागलपन सा लगा। सही भी था,इतने पथरीले इलाके में भला कुआं खोदकरपानी निकालने की बात किसे यकीनहोगा! वह भी तब जब उस इलाके में पहलेसे ही आसपास के तीन कुएं और एकबोरवेल सूख चुके हों।लेकिन कहते है मनोरथ सच्चा हो तो ईश्वर जरुर साथ देता है| बापुराव रोजाना 8 घंटे कीमजदूरी के बाद करीब 6 घंटे का समयकुआं खोदने के लिए देते। महज 40 दिनोंमें बापुराव ने बगैर किसी की मदद केअकेले ही कुआं खोदकर पानी निकालदिया।
जातिवाद के कारण एक हजार साल की गुलामी झेल चुके भारतीय अभी भी कई जगह एक दुसरे की साँस लेने और छूने से मैले हुए जा रहे है| आज बापुराव ने जो किया की ऊंची सोच और बड़प्पन को हर कोई नमन कर रहा है| लेकिन बापुराव की पत्नी के साथ जो हुआ यह बरताव दलित समुदाय के सदस्य के रूप में उसकी बुनियादी गरिमा से वंचित करता है, बापुराव ने तो अपनी पत्नी संगीता के लिए कुआँ खोदकर समाज को अक्स दिखा दिया किन्तु इसी समाज और देश में ना जाने कितनी अभागी संगीता है और उनके लाचार पति बापुराव| जो आज भी इस सामाजिक छुआछूत को बिना विरोध किये अपना भाग्य मान बैठे! रोज भेदभाव का हाशिए पर जीवन जीने को बाध्यहोते हैं बच्चों को स्कूलों में दोपहर का भोजन उनकी जाति का पता करके दिया जाता है| कुछ दिनों पहले की ही घटना है| मध्य प्रदेश के दमोह जिले के खमरिया कलां गांव में जात-पात के भेद ने ही एक मासूम की बलि ले ली थी। यहां गांव के प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले कक्षा तीसरी के छात्र को स्कूल के हैंडपंप पर पानी पीने से रोका गया इस पर वो मासूम अपनी बोटल लेकर कुएं से पानी निकालने पहुंचा और जिन्दगी से हाथ धो बैठा| हम किसी राज्य विशेष को चिह्नित नही कर नही लिख रहे उस वयस्था अब सवाल यह है कि इक्कीसवींसदी में जबकि भारत विश्वशक्ति बनने का इरादा रख रहा है,क्या,वहइन मानसिक बिमारियों से मुक्त होकर आगे बढ़ने का भी इरादा रखता है?