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आत्मा और परमात्मा

वैदिक सिद्धान्त के अनुसार तीन सत्तायें नित्य स्वीकार की गयी हैं। ईश्वर, आत्मा और प्रकृति। इनमें ईश्वर और आत्मा चेतन हैं, जबकि प्रकृति जड़ है। इन तीनों में कुछ समानतायें भी हैं और कुछ भेद भी। तीनों की समानता यह है कि तीनों अनादि, नित्य व सत्तात्मक हैं। भेद यह है कि ईश्वर एक है, आत्मा अनेक(असंख्य) हैं। ये दोनों ही किसी का उपादान कारण नहीं बनतीं परन्तु प्रकृति जड़ होने से अन्य भौतिक वस्तुओं का उपादान कारण बनती है । प्रस्तुत लेख में हम आत्मा और परमात्मा के विषय में ही विचार करेंगे।

आत्मा का स्वरुप :- न्याय दर्शन के अनुसार “इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानानि आत्मनो लिंगमिति” अर्थात् इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान आत्मा के लक्षण हैं। इनके माध्यम से आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है। “प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगातीन्द्रियान्तरविकाराः सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयात्नाश्चात्मनो लिंगानि” (वैशेषिक दर्शन – ३.२.४.) अर्थात् प्राण को बाहर निकालना, प्राण को बाहर से भीतर लेना, आँख मींचना, आँखें खोलना, प्राण धारण करना, निश्चय करना, स्मरण करना और अहंकार करना, चलना सब इन्द्रियों को चलाना, क्षुधा-तृषा, हर्ष-शोक आदि का होना जीव के लक्षण है। “जन्मादिव्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम्” (सांख्य –1.149) अर्थात् संसार में एक ही काल में किसी का जन्म हो रहा है, किसी की मृत्यु हो रही है, इन्हें देख कर यही ज्ञात होता है कि आत्माएं अनेक हैं। “इदनीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेद:” (सांख्य – 1.151) अर्थात् वर्त्तमान समय में पुरुषों का अत्यन्त अभाव न होना ही इस बात का प्रमाण है कि आत्माएं मुक्तिकाल को भोग कर पुनः जन्म लेती हैं।

इस विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ-प्रकाश में लिखते हैं कि “ दोनों (आत्मा-परमात्मा) चेतन स्वरुप हैं, स्वभाव दोनों का पवित्र है, अविनाशी और धार्मिकता आदि है परन्तु परमेश्वर के सृष्टि-उत्पत्ति, स्थिति,प्रलय, सबको नियम में रखना, जीवों को पाप-पुण्य रूप फलों का देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के संतानोत्पत्ति, उनका पालन,शिल्प-विद्या आदि अच्छे बुरे कर्म करना है।

“आत्मा परिछिन्न है, जीव का स्वरुप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है” (सत्यार्थ-प्रकाश) । आत्मा जब शरीर धारण करती है तभी उसका नाम जीवात्मा होता है। वह अपने द्वारा कृत कर्मों का फल स्वयं भोगती है, “स ही तत्फलस्य भोक्तेति” अन्य नहीं। आत्मा अच्छे-बुरे कर्मों को करने में स्वतन्त्र हैं “स्वतन्त्रः कर्ता” किन्तु कृत कर्मों के फल भोगने में पराधीन है इसीलिए अच्छे कर्मों का फल सुख और बुरे कर्मों का फल दुःख रूप में भोगना पड़ता है। यह संक्षेप में आत्मा का स्वरुप है।

परमात्मा का स्वरुप :- महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के शब्दों के अनुसार, ईश्वर सच्चिदानंदस्वरुप, निराकार,सर्वशक्तिमान,न्यायकारी,दयालु,अजन्मा,अनन्त,निर्विकार,अनादि,अनुपम,सर्वाधार, सर्वेश्वर,सर्वव्यापक,सर्वान्तर्यामी,अजर,अमर,अभय,नित्य,पवित्र और सृष्टिकर्ता है। इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में अनेकों गुण वाचक नाम से ईश्वर के स्वरुप को दर्शाया है, जैसे कल्याणकारी होने से शिव और दुष्टों को पीड़ा देने से रूद्र आदि।

योग दर्शन में बताया गया है कि “क्लेशकर्मविपाकाशयै: अपरामृष्ट: पुरुषविशेष: ईश्वरः” अर्थात् अविद्या आदि पांच क्लेश, सकाम कर्म, उन कर्मों के फल, और संस्कारों से रहित जीवात्माओं से भिन्न स्वरुप वाला ईश्वर होता है । और भी कहा – “स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्” ( योग.) वह ईश्वर गुरुओं का भी गुरु, आदि गुरु है। “तस्य वाचकः प्रणवः” अर्थात् उस परमेश्वर का मुख्य नाम है ‘ओ३म्’, उसी की उपासना करनी चाहिये ।

वेद में कहा भी गया है – “न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते” …( अथर्ववेद ) अर्थात् ईश्वर केवल एक ही है, न दो है न तीन है, इस प्रकार दो, तीन आदि संख्या का प्रतिषेध करके अनेक ईश्वर के मत का खण्डन कर दिया है । “मा चिदन्यत् विशंसत सखायो मा रिषन्यत…अर्थात् हे विद्वानो ! व्यर्थ के चक्कर में मत पड़ो, परमैश्वर्यशाली परमात्मा को छोड़ कर और किसी की स्तुति मत करो। तुम सब मिल कर केवल एक आनंद वर्षक परमेश्वर की ही स्तुति करो । “एक एव नमस्यो विक्ष्वीड्य” ( अथर्व.) अर्थात् एक ही ईश्वर नमस्कार करने योग्य है। “एको विश्वस्य भुवनस्य राजा”- (ऋग.) अर्थात् सम्पूर्ण विश्व का एक ही राजा ईश्वर है। “ईशा वास्यमिदं सर्वं”…( यजुर्वेद.) ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है।

ईश्वर के मुख्य कार्य :-

१.सृष्टि की उत्पत्ति करना ।

२.सृष्टि का पालन वा संचालन करना ।

३.प्रलय का समय आने पर सृष्टि का विनाश करना ।

४.सृष्टि के प्रारंभ में वेदों का ज्ञान देना ।

५.समस्त जीवों को उनके कर्मानुसार सुख-दुःख रूप फल देना ।

आत्मा के कार्य – आत्मा अपने गत कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेकर संसार में रहता हुआ शुभाशुभ कर्म करता है। प्रत्येक जन्म में उसे भिन्न-भिन्न माता-पिता आदि प्राप्त होते हैं। कभी कोई किसी का बच्चा बनता है तो कभी कोई किसी का माता-पिता आदि । संसार में रहते हुए चेतन व अचेतनों से अनेक प्रकार के सम्बन्ध को जोड़ता और तोड़ता है । भिन्न-भिन्न योनियों में जाता हुआ तदनुसार सन्तान उत्पन्न करता, पालन करता है।

परन्तु आत्माओं के द्वारा प्राप्त सभी योनियों को तीन विभागों में बाँट सकते हैं। पहला है भोग योनि, दूसरा है कर्म-भोग योनि और तीसरा है कर्म योनि। भोग योनि वह है जहाँ केवल पिछले कर्मों का ही फल भोगना पड़ता है, बुद्धि-विवेकपूर्वक कर्म करने की सुविधा नहीं होती ।इस योनि में मुख्यतः जीवात्मा खाना,पीना,सोना,सन्तान पैदा करना आदि कार्य करता है। इस योनि में किये गए अच्छे-बुरे कर्मों का फल अगले जन्म में प्राप्त नहीं होता क्योंकि इसमें जीवात्मा के कर्म स्वाभाविक ज्ञान के आश्रित होते हैं, इसीलिए पाप-पुण्य, उन्नति-अवनति आदि का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जीवात्मा जब मनुष्य शरीर को प्राप्त करता है, तब उसे पिछले जन्मों के कर्मों का फल भी भोगना होता है और नये कर्म भी करने पड़ते हैं   इसीलिए इस योनि को ही कर्म-भोग योनि कहा जाता है। इस योनि में जीव को ईश्वर द्वारा एक विशेष प्रकार की बुद्धि प्राप्त होती है जिससे वह सही-गलत का विवेचन करने में समर्थ हो पता है। तदनुसार कृत कर्मों का फल सुख-दुःख रूप में उसे भोगना पड़ता है। उसके द्वारा इस जन्म में किये गए अच्छे-बुरे कर्म ही आगामी जन्म का कारण बनते हैं। तीसरे प्रकार के कर्म योनि वाले जीव वो होते हैं जिनको कोई फल भोगना नहीं होता परन्तु वे केवल सृष्टि के अन्य प्राणियों के उपकार के लिए ही जन्म लेते, जो कि सृष्टि के प्रारंभ में उत्पन्न हो कर अन्यों को वेद ज्ञान प्रदान करते हैं।

मनुष्य योनि में जीवात्मा के मुख्य कर्म कुछ निम्नलिखित हैं –

क. सर्वप्रथम इस योनि में जीवात्मा का लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति होता है ।

ख. ज्ञान प्राप्ति और अज्ञान की समाप्ति करना।

ग. वेद का अध्ययन करना एवं वेदानुकुल जीवन-यापन करना ।

घ. ऋषियों के द्वारा प्रोक्त आश्रम-व्यवस्था तथा वर्ण-व्यवस्था का पालन करना।

ङ.  पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण और देव-ऋण से उऋण होना ।

च. ध्यान-उपासना, प्राणायाम आदि द्वारा प्रतिदिन आत्मा की शुद्धि करना ।

छ. मन-वचन-कर्म से एक रूपता रखते हुए सत्याचरण करना ।

ज. परोपकार की भावना को अधिक से अधिक बढ़ाना ।

आत्मा और परमात्मा के मध्य में सम्बन्ध :- आत्मा और परमात्मा दोनों ही पृथक-पृथक नित्य सत्तायें हैं फिर भी अनादि कल से होने के कारण दोनों का सम्बन्ध भी अनादि है जैसे कि : –

ईश्वर पिता और जीवात्मा पुत्र

ईश्वर माता और जीवात्मा पुत्र

ईश्वर गुरु और जीवात्मा शिष्य

ईश्वर मित्र और जीवात्मा मित्र

ईश्वर स्वामी और जीवात्मा सेवक

ईश्वर उपास्य और जीवात्मा उपासक

ईश्वर व्यापक और जीवात्मा व्याप्य ….इत्यादि और अनेक प्रकार के सम्बन्ध हैं ।

ल्रेख- आचार्य नवीन केवली

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