आर्यशब्द मनुष्य निर्मितशब्द न होकर परमात्मा की देन है जो उसने वेद के माध्यम से सृष्टि के आरम्भ मे ही हमें दिया गया था। वेद वह ईष्वरीय ज्ञान है जो ईष्वर ने सृष्टि की आदि में चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा के हृदय में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया। वेदों में अनेकों स्थानो पर मनुष्यों के लिए ‘‘आर्य’’ शब्द का प्रयोग मिलता है। आर्य शब्द एक गुणवाचक शब्द व नाम है जिसे हम सृष्टि के सभी मनुष्यों को बिना उनका निज नाम जाने सम्बोधन के लिए प्रयोग कर सकते हैं। यह ऐसा ही है जैसे अंग्रेजी में अनजान व्यक्ति या व्यक्तियों को सम्बोधन के लिए ‘जेन्टलमैन’ शब्द का प्रयोग करते हैं। जेन्टलमैन के अर्थ हैं शिष्ट व्यक्ति। यही भावना व इससे कहीं अधिक प्रभावशाली शब्द आर्य है। पहला कारण तो यह हमें इस संसार के निर्माता ईष्वर से प्राप्त हुआ है। दूसरा इसके अर्थ देखने पर यह विदित होता है कि इसमें अनेकानेक गुणो का समावेश है। क्या ऐसे गुण संसार के किसी अन्य शब्द में हैं जिसका प्रयोग हम मनुष्यों के लिए करते हैं? यदि नहीं हैं तो इसे अपनाने व अन्य अल्प गुण व अल्प भद्रभाव वाले शब्दों को छोड़ने में हमें क्यों आपत्ति है? आईये आर्य शब्दमें निहित वाच्यार्थ व भावार्थ को देखते हैं। आर्य शब्द में श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्य-विद्यादि गुणयुक्त और आर्य देश में उत्पन्न होना व बसना आदि गुण व भाव निहित हैं । इसका यह भी अर्थ है आर्य दुष्ट स्वभाव से पृथक होता है, उत्तम विद्यादि के प्रचार से सबके लिए उत्तम भोग की सिद्धि और अधर्मी दुष्टों के निवारण के लिए निरन्तर यत्न करता है। अतः आर्य कहलाने वाले व्यक्ति सत्यविद्या आदि शुभ गुणो से अलंकृत होतेहैं ।
आर्य ज्ञान पूर्वक गमन करते हुए अपने उद्देष्य की पूर्ति करने वाले व्यक्ति को भी कहते हैं। आर्य, कृत्रिम जीवन व स्वभाव से दूर होता है व उसका जीवन व स्वभाव सत्य से पूर्ण होता है। आर्य असत्य से घृणा करता है व सत्य के प्रति उसमें स्वभाविक रूचि व उसे ग्रहण व धारण करने का स्वभाव होता है। इस प्रकार वह सत्यप्रिय, सत्यवादी, सत्यमानी व सत्यकारी होता है। आर्य वह होता है जो ईष्वरीय ज्ञान वेदों को अपना धर्म ग्रन्थ, प्रेरणा ग्रन्थ व उसके सृष्टिक्रम के अनुकूल, सत्य, ज्ञान, व्यवहारिक व मानवीय हित से संगत अर्थो के अनुसार जीवनयापन करता है। वेद को पढ़ना-पढ़ाना व सुनना सुनाना उसका परम धर्म होता है। वेद की शिक्षाओं को धारण व पालन कर ही आर्य बना जा सकता है। आर्य वह भी होता जो शन्ति व लोक कल्याण की भावना वालों से वैर या शत्रुता नहीं रखता। उसमे अहंकार नहीं होता जिससे वह कभी कोई दुष्कर्म नहीं करता और इस कारण कभी पतित भी नहीं होता। आर्य, पात्र व्यक्तियों व संस्थाओं को उनके पोषण व उद्देष्य की पूर्ति के लिए यथाषक्ति दान देता है। महर्षि दयानन्द के अनुसार धार्मिक, विद्वान, देव व आप्त पुरूषों का नाम आर्य है। आर्य मांस भक्षण, मद्यपान, धूम्रपान, नाना अभक्ष्य पदार्थो का सेवन नहीं करता और ऐसे लोगो की संगति से सदैव दूर रहता जिससे यह दुर्गण उसको न लग जाये । समाज के अग्रणीय आर्यो के घरों में भोजन पकाने का कार्य अज्ञानी, मूर्ख व पवित्र कर्मो को करने वाले लोग करते थे जिनकी प्राचीन काल में शूद्र संज्ञा थी। शूद्र जाति सूचक शब्द न होकर ज्ञान की कमी वाले व्यक्तियों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। गुण, कर्म व स्वभाव से शूद्र भी सत्यवादी, सत्यमानी, धर्मात्मा व गुणी होता है। गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित