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ऋषि दयानन्द 19 वीं सदी की एक महान् विभूति

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तथा अन्तिम चरण में भारत का भाग्य एक नया मोड़ ले रहा था। सदियों से सुप्त पड़ी इस देश की चेतना अव्यक्त से व्यक्त की तरफ सुषुप्ति से जागृति की तरफ, अप्रगति से प्रगति की तरफ अग्रसर हो रही थी। इस जागृत चेतना की अभिव्यक्ति का क्या रूप था? सदियों से सोई पड़ी यह चेतना जब भारत के नव प्रभात में अंगड़ाई लेकर आँख खोलने लगी, तब १७७२ में बंगाल में राजा राम मोहन राय ने और १८३४ में रामकृष्ण परमहंस तथा उसी काल के आस-पास स्वामी विवेकानन्द ने जन्म लिया, १८२४ में गुजरात में महर्षि दयानन्द ने जन्म लिया, १८९३ में मद्रास में थियोसोफिकल सोसाइटी ने जन्म लिया, १८८४ में महाराष्ट्र में प्रार्थना समाज ने और दक्खन एजूकेशन सोसाइटी ने जन्म लिया और इसी काल में मुसलमानों में चेतना का संचार करने के लिए सर सय्यद अहमद ने जन्म लिया । ये सब भारत की विभूतियां थीं और इसके नव-निर्माण का सपना लेकर गंगा और हिमालय की इस देव-भूमि का सदियों का संकट काटने के लिये प्रकट हुई थी।

जमाने का आह्वान स्वीकार किया

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में जिन विभूतियों ने जन्म लिया उनमें से ऋषि दयानन्द का बोधोत्सव पर्व हम आज मना रहे हैं। ऋषि दयानन्द आये, वे समय के दास बन कर नहीं आये, समय को अपना दास बनाने के लिए आये। महापुरुष यही कुछ करते हैं । हम समझते हैं कि हमें जमाने के अनुसार चलना है, महापुरुष जमाने की गर्दन पकड़ कर उसे अपने अनुसार चलाते हैं । वे खुद नहीं बदलते, जमाने को बदलते हैं। एक समाज शास्त्री ने कहा है कि यह जीवन एक ललकार है, एक चैलेज है, एक आह्वान है। साधारण लोग इस ललकार को सुनकर, इस चैलेज और इस आह्वान को देखकर जीवन-संग्राम से भाग खड़े होते हैं, जमाने का रंग पकड़ लेते हैं, महापुरुष जीवन की ललकार का, जीवन के आह्वान का उत्तर देते हैं, वे इस चैलेंज का जवाब देते हुए जीवन की समस्याओं के साथ जूझ जाते हैं, जूझते हुए प्राणों की बाजी लगा देते हैं, परन्तु इस संघर्ष में पीठ नहीं दिखाते जमाने का रंग पकड़ने के स्थान में जमाने को अपने रंग से रंग देते हैं, जमाने को पलट देते हैं।

विदेशी राज्य बर्दाश्त नहीं करूंगा

ऋषि दयानन्द जब इस देश के रणांगन में उतरे तब उन्हें चारों तरफ से ललकार ही ललकार सुनाई दी, चारों तरफ से चैलेंज ही चैलेंज नजर आये। सबसे बड़ा चैलेंज था विदेशी राज्य का। उनके सामने ललकार उठी–क्या विदेशी राज्य को बर्दाश्त करोगे ? ऋषि दयानन्द की आत्मा ने जवाब दिया । विदेशी राजे को बर्दाश्त नहीं करूंगा। उन्होंने राजस्थान के राजाओं को अंग्रेजी शासन के प्रति विद्रोह करने के लिये तैयार करना शुरू किया । ऋषि दयानन्द के जीवन का बहुत बड़ा भाग राजस्थान के राजाओं को संगठित करने में बीता।

ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन की गतिविधियों का उल्लेख करते हुए सिर्फ १८५६ तक का विवरण दिया है। १८५७-५८-५९ के तीन वर्षों में वे क्या करते रहे इसका उल्लेख उनके जीवन में नहीं मिलता। ये गदर के वर्ष थे। इस समय उनकी आयु ३३ वर्ष की थी। उन जैसा धधकता अंगारा इस आयु में क्या-क्या करता रहा, कहाँ-कहाँ चिनगारियाँ लगातारहा, कहाँ-कहाँ आग सुलगाता रहा। यह अधिकार में छिपा है, परन्तु इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि ऐसे अवसर पर वह चुप करके नहीं बैठ सके होंगे।

१८७३ में इस देश के गवर्नर जनरल लार्ड नार्थब्रुक थे। कलकत्ता के लार्ड विशप ने नार्थब्रुक तथा ऋषि दयानन्द में एक भेंट का आयोजन किया। इस भेट में दोनों में जो बातचीत हुई उसका विवरण लार्ड नार्थब्रुक ने अपनी डायरी में किया। यह डायरी लंडन में इण्डिया-हाऊस में आज भी सुरक्षित है।

लार्ड नार्थब्रुक ने कहा-पण्डित दयानन्द, आप मत-मतान्तरों का खंडन करते हैं। हिन्दुओं, ईसाइयों, मुसलमानों के धर्म की आलोचना करते हैं। क्या आपको अपने विरोधियों से किसी प्रकार का खतरा नहीं है ? क्या आप सरकार से किसी प्रकार की सुरक्षा नहीं चाहते?

ऋषि दयानन्द ने उत्तर दिया-अंग्रेजी राज्य में सबको अपने विचार प्रकट करने की पूरी स्वतंत्रता है इसलिये मुझे किसी से किसी प्रकार का खतरा नहीं है। इस पर खुश होकर गवर्नर जनरल ने कहा कि अगर ऐसी बात है तो आप अपने व्याख्यानों में अंग्रेजी राज के उपकारों का वर्णन कर दिया कीजिये । अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में जो आप ईश्वर-प्रार्थना किया करते हैं, उसमें देश पर अखण्ड अंग्रेजी शासन के लिये भी प्रार्थना कर दिया कीजिये।

यह सुनकर ऋषि दयानन्द ने उत्तर दिया- श्रीमान्जी, यह कैसे हो सकता है ? मैं तो सायं प्रात: ईश्वर से यह प्रार्थना किया करता हूँ कि इस देश को विदेशियों की दारता से शीघ्र मुक्त करें।

लार्ड नार्थब्रुक ने इस घटना का उल्लेख अपनी उस साप्ताहिक डायरी में किया जो वे भारत से प्रति सप्ताह हर मैजेस्टी महारानी विक्टोरिया को भेजा करते थे। इस घटना का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि मैंने इस बागी फकीर की कड़ी निगरानी के लिये गुप्तचर नियुक्त कर दिये हैं ।

 स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् रद्दी की टोकरी में

देश की परतंत्रता ही ऋषि दयानन्द के सन्मुख चैलेंज बनकर नहीं खड़ी थी, वे अपने समाज में जिधर नजर उठाते थे उन्हें चैलेज ही चैलेज दीख पड़ते थे, उनके कान में देश की समस्याओं की ललकार-ही-ललकार सुनाई पड़ती थी। वे महापुरूष इसीलिये थे क्योंकि वे किसी चैलेंज को सामने देखकर दम तोड़कर नहीं बैठते थे, किसी ललकार को सुनकर चुप नहीं रहते थे। समाज की हर समस्या से वे जूझे, हर फ्रंट पर डटे, और हर मैदान, हर अखाड़े में छाती तान कर खड़े रहे। कौन-सी समस्या नहीं थी जो इस देश के महावृक्ष की जड़ों को घुन की तरह नहीं खा रही थी। स्त्रियों को पर्दे में बन्द रखा जाता था, उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं था। ऋषि दयानन्द ने रूढ़िवादी समाज की इस ललकार का उत्तर दिया। ऋषि दयानन्द ने पहले-पहल आवाज उठाई कि स्त्रियों को वे सब अधिकार हैं जो पुरूषों को हैं। जैसे वेद मंत्रों का साक्षात्कार करने वाले पुरूष ऋषि है, वैसे वेद मंत्रों का साक्षात् करने स्त्री-ऋषिकाये भी हैं। लोपामुद्रा, श्रद्धा, विश्ववारा, यमी, घोषा आदि स्त्री ऋषिकाओं के नाम पाये जाते हैं। ऋषि दयानन्द ने स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् के नारे को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया।

अछूत शब्द को मिटा दिया

‘‘शूद्र संज्ञा” देकर समाज के जिस वर्ग के साथ हम अन्याय तथा अत्याचार कर रहे थे, जिन्हें हमने मनुष्यता के अधिकारों से भी वंचित कर दिया था, उनके अधिकारों की रक्षा के लिये वे उठ खड़े हुए। ऋषि दयानन्द ने सामाजिक व्यवस्था के लिये एक नया दृष्टिकोण दिया। उन्होंने जन्म की जात-पात को मानने से इन्कार कर दिया। जब जन्म से जात-पात ही नहीं, न कोई जन्म से बड़ा, न जन्म से छोटा, तब शूद्र कौन और अछूत कौन ?

समय था जब समाज के एक वर्ग के लिये “अछूत” शब्द का प्रयोग किया जाता था । आज हम उसके लिये ‘हरिजन-शब्द का प्रयोग करते हैं। परन्तु किसी को हम “अछूत” कहें, या हरिजन कहें-अर्थ दोनों का एक ही है, वह हमसे अलग है, एक पृथक वर्ग का है, हमारे समाज का हिस्सा नहीं। आर्यसमाज ने “अछूत” शब्द का प्रयोग नहीं किया, हरिजन शब्द का भी प्रयोग नहीं किया। आर्य समाज ने ‘दलित’ शब्द का प्रयोग किया। ‘दलित” – अर्थात्, जिसे मैंने दल रखा है, जिसके अधिकारों को मैंने ठुकरा रखा है। ‘अछूत”-शब्द में जिसे “अछूत” कहा गया उसे बुरा माना गया, ‘दलितश् शब्द में वह बुरा नहीं माना गया, मैंने दूसरे को दबाया इसीलिये मैं बुरा माना गया। ये दोनों शब्द एक ही भाव को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों में दृष्टिकोण कितना भिन्न हो जाता है। आर्यसमाज ने इस बात को समझा कि जब हम अछूत-शब्द का, या हरिजनदृशब्द का प्रयोग करते हैं, तब हम समाज की समस्या को समस्या ही बने रहने देते हैं, चैलेंज चैलेंज ही बना रहता है। यही कारण है कि पहले “अछूत” एक वर्ग बना हुआ था, अब ‘हरिजन” एक वर्ग बन गया है और वह समाज के एक पृथक वर्ग के तौर पर अपने अधिकार मांगता है । जब तक हम अछूत या हरिजन बने रहेंगे तभी तक तो विशेष अधिकारों की मांग कर सकेगे, इसीलिये जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं उस पर तो अछूत या हरिजन बने रहना नफे का सौदा है। आज अनेक ब्राह्मण बालक अपने को “अछूत” या हरिजन कहलाना पसन्द करते हैं क्योंकि उससे उन्हें छात्रवृत्ति मिलती है, राजनीति के अखाड़े के अनेक उम्मीदवार अपने को “अछूत” या हरिजन सिद्ध करने के लिये अदालतों में दौड़ते हैं क्योंकि इससे उन्हें असेम्बली या पार्लियामेंट की मेम्बरी मिलती है । परन्तु इससे क्या समाज की समस्या हल होगी ? ऋषि दयानन्द इस समस्या से जूझे थे। उन्होंने समाज के शब्द कोष से “अछूत”-शब्द को ही मिटा दिया था।

रूढ़िवाद की थोथी दीवार गिरायी

समाज-जीता-जागता एक चैलेंज हैं, चारों तरफ ललकार है, आह्वान है, पुकार है। हम इस चैलेंज का जबाब, इस ललकार और आह्वान का प्रत्युत्तर देंगे या नहीं देंगे ? हम समाज के चैलेंज को देखते हुए भी नहीं देखते, ललकार को सुनते हुए भी नहीं सुनते। शरीर में पीड़ा हो। उसे जो अनुभव न करे वह जीवित नहीं मृत है, समाज के शरीर में रोग हो, उसे जो दूर करने के लिये छटपटाने न लगे वह मृत समान है। ऋषि दयानन्द ने समाज के शरीर की पीड़ा को, इसके रोग को अनुभव किया, इसीलिये जीवित थे। उन्हें तो अपने समय का सारा समाज एक चैलेंज के रूप में दिखा। हिन्दुओं को रूढ़िवाद एक महान् चैलेंज था। जहां देखो वहां प्रथा की दासता, रूढ़ि की गुलामी। जो चला आ रहा है। उससे इधर नहीं हो सकते, उधर नहीं हो सकते। ऋषि दयानन्द ने रूढ़िवाद की इस थोथी दीवार को एक धक्के में गिरा दिया। अगर हिन्दू-धर्म उन्हें एक चैलेंज के रूप में दीख पड़ा तो ईसाइयत और इस्लाम भी उन्हें चैलेंज देता हुआ दीख पड़ा। हिन्दुओं की जड़ जहां अपने-अपने कर्मो से खोखली हो रही थी, वहाँ ईसाइयत तथा इस्लाम भी उसे कमजोर करने में कुछ उठा नहीं रख रहे थे। ऋषि दयानन्द जहां अपनों से जूझे, वहां बाहर वालो से भी उसी तरह से जूझे। वे हिन्दुओं से, ईसाइयों से, मुसलमानों से–सब से जूझ पड़े। दुनिया भर के गन्द को जला ड़ालने की उनमें हिम्मत थी। वह एक सूरमा थे जो दुनिया भर के रूढ़िवाद से टक्कर लेने के लिये उठ खड़े हुए थे ।

शक्ति की धारा फूटी

ऐसे लोग दुनिया को बदल देने के लिये पैदा हुआ हुआ करते हैं। वे आते हैं, एक नई लहर चला जाते हैं, संसार को एक नया दृष्टिकोण दे जाते हैं। पुराना जड़वाद उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता और वे उस पुराने जड़वाद को बर्दाश्त नहीं कर सकते। वे जहर उगलते हैं, आग बरसाते हैं, कूड़े-कर्कट को राख करते चले जाते हैं। परमात्मा करे, हमारा देश भारत, इन ऋषि दयानन्द के सपनों का साकार रूप होकर महानता में हिमालय-सा, पवित्रता में गंगा-सा, शीतलता में शान्ति की धारा बहाने में चन्द्रमा-सा उठ खड़ा हो।

लेखक -प्रो० सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, पूर्व संसद सदस्य

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