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एक दीपक बुझ गया लाखों दीपक जलाकर

प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक व्यक्तित्व होता है जिसके कारण वह अन्य मनुष्यों से अलग पहचाना जाता है। वही उसकी पहचान कहलाती है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ऐसे महापुरुष हुए हं, जिनकी चिंतनधारा में हमें जीवन के समस्त पहलुओं पर सटीक और स्पष्ट निर्देश मिलते हैं। उनकी विचारधारा में जो सार्वदेशिकता दिखाई देती है और जो समय की परिधि में नहीं बांधी जा सकती, वह इस चिन्तनधारा को और अधिक उत्कृष्टता प्रदान करती है। महर्षि ने केवल एक ही दिशा में कार्य नहीं किया अपितु सभी क्षेत्रों में अपनी दृष्टि डाली। उन्होंने जहा° एक ओर धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियों के विरुह् आवाज उठाई, वहीं दूसरी ओर वेदों का पुनरुह्ार भी किया। ऋषि दयानन्द ने वेदमन्त्रों के जैसे राष्टन्न्परक अर्थ किए हैं,उससे कहा जा सकता है कि वे राष्टन्न्भक्त और वेदभक्त साथµसाथ हुए। उनका राष्टन्न्प्रेम उनके धर्म का अंग रहा।

महर्षि दयानन्द प्रमुख रूप से एक धार्मिक पुरुष थे। परन्तु उन्होंने धर्म की जो व्याख्या की है वह किसी मनुष्य द्वारा स्थापित मत या सम्प्रदाय का वाचक न होकर मानव की सर्वांगीण उन्नति में सहायक उन गुणों का नाम है जिनके कारण सच्ची मानवता का विेकास होता है। उनके कथनानुसार धर्म वह है जो सत्य से युक्त है, न्याय की भावना से ओतप्रोत है और जो पक्षपात से रहित है। उनकी दृष्टि में ध्ार्म किन्हीं बाऽ कर्मकाण्डों का पुंज नहीं है अपितु धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय संयम, सत्य आदि मानवीय गुण ही हमे सच्चा धार्मिक बताते हैं। धर्म की परिभाषा में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ के आदर्श को जोड़ा है। इसके साथ ही धर्म और सत्य को एक दूसरे का पर्यायवाचक भी कहा। सत्य पर बहुत बल देते हुए कहा ‘असत्य का सम्भाषण और समर्थन करना मेरे लिए असंभव है। सत्य मेरा बनाया हुआ नहीं है, वह सनातन है और ईश्वर का है। उस सत्य को यथावत् प्रकट करने मंे मैं किसी से, किंचित्मात्र भी भयभीत नहीं होता।‘ स्वामीजी का मुख्य कार्य समाज में व्याप्त पाखण्ड को नष्ट करके सत्य अर्थ का प्रकाश करना था, जिसके लिए वे जीवन भर लगे रहे। इसके लिए उन्होंने प्रचार के क्षेत्र को अपनाया। घूम-घूमकर अवैदिक मान्यताओ के विरूह् प्रचार किया। धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करके निरंकार सर्वव्यापक ईश्वर के सिद्धांत को अपना मूलभूत मन्तव्य प्रतिपादित किया। इस मत का प्रचार करने में महर्षि ने अपना सारा जीवन लगा दिया। उनका कथन था कि प्रतिमा को ईश्वर मानने से वह सच्चिदानन्द और अखण्ड कैसे सिह् हो सकता है।

महर्षि दयानन्द का दूसरा क्षेत्र सामाजिक क्षेत्र में शांति लाना था। हमारा समाज उन दिनों अनेक प्रकार की कुरीतियों से जकड़ा हुआ था। जहां एक ओर बाल विवाह, सती प्रथा तथा महिलाओं को शिक्षा का अधिकार जैसी कुरीतियां थीं, वहीं पर दूसरी ओर सामाजिक एवं राष्टन्न्ीय एकता का नितान्त अभाव था। समाज ≈ंच-नीच तथा जातिवाद की संकुचित धाराआं में जकड़ा हुआ था। महर्षि ने इन समस्त कुरीतियों पर दृढ़ता से कुठाराघात किया। ‘नारी नरकस्य द्वारम्’ का ढोल पीटकर उनके लिए वेद का द्वार बन्द किया हुआ था तब स्वामी जी ने ‘यथेमां वाचं कल्याणीभावदानि जनेभ्यः’ यजुर्वे द के इस मन्त्र की घोषणा करते हुए नारी को वेदाध्ययन का
अधिकारी ठहराया।

सामाजिक दृष्टि से उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन किया, किन्तु वर्ण-व्यवस्था को गुण, कर्म तथा स्वभाव के अनुसार स्वीकार किया।

‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्चयते। महर्षि ने यह स्पष्टीकरण किया कि वकील का बेटा जन्म से वकील नहीं होता, डाक्टर का बेटा जन्म से डाक्टर नहीं होता। इसी तरह कोई जन्म से ब्रा२ण नहीं होता, विद्याध्ययन, तपस्या, आदि से ब्रा२ण होता है। जाति के उपयोग व्यक्ति को प्रेरित करने के लिए होना चाहिए।

दयानन्द जी की विशेषता उनका राष्टन्न्वाद है। वे व्यक्ति को केवल व्यक्तिगत जीवन की परिधि तक ही सीमित रखना नहीं चाहते थे। व्यक्ति समाज का अविच्छिन्न अंग है, व्यक्ति, समाज और राष्टन्न् तीनों अन्यान्याश्रित हैं। ये तीनों उनके मन में सदा एक साथ उपस्थित रहे। उन्होंने आर्यसमाज की जो स्थापना की, यह वेदवाद और राष्टन्न्वाद आर्यसमाज को स्वामी जी से विरासत में मिला। स्वामी जी ने राष्टन्न् का कल्याण करने के लिए अपने सारे सुख त्याग दिए। अपने देश की पराध्ाीनता से गहरी मानसिक वेदना ऋषि को होती थी। उन्होंने स्वराज्य प्राप्त करने के लिए और राष्टन्न्ीय स्वाभिमान को जागृत करने के लिए महŸवपूर्ण प्रयास किया। राष्टन्न् की एकता अखण्डता की रक्षा के लिए जीवन भर लगे रहे। राष्टन्न् की चेतना की अलख जगाई और देश को स्वाधीन बनाने का संकल्प लिया। महर्षि ने राजनीति में स्वराज्य का, संस्कृति में स्वभाषा का, धर्म में सर्व धर्म वेद का तथा अर्थनीति में स्वदेशी का समर्थन किया। प्रत्येक क्षेत्रा में स्व का समर्थन ही उनका राष्टन्न्वाद है। इस प्रकार उन्होंने स्वाधीनता की नींव डाली।

ी और आर्यसमाज की अत्याध्ािक देन है वह हिन्दी भाषा और साहित्य को उनका योगदान। गुजराती होने हुए भी उन्होंने हिन्दी में वेदभाष्य करके परमात्मा की अमरवाणी का शुह् स्वरूप प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त ऋषि ने छोटे बड़े ग्रन्थ लिखे। अपने ग्रन्थों के द्वारा हिन्दी भाषा को दिशा दी तथा उसे राष्टन्न्भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि, ये तीनों ही ग्रन्थ विभिन्न दिशाओं में हमारे पथ प्रदर्शक हैं। इनमें ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका महर्षि की विद्वता तथा उनके वेद सम्बन्धी विचारों का प्रतिरूप है। संस्कार विधि मुख्य रूप से कर्मकाण्ड की परिचायक है। तथा सत्यार्थ प्रकाश – सत्य अर्थ का प्रकाश – इसके नाम से ही प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ स्वामी जी के चिन्तन और सुविस्तृत ज्ञान का प्रतिनिधि है। सत्यार्थ प्रकाश अद्वितीय ग्रन्थ है। सत्य अर्थ जो पाखण्ड में तिरोहित हो चुका था, उस पाखण्ड रूपी अंध्ाकार को छिन्न-भिन्न करके सत्य के सूर्य का प्रकाश करना इस ग्रन्थ का उद्देश्य है। ईश्वर, ध्ार्म, शिक्षा, राजनीति, समाजिक दुर्दशा, मोक्ष आदि सभी विषयों पर महर्षि ने इस ग्रन्थ में सत्य का प्रकाश डाला है। स्वामी दयानन्द ने धर्म भ्रष्ट किए गए लोगों के लिए शुह् िका कार्य किया।

पश्चिमी सभ्यता में रंगे लोगों को भारतीय संस्कृति का पाठ पढ़ाया। उन्हेांने दलिताह्ार, छुआछूत का खण्डन, धार्मिक सुधार, राजनैतिक सुध्ाार, वृह् विवाह और सतीप्रथा का निवारण शिक्षा का प्रचार आदि सभी कार्यों के लिए अथक प्रयास किया।

इस अवसर पर दीपमालिका का पवित्र पर्व है। जहां अत्याचारी रावण को मारकर 14 वर्ष के वनवास के बाद श्रीराम के आगमन की प्रसन्नता में सामूहिक दीपमालिका और मनोरंजन का अवसर था। वहां इसी दिन वैदिक संस्कृति, स्वराज्य और मानवता के उह्ारक महर्षि दयानन्द सरस्वती का निर्वाण दिवस है। उनके लोकोŸार चरित्र से हमें प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए कि व्यक्ति को अज्ञान, पराध्ाीनता एवं विषमता के अन्याय- अत्याचार का उन्मूलन करने के लिए केवल प्रार्थना न कर स्वाबलम्बन एवं संगठन के लिए प्रयत्नशील हों। महर्षि ने निरन्तर पदयात्रा करके अपने समय में पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई, मानव मात्रा की समुन्नति के लिए अपने प्रयत्नों से अभूतपूर्व सामाजिक सांस्कृतिक शांति की थी। उनका एकमात्र लक्ष्य था- लेखनी और वाणी द्वारा देश के प्राचीन गौरव की प्रतिष्ठा और देशोह्ार के द्वारा विश्व शान्ति करना चाहते थे। वे भारतीय संस्कृति और भारत की उदाŸा परम्पराओं को देश देशान्तरों और द्वीप-द्वीपान्तरों में प्रचारित और प्रसारित करना चाहते थे। स्वामी जी के द्वारा प्रतिपादित आर्यसमाज के दस नियम किसी एक पथ के संस्थागत नियम न होकर मानवता के उत्थान, अभ्युदय और एकता के मार्गदर्शक सिह्ान्त हैं। वे राष्टन्न् के आर्थिक निर्माण में गोरक्षा, स्वदेशी की महŸाा पर निरन्तर बल देते थे, स्त्रियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्रामें उनकी गरिमा प्रतिष्ठित करना चाहते थे। दलितोह्ार को राष्टन्न् के लिए संजीवनी समझते थे।

अपनी छोटी सी आयु में महर्षि जो कार्य कर गए, वह अपूर्व एवं अनुपम है। हर क्षेत्रा में उन्होंने जो कार्य किया, उससे देश में नया स्वाभिमान जागा, भारतीय राष्टन्न्ीयता के क्षेत्र में अपूर्व संघर्ष हुआ। स्वामी जी में क्षमा दान की भावना अद्भुत थी। मूर्तिपूजा का खण्डन करने पर एक साधु उनको प्रतिदिन दुर्वचन कहा करता था, उसे मीठों आमों को प्रदान करके सच्चे शिव का बोध कराया। उनके सिद्धांन्तों का विरोध करने वाले विद्रोहियों ने स्वामी जी पर आघात करने के लिए उन पर जिन्दा सर्प फेंके। उनको कई बार विष पिलाया गया। उन्होंने अपने योग बल से इनका निराकरण किया, परन्तु अन्त में अपने रसोइए जगन्नाथ जैसे पापी द्वारा उनकी जीवन लीला समाप्त हुई। महर्षि के निर्वाण को 130 वर्ष के लगभग हो रहे हैं, ऐसे में जहां हम उनके व्यक्तित्व के प्रति अपने श्रह्ासुमन प्रस्तुत करें वहां हमं इस अवसर पर यह मूल्यांकन भी करना होगा कि उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज के सवा सौ से अधिक वर्षों में क्या समाज उतना खरा यशस्वी रहा है जिसका महर्षि ने सपना संजोया था। स्वाधीनता संग्राम में और भारतीय पुनर्जागरण के शैक्षणिक, सामाजिक कार्यों और आर्यजनों की यशस्विनी भूमिका रही है। परन्तु देश की जो वर्तमान दुरावस्था है, देश में जिस प्रकार का भ्रष्टाचार, स्वार्थों से परिपूर्ण राजनीति है, उसे देखते हुए आज आवश्यकता है आर्यसमाज और आर्यजन अपनी वही तेजस्विनी और स्वार्थहीन खरी भूमिका प्रस्तुत करें, जैसी उन्होंने महर्षि के अवसान के बाद के पहले 50 वर्षों में प्रस्तुत की थी। अन्त में हमें यह स्मरण रखना है
– एक दीपक बुझ गया लाखों दीपक जलाकर।